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इस कश्मीरी चुनाव में आज़ादी का मुद्दा कहां?

ताबिंदा कौकब बीबीसी संवाददाता, मुज़फ़्फ़राबाद पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में गुरुवार को संसदीय चुनाव गुरुवार हो रहे हैं. इस चुनाव में 26 राजनीतिक दल हिस्सा ले रहे हैं. इन चुनावों में करीब 27 लाख मतदाता हैं जबकि पाकिस्तान के चार प्रांतों में स्थित कश्मीरी शरणार्थियों की 12 सीटों के लिए मतदाताओं की कुल संख्या साढ़े चार […]

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पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में गुरुवार को संसदीय चुनाव गुरुवार हो रहे हैं. इस चुनाव में 26 राजनीतिक दल हिस्सा ले रहे हैं.

इन चुनावों में करीब 27 लाख मतदाता हैं जबकि पाकिस्तान के चार प्रांतों में स्थित कश्मीरी शरणार्थियों की 12 सीटों के लिए मतदाताओं की कुल संख्या साढ़े चार लाख से कुछ कम है.

पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की 41 एसेंबली सीटों के लिए 423 उम्मीदवार भाग ले रहे हैं जिनमें से 324 उम्मीदवार पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की 29 सीटों और 99 उम्मीदवार पाकिस्तान में रह रहे प्रवासी कश्मीरी शरणार्थियों की बारह सीटों के लिए मुकाबले में हैं.

यह पहला मौका है जब पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में चुनाव पाकिस्तानी सेना की निगरानी में आयोजित हो रहे हैं. इससे पहले 2011 में हुए चुनाव इस क्षेत्र की पुलिस की निगरानी में करवाए गए थे.

मुजफ़्फ़राबाद से पत्रकार औरंगज़ेब जराल के मुताबिक़ पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के चुनाव आयोग के सचिव मियां नइमुल्लाह का कहना है कि चुनाव में शांति बनाए रखने के लिए 29 हज़ार से अधिक सैनिक, अन्य अधिकारी और दूसरी संस्थाओं के लोग मतदान केन्द्रों के अंदर और बाहर तैनात किए जा रहे हैं.

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नइमुल्लाह के मुताबिक़ पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की पुलिस के सात हज़ार के करीब अधिकारी भी इन चुनावों में तैनात हैं.

इन चुनावों में पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़), पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, पीटीआई, जमात-ए- इस्लामी, पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ, मुस्लिम कांफ्रेस और पीपुल्स पार्टी आज़ाद कश्मीर के अलावा जमीयत उलेमा इस्लाम भी भाग ले रही हैं.

24 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान प्रशासन के अंतर्गत आने के बाद कश्मीर के इस हिस्से में लंबे समय तक राष्ट्रपति शासन रहा और साल 1975 में संसदीय प्रणाली शुरू करवाए जाने के बाद यहां राजनीतिक दलों के लिए ज़मीन तैयार हुई.

शुरू में यहां 1932 में स्थापित हुई राज्य की सबसे बड़ी पार्टी मुस्लिम कांफ्रेस अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो पाई, लेकिन इसके बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने भी यहां अपनी जगह बना ली.

यहां कई अलगाववादी दल भी हैं, लेकिन संविधान के मुताबिक़ चुनाव में भाग लेने वाली हर पार्टी को पाकिस्तान के शपथ पत्र पर दस्तख्त करना ज़रूरी है.

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राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पाकिस्तान में स्थापित सरकार का असर यहां होने वाले चुनाव में स्पष्ट नज़र आता है और इस इलाके के चुनाव में आमतौर पर वही पार्टी जीत हासिल करती है जिसे पाकिस्तानी सरकार का समर्थन प्राप्त हो.

जब-जब पाकिस्तान में मार्शल लॉ रहा, कश्मीर के इस हिस्से में मुस्लिम कांफ्रेस को चुनावों में बढ़त रही हालांकि इसके अलावा पीपुल्स पार्टी भी यहां सरकार बनाने में कामयाब हुई है.

यहां चुनाव में भाग लेने वाली पार्टियों के घोषणापत्र में एजेंडा साफ नहीं होता.

पत्रकार और विश्लेषक हक़ीम कश्मीरी कहते हैं कि राजनीतिक दलों का घोषणापत्र मात्र एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और अपनी पार्टियों के नेताओं की प्रशंसा करना ही रह गया है. वो कहते हैं कि यहां कोई बेरोज़गारी उन्मूलन की बात नहीं करता, और कोई कश्मीर की आज़ादी की बात नहीं करता.

उनका कहना था कि कश्मीरियों में विशेषकर युवाओं में राजनीतिक चेतना बढ़ी है, लेकिन परिवर्तन के नारे लगाने वाले राजनीतिक दल भी उन्हीं चेहरों को आगे लाए हैं जो कई बार दल बदल कर चुके हैं.

उन्होंने कहा, "कोई पार्टी नई बात लेकर नहीं आई है. यहां तक कि चुनाव आयोग से मांग की गई कि एक ऐसा बॉक्स भी रखा जाना चाहिए ताकि जो लोग किसी भी दल को वोट नहीं देना चाहते वे उस बॉक्स में अपना मत डालकर विरोध दर्ज करवा सकें. अभी हाल ये है कि लोगों को छोटी या बड़ी बुराई में से किसी एक का चयन करना होगा."

हालांकि विश्लेषक ज़ाहिद अमीन कहते हैं कि पार्टियों के घोषणापत्र का महत्व यहां नहीं है क्योंकि यहां समुदायों और परिवारों के महत्व अधिक हैं.

वो कहते हैं, "राजनीतिक दल समुदायों को नज़रअंदाज नहीं कर सकते. अगर वे चाहें कि समुदाय के आदमी को टिकट मिले तो ही वोट देंगे तो पार्टी को ऐसा करना पड़ता है."

ज़ाहिद अमीन का यह भी कहना है कि युवा अच्छे हालात चाहते हैं लेकिन हालात ऐसे बन नहीं पा रहे हैं.

वो बताते हैं, "जब 2009 में मुस्लिम लीग (एन) आई तो उसने मुस्लिम कांफ्रेस के ही पुराने लोगों को शामिल किया. सन् 2015 में पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ बदलाव के नारे के साथ ही आई, मगर उसने भी उन्हीं लोगों को शामिल किया जो साल 1975 से हर चुनाव का हिस्सा रहे थे. इसलिए नई पीढ़ी के लिए जगह नहीं बन पा रही."

ज़ाहिद अमीन के मुताबिक़ अब पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के राजनीतिक दल अपने सैद्धांतिक विचारों को भूलकर पाकिस्तान की केंद्रीय पार्टियों के नारे दोहराने लगे हैं.

वो कहते हैं, "इसके जिम्मेदार यहां के राजनेता ख़ुद हैं जो कि इस संसद को स्वतंत्रता की बुनियाद समझने के बजाय अब केवल पदों की राजनीति में लग गए हैं."

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