नयी किताब : डी सुब्बाराव ने ‘हू मूव्ड माइ इंटरेस्ट रेट?’ में किया दावा
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) देश के लिए आर्थिक नीतियां तय करने के लिए जाना जाता है़ इन नीतियों में कई बार केंद्र सरकार का हस्तक्षेप भी होता है. इससे कई बार टकराव की स्थिति पैदा होती है.
जहां यह मौजूदा मोदी सरकार और आरबीआइ गवर्नर रघुराम राजन के बीच देखने को मिल रहा है, तो पिछली यूपीए सरकार भी इन आरोपों से बच नहीं पायी़ आरबीआइ के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने अपनी किताब ‘हू मूव्ड माइ इंटरेस्ट रेट? – लीडिंग द रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया थ्रू फाइव टर्ब्यूलेंट इयर्स’ में यह बताया है कि वित्त मंत्री के तौर पर प्रणब मुखर्जी और पी चिदंबरम किस तरह उनके काम में दखलंदाजी करते थे.
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने अपनी एक किताब में इस बात का खुलासा किया है कि यूपीए सरकार के दो पूर्व वित्त मंत्रियों, पी चिदंबरम और प्रणब मुखर्जी ने केंद्रीय बैंक के कामकाज में, खास तौर पर ब्याज दर तय करने के मामले में हस्तक्षेप किया और ऐसा न करने की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी.
गौरतलब है कि कांग्रेस की अगुवाईवाली यूपीए सरकार के शासनकाल में वर्ष 2008 से 2013 तक सुब्बाराव रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे थे. इस दौरान उन्होंने प्रणब मुखर्जी और चिदंबरम के साथ काम किया़
352 पन्नों की अपनी किताब ‘हू मूव्ड माइ इंटरेस्ट रेट?’ में सुब्बाराव ने रिजर्व बैंक के मुखिया के तौर पर बिताये गये अपने कार्यकाल और उनके फैसलों पर इन दो तत्कालीन वित्त मंत्रियों के असर के बारे विस्तार से बताया है. उन्होंने लिखा है कि दोनों (वित्त मंत्रियों) ने निवेश बढ़ाने के लिए उन पर ब्याज दर घटाने का दबाव डाला था, जबकि महंगाई के मद्देनजर ब्याज दर बढ़ाना समय की मांग थी.
लीमन ब्रदर्स संकट के बाद से संकट भरे पांच साल के दौरान आरबीआइ का नेतृत्व करने वाले सुब्बाराव ने अपनी किताब में लिखा है- “मुझसे कई बार पूछा गया कि क्या ब्याज दर तय करने में सरकार की ओर से दबाव रहा़ निश्चित तौर पर था हालांकि परिप्रेक्ष्य, माहौल और व्यक्तित्व के आधार पर मनोवैज्ञानिक दबाव का तरीका बदलता रहता था़” उन्होंने कहा कि उन्हें वित्त मंत्रियों के कहे अनुसार नहीं करने की कीमत चुकानी पड़ी और सरकार ने दो डिप्टी गवर्नर – प्रणब मुखर्जी के वित्त मंत्री रहते उषा थोरट और चिदंबरम के कार्यकाल में सुबीर गोकर्ण – को सेवा विस्तार देने का सुझाव खारिज कर दिया गया.
सुब्बाराव ने लिखा है- “मुखर्जी और चिदंबरम, दोनों का दबाव डालने का तरीका अलग था. जहां मुखर्जी सीधे कहते थे कि ग्रोथ को सपोर्ट करने के लिए आरबीआइ ब्याज दरें घटाये, वहीं चिदंबरम यही बात अलग तरीके से कहते थे. उनका मानना था कि फिस्कल कन्सॉलिडेशन पर उनके प्रयासों को देखते हुए मुझे दरें घटानी चाहिए. वह अपनी दलीलें ज्यादा जोरदार ढंग से रखते थे.”
सुब्बाराव ने लिखा है कि पूरे पांच साल के कार्यकाल में सरकार आरबीआइ द्वारा ब्याज दर बढ़ाने से परेशान थी और इसे वृद्धि दर में कमी के लिए जिम्मेदार ठहराया. वह लिखते हैं- “रिजर्व बैंक को अर्थव्यवस्था के लिए ताली बजाने वाला (चीयरलीडर) बनना चाहिए, यह विचार मुझे कभी अच्छा नहीं लगा़ ” नौकरशाह से केंद्रीय बैंक के गवर्नर बने सुब्बाराव ने लिखा है कि चिदंबरम ने सरकार और आरबीआइ के बीच ऐसे मतभेदों को बंद दरवाजों के पीछे रखने का जो मौन समझौता था, उसे तोड़ा.
2012 में चिदंबरम के एक बयान के बारे में सुब्बाराव ने लिखा है- “मैंने जब बात नहीं मानी तो चिदंबरम ने चिढ़ कर एक अस्वाभाविक कदम उठाया और आरबीआइ के इस इनकार के रुख की सार्वजनिक रूप से आलोचना कर डाली. चिदंबरम ने तब कहा था, ग्रोथ की चुनौतियों से निबटने के लिए अगर सरकार को अकेले ही चलना है, तो हम ऐसा भी करेंगे. इस बयान से यह साफ था कि ग्रोथ सुस्त होने के समय ब्याज दरों में कटौती न होने से वह निराश थे.”
अपने एक अध्याय ‘वॉकिंग अलोन’ (अकेले चलना) में सुब्बाराव आगे लिखते हैं- “एक हफ्ते बाद ही मैक्सिको में जी-20 मीटिंग के डिनर में जब चिदंबरम आये, तो उन्होंने वहां सबका अभिवादन किया, लेकिन पूरी शाम मुझसे आंखें फेरे रहे.”
गौरतलब है कि सुब्बाराव को सबसे अधिक उनकी उन सख्त मौद्रिक पहलों के लिए याद किया जाता है, जो उन्होंने अपने कार्यकाल में तब उठाये जब एक ओर मुद्रास्फीति बढ़ रही थी और दूसरी ओर आर्थिक वृद्धि घट रही थी.
इसी बीच अक्तूबर 2012 में जब सुब्बाराव ने नीतिगत दर अपरिवर्तित रखी, तो चिदंबरम ने आरबीआइ नीति की बैठक से ठीक पहले राजकोषीय खाका पेश किया़ उन्होंने दावा किया, “चिदंबरम न सिर्फ उनसे परामर्श नहीं लिया, बल्कि उन्होंने अधिसूचना जारी करने से पहले मुझे सूचित भी नहीं किया़” उन्होंने चिदंबरम के एक अखबार के एक स्तंभ में किये गये इस दावे का भी खंडन किया, जिसमें उन्होंने कहा कि सरकार और आरबीआइ के बीच 10 मौद्रिक नीति में से आठ पर सहमति थी. वह शायद अपने अनुभव के बारे में बात कर रहे हों.
सुब्बाराव लिखते हैं- “मुझे लगा कि मेरे पूरे कार्यकाल में आरबीआइ द्वारा ब्याज दर बढ़ाने पर सरकार बेहद बेचैन रही और यह मानती रही कि मौद्रिक नीति से वृद्धि का गला घुंट रहा है.”
वर्ष 2009 और 2012 के बीच 13 बार ब्याज दरें बढ़ाने और सिर्फ एक बार 50 बेसिस पॉइंट्स की कटौती करनेवाले सुब्बाराव ने अपनी किताब में एक जगह लिखा है कि कई मौकों पर प्रणब मुखर्जी भी रिजर्व बैंक से नाखुश रहे.
आरबीआइ के गवर्नर के तौर पर 2011 में अपनी पुनर्नियुक्ति के बारे में सुब्बाराव ने लिखा है कि इस प्रक्रिया में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी सक्रिय तौर पर शामिल नहीं थे, लेकिन उन्हें सेवा विस्तार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हस्तक्षेप के कारण मिला. उन्हें अपनी पुनर्नियुक्ति की जानकारी समाचार चैनलों से मिली़ यह खबर प्रधानमंत्री कार्यालय के हवाले से दी गयी थी, न कि वित्त मंत्रालय केे हवाले से. सुब्बाराव को वित्त मंत्रालय से एक फोन भी नहीं आया. प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव टीकेए नायर ने उन्हें फोन कर पुनर्नियुक्ति की पुष्टि की. लेकिन डिप्टी गवर्नरों का ऐसा सौभाग्य नहीं था़
गौर करें तो वर्ष 1991 के बाद शायद यह पहला मौका है, जब आरबीआइ के किसी पूर्व गवर्नर ने ऐसी बात कही है, जिसे उनके काम में वित्त मंत्रियों की दखलअंदाजी कहा जा सकता है.
पूर्व गवर्नर सुब्बाराव की यह किताब रिजर्व बैंक के मौजूदा गवर्नर रघुराम राजन द्वारा बैंक में गवर्नर पद पर दूसरा कार्यकाल स्वीकार करने से इनकार करने के एक महीने के अंतराल में बाजार में आ रही है. बताते चलें कि राजन ने उन पर किये गये व्यक्तिगत हमलों के बाद दूसरा कार्यकाल स्वीकार करने से इनकार कर दिया था़