9.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस : योग के सूत्रधार

योग एक विद्या, विज्ञान और जीवनशैली है. इसे हजारों सालों से हमारे ऋषि-मनीषी परिष्कृत और विकसित करते आये हैं. इतिहास के उतार-चढ़ाव के बावजूद यह विद्या भारत में सुरक्षित ही नहीं रही, काल के प्रवाह के साथ संवर्द्धित भी होती गयी. प्राचीन मनीषियों की सोच आज एक वैश्विक विचारधारा बन गयी है और आज योग […]

योग एक विद्या, विज्ञान और जीवनशैली है. इसे हजारों सालों से हमारे ऋषि-मनीषी परिष्कृत और विकसित करते आये हैं. इतिहास के उतार-चढ़ाव के बावजूद यह विद्या भारत में सुरक्षित ही नहीं रही, काल के प्रवाह के साथ संवर्द्धित भी होती गयी. प्राचीन मनीषियों की सोच आज एक वैश्विक विचारधारा बन गयी है और आज योग पूरी दुनिया में फैल चुका है. करोड़ों लोगों ने अपने जीवन में स्वास्थ्य एवं स्फूर्ति की प्राप्ति तथा आंतरिक प्रतिभाओं की जागृति के लिए इस विद्या को अपना लिया है. बुनियादी मानवीय मूल्य योग साधना की पहचान हैं.
सभ्यता के आरंभिक दौर से ही से योग किया जा रहा है. धर्मों या आस्था के जन्म लेने से पहले योग के विज्ञान की उत्पत्ति हजारों साल पहले हुई थी. योग विद्या में शिव को पहले योगी या आदि योगी तथा पहले गुरु या आदि गुरु के रूप में माना जाता है. वैदिक काल के दौरान सूर्य को अधिक महत्व दिया गया. हो सकता है कि इस प्रभाव की वजह से आगे चल कर ‘सूर्य नमस्कार’ की प्रथा का आविष्कार किया गया हो.
प्राणायाम दैनिक संस्कार का हिस्सा था तथा यह समर्पण के लिए किया जाता था. महान संत महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्रों के माध्यम से उस समय विद्यमान योग की प्रथाओं, इसके आशय एवं इससे संबंधित ज्ञान को व्यवस्थित किया. पूर्व वैदिक काल (2700 ईसा पूर्व) में एवं इसके बाद पतंजलि काल तक योग की मौजूदगी के ऐतिहासिक साक्ष्य हैं. वेदों, उपनिषदों, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, पाणिनी, महाकाव्यों के उपदेशों, पुराणों आदि में योग के उल्लेख हैं. आज योग का जो रूप हम देख रहे हैं, वह किन मनीषियों के हाथों परिष्कृत और विकसित होता हुआ हमारे पास पहुंचा है, कुमार कृष्णन बता रहे हैं उनके योगदान के बारे में-
योगी श्रीअरविंद
जन्म
15 अगस्त 1872
मृत्यु
5 दिसंबर 1950
पुदुचेरी का विश्वविख्यात श्री अरविंद आश्रम, जो मनुष्य को आत्मसंयम के जरिये आंतरिक क्रियाओं से ईश्वर के साक्षात्कार का संदेश एवं प्रेरणा प्रदान करता है, उसके जनक श्री अरविंद घोष थे. अरविंद घोष जिन्होंने संपूर्ण जीवन को साधना में लगा कर, संसार के सारे सुख-साधनों को त्याग कर विश्व मानवता के ​कल्याण के लिए उत्सर्ग कर दिया.
इनका जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में श्री कृष्णधन घोष के यहां हुआ. श्री अरविंद के पिता पाश्चात्य सभ्यता के पक्षधर थे. वे अंगरेज सरकार में सिविल सर्जन थे. पिता चाहते थे कि उनका बेटा भी पाश्चात्य संस्कृति में पले-बढ़े. इसलिए उन्होंने सात वर्ष की आयु में ही श्री अरविंद को इंग्लैंड भेज दिया. श्री अरविंद ने इंग्लैंड में सफलतापूर्वक अपनी शिक्षा पूरी की और पिता के कहने पर वहां होनेवाली भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा में हिस्सा लिया, लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा में असफल हो गये और 1893 में भारत वापस आ गये.
उन्हीं दिनों इंग्लैंड में उनका परिचय बड़ौदा महाराज से हुआ. उन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपने राज्य में एक उच्च पद पर ​​नियुक्त कर लिया. बाद में वे बड़ौदा कॉलेज में वाइस प्रिंसिपल हुए. यहीं उन्होंने भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त ​किया. उन्हें पढ़ कर लगा कि आध्यात्मिक ज्ञान का जो अपार भंडार भारतीय प्राचीन ग्रंथों, वेद-पुराण-उपनिषदों में मौजूद है, वह कहीं और नहीं है.
इसी दौरान क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें एक साल की जेल हो गयी. जेल के दौरान ही उन्होंने भगवान कृष्ण की एक अदृश्य शक्ति को अनुभव किया. इस एक बड़े तथ्य को पाकर जब वे जेल से बाहर आये, तो यह संकल्प लेकर निकले कि वे अपनी समग्र मानवीय शक्तियों को आत्मा में एकीभूत करके अनंत अंत: शक्ति को मातृभूमि की रक्षा में नियोजित करेंगे.
वह पुदुचेरी चले गये, जहां उन्होंने जीवन का ज्यादातर समय विभिन्न तरह की साधना के विस्तार में लगाया. उनकी साधना की दिशा मनुष्य चेतना पर केंद्रित थी, वे मानव चेतना को शारीरिक, मानसिक, स्नायविक से होते हुए चैतन्य की श्रेणी तक ले जाना चाहते थे. शीघ्र ही उनका छोटा-सा साधना कुटीर एक बड़े आश्रम के रूप में बदलने लगा. उनका आश्रम आध्यात्मिक अस्त्रों की एक यंत्रशाला बन गया. यह एक संयोग है कि उनकी जन्मतिथि पर भारत स्वतंत्र हुआ. भारत की इस सफलता में श्री अरविंद का गुप्त योगदान असंख्य सशस्त्र सैनिकों से कम न था. यद्यपि योगी आज नहीं हैं, किंतु उनका अमर पुदुचेरी आश्रम सदैव ही उनकी याद ​दिलाता रहेगा, जहां उन्होंने राष्ट्र कल्याण के लिए तप किया था, योग साधना की थी.
श्यामाचरण लाहिड़ी
जन्म
30 सितम्बर 1828
मृत्यु
26 सितम्बर 1895
स्वामी ​शिवानंद सरस्वती
जन्म
8 सितंबर 1887
मृत्यु
1963
चिकित्सक से योगी बने स्वामी शिवानंद उन आध्यात्मिक गुरुओं में एक हैं, ​जिन्होंने पूरी दुनिया में योग प्रचार किया. निष्काम कर्मयोग के प्रतिपादक होने के कारण उन्होंने स्वार्थरहित सेवा के आदर्श पर बल दिया. वह सेवा की उच्चतर चेतना प्राप्त करने के लिए शुद्धिकरण की तैयारी जरूरी मानते थे. उनके योग में कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, राजयोग और मंत्रयोग शामिल था.
आठ सितंबर, 1887 को दक्षिण भारत के पट्टामदायी गांव में जन्मे स्वामी शिवानंद तंजौर चिकित्सा महाविद्यालय से चिकित्सक बनने के बाद ​तिरुचि में डॉक्टरी शुरू की. उनके बचपन का नाम कुप्पुस्वामी अय्यर था. 1913 में ​पिता की मौत के बाद एक रबर स्टेट के अस्पताल में प्रभारी की हैसियत से काम करने मलयेशिया चले गये.
वहां भ्रमणशील साधुओं के सान्निध्य में हिंदू धर्म ग्रंथों और बाइबल का अध्ययन किया. 1923 में सब कुछ दान कर भारत वापस आये और एक वर्ष तीर्थ यात्रा की. ऋषिकेश में स्वामी विश्वानंद सरस्वती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के रूप में दीक्षा दी. कई वर्षों तक चिकित्सक के तौर पर तीर्थयात्रियों और रोगग्रस्त भिक्षुओं की सेवा की. सन 1927 में बीमा पॉलिसी से प्राप्त धन से नि:शुल्क आरोग्यशाला की स्थापना की. सन 1932 में शिवानंद आश्रम की स्थापना की और उसके चार वर्ष के बाद डिवाइन लाइफ सोसाइटी बनायी तथा वहां से एक पत्रिका ‘द डिवाइन लाइफ’ का प्रकाशन आरंभ किया.
1945 में हिमालय की दुर्लभ जड़ी-बूटियों से औषधि बनाने के लिए शिवानंद ने आयुर्वेदिक फार्मेसी की स्थापना की. अपने शिष्यों तथा आम लोगों को योग का प्रशिक्षण देने के लिए 1948 में योग वेदांत उपवन अकादमी की स्थापना की. 1957 में नेत्र अस्पताल की आधारशिला रखी गयी. भारत, अमेरिका, कनाडा, बर्मा, दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया, यूरोप और दक्षिण अफ्रीका के 137 शाखाओं में फैले पूरी दुनिया में स्वामी शिवानंद के लाखों अनुयायी हैं. अंतरराष्ट्रीय शिवानंद योग वेदांत केंद्र द्वारा ‘योग जीवन पत्रिका’ का वर्ष में दो बार प्रकाशन किया जाता है.
1963 में उनके निधन के बाद उनके शिष्य चिदानंद डिवाइन लाइफ सोसाइटी के अध्यक्ष बने. अपने विश्व भ्रमण के माध्यम से पश्चिमी जगत में इसका व्यापक प्रचार किया. नये आध्यात्मिक संगठनों का निर्माण करने वाले उनके शिष्यों में स्वामी चिन्मयानंद – चिन्मय मिशन के संस्थापक, स्वामी ज्योर्तिमयानंद – मियामी अमेरिका में योग रिसर्च फाउंडेशन के अध्यक्ष, स्वामी सच्चिदानंद – अमेरिका में योग इंटीग्रल के संस्थापक और स्वामी सत्यानंद सत्यानंद – योग मिशन के संस्थापक हुए.
परमहंस योगानंद
जन्म
5 फरवरी 1893
मृत्यु
7 मार्च 1952
आध्यात्मिक गुरु और योगी थे. उन्होंने क्रियायोग का उपदेश दिया और पूरी दुनिया में उसका प्रचार किया. इनका जन्म पांच फरवरी 1893 को गोरखपुर शहर में एक बंगाली परिवार में हुआ था.
पिता भगवती चरण घोष ने इनका नाम मुकुंद चरण घोष रखा था. इनके माता-पिता श्यामाचरण लाहिड़ी के शिष्य थे. योगानंद के अनुसार क्रियायोग ईश्वर से साक्षात्कार की प्रभावी विधि है. इसके पालन से अपने जीवन को संवारा और ईश्वर की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है. योगानंद पहले भारतीय गुरु थे, जिन्होंने अपने अधिकतर कार्य पश्चिम में किये. 1920 में वह अमेरिका चले गये. अपना पूरा जीवन व्याख्यान देने, लेखन तथा निरंतर विश्वव्यापी कार्य को दिशा देने में लगाया. उनकी उत्कृष्ट कृति ‘योगी कथामृत’ है.
क्रियायोग पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते हैं, जिनका मकसद आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज करना है. यह सरल मन:कायिक पद्धति है. इसके माध्यम से मानव रक्त कार्बन रहित तथा आॅक्सीजन से पूर्ण हो जाता है. इसके अतिरिक्त आॅक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपांतरित होकर मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों को नवशक्ति से पूर्ण कर देते हैं.
स्वामी कुवलयानंद
जन्म
30 अगस्त 1883
मृत्यु
1966
योग और योग शिक्षा में वैज्ञानिक एवं उपचार संबंधी शोध के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान के लिए स्वामी कुवलयानंद का महत्वपूर्ण योगदान है. 30 अगस्त 1887 को बड़ौदा जिले के दबोई गांव में मराठी परिवार में जन्मे स्वामी कुवलयानंद के बचपन का नाम जगन्नाथ गणेश गुणे था.
किशोरावस्था में वह गुजरात के नर्मदा नदी के ​किनारे मलसार स्थित योग केंद्र के परमहंस माधव दास जी महाराज के शिष्य बन गये. वे एक प्रसिद्ध विद्वान और शिक्षाशास्त्री एवं स्वतंत्रता सेनानी थे. सन 1916 में उन्होंने खंडेश एडुकेशन सोसाइटी की स्थापना की तथा 1923 तक इसके प्राचार्य के रूप में कार्यरत रहे. सन 1943 कुवलयानंद ने दो संगठनों की स्थापना की. आध्यात्मिक विकास पर बल देता योग के चिकित्सा और वैज्ञानिक अन्वेषण में संलिप्त लोनावाला, पुणे में कैवल्यधाम श्रीमन माधव योग मंदिर.
यह संस्था आजकल योग शिक्षा के लिए कार्यशालाएं चलाती है और विभिन्न रोगों का उपचार करती है. भारत में इसकी अनेक शाखाएं हैं. दो शाखाएं अमेरिका और फ्रांस में है. 1935 से यहां योग मीमांसा पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है. योग की विशेष कला और विज्ञान में युवक और युवतियों को प्रशिक्षण देने के लिए गोरहनदास सेकहरिया सांस्कृतिक विन्यास महाविद्यालय की भी स्थापना की.
योगीराज हरिदेव प्रसाद ठाकुर
जन्म
1935
मृत्यु
2011
बिहार के भागलपुर में जन्मे योगीराज हरिदेव प्रसाद ठाकुर का नाम योग के क्षेत्र में बिहार में प्रसिद्ध नाम है. अपने गुरु विष्णु चरण घोष से योग में शिक्षा ली. उन्हें ​​बिहार के तत्कालीन राज्यपाल डॉ जाकिर हुसैन ने योगीराज की उपाधि से सम्मानित किया. पंडित जवाहरलाल नेहरू और चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने सम्मानित किया. बंगाल के शांति निकेतन में भी उन्होंने योग की शिक्षा दी. योग प्रसार प्रचार के दीपनगर में 1963 में भारतीय शारीरिक प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की. लंबे अरसे तक मारवाड़ी व्यायामशाला में योग प्रशिक्षक रहे. तिलकामांझी विश्वविद्यालय के प्रतियोगिताओं के निर्णायक मंडल में भी रहे.
स्वामी सत्यानंद सरस्वती
जन्म
25 दिसंबर 1923
मृत्यु
5 दिसंबर २०09
उत्तराखंंड के अल्मोड़ा में 25 दिसंबर, 1923 को जन्मे स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस शताब्दी के महानतम संतों में हैं, जिन्होंने समाज के हर क्षेत्र में योग को समाविष्ट कर, सभी वर्गों, राष्ट्रों और धर्मों के लोगों का आध्यात्मिक उत्थान सुनिश्चित कर दिया. योग का तात्पर्य होता है जोड़ना और परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने योग का संसार में जिस वैज्ञानिक रूप में पुनर्जीवन किया, उस योग ने पूरी दुनिया को एक सूत्र में जोड़ कर रखा है.
आज पूरब से लेकर पश्चिम तक जिस योग लहर में योग स्नान कर रहा है, उसके मूल में स्वामी सत्यानंद सरस्वती का कर्म और उनके गुरु स्वामी शिवानंद सरस्वती का वह आदेश है, जो उन्होंने सत्यानंद को दिया था.
जन्म से ही उनमें अभूतपूर्व आध्यात्मिक प्रतिभा परिलक्षित हुई. युवावस्था तक उनकी आध्यात्मिक आकांक्षा अत्यंत तीव्र हो गयी, और सन 1943 में गुरु की तलाश में अपना घर-परिवार त्याग दिया. उनकी खोज ऋषिकेश में जाकर समाप्त हुई, जहां उन्होंने महान संत स्वामी शिवानंद को गुरु के रूप में 19 वर्ष की आयु में वरण किया. उनके गुरु स्वामी शिवानंद सरस्वती ने 1956 में उनसे कहा कि ‘सत्यानंद जाओ और दुनिया को योग सिखाओ’.
स्वामी सत्यानंद गुरु आश्रम त्याग कर परमहंस परिव्राजक संन्यासी हो गये. गुरु के आदेशानुसार उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था – योगविद्या का प्रचार-प्रसार, द्वारे-द्वारे तीरे-तीरे.उन्होंने पूरे भारत की यात्रा के साथ-साथ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों की भी यात्रा की. परिव्राजक के रूप में बिहार यात्रा के क्रम में छपरा के बाद 1956 में पहली बार मुंगेर आये. पहले वे लाल दरवाजा और बाद में राय बहादुर केदारनाथ गोयनका के आनंद भवन में रहते थे. यहां की प्राकृतिक छटा उन्हें आकर्षित करती थी.
जब वे यहां रहते तो कर्णचौड़ा अवश्य जाते. कभी ध्यान करते तो कभी सो जाते. यहां उन्हें विशेष अनुभूति होती थी. यहीं उन्हें दिव्य दृष्टि से यह पता चला कि यह स्थान योग का अधिष्ठान बनेगा और योग विश्व की भावी संस्कृति बनेगी. आनंद भवन में रह कर उन्होंने सिद्ध भजन पुस्तिका तैयार की. 1961 में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय योग मित्र मंडल की स्थापना की, तब तक योग निद्रा और प्राणायाम विज्ञान, पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी. 1962 में इंटरनेशनल योग फेलोशिप का रजिस्ट्रेशन हुआ. इसके बाद तो योग पर पत्र-पत्रिकाओं और किताबों का सिलसिला चल पड़ा.
परिव्राजक जीवन की समाप्ति के बाद उन्होंने वसंत पंचमी के दिन 19 जनवरी, 1964 को बिहार योग विद्यालय की स्थापना की. वे आरंभ से इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि योग विद्या को विज्ञान और जीवनशैली के रूप में किस प्रकार विकसित किया जाये. योग की प्रकाशन क्षमता के प्रतीक के रूप में स्वामी शिवानंद की अखंड ज्योति प्रज्वलित की. साथ ही सत्यानंद योग रिसर्च लाइब्रेरी भी शुरू किया गया. 1964 में मुंगेर में प्रथम अंतरराष्ट्रीय योग सम्मेलन आयोजित किया, जिसका उद्घाटन बिहार के तत्कालीन राज्यपाल अनंत शयनम आयंगर ने किया.
इसके उपरांत डेनमार्क, फ्रांस, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के योग शिक्षकों को प्रशिक्षित किया. प्रशिक्षण के उपरांत इन लोगों ने अपने-अपने देशों में प्रथम विद्यालय और योग केंद्रों की स्थापना की. इसके परिणामस्वरूप ’70 के दशक में योग का कार्य पूरी दुनिया में फैलने लगा. इसी प्रकार, 1966 में दूसरा और उसके बाद तीसरा योग सम्मेलन अंतरराष्ट्रीय स्तर का हुआ. 1967 में रायगढ़ में योग विद्यालय की स्थापना की.
गोंदिया में चतुर्थ अंतरराष्ट्रीय योग सम्मेलन में शिक्षा के क्षेत्र में योग के समावेश पर गहन चर्चा हुई. 26 अप्रैल 1968 को योग के प्रचार के लिए स्वामी जी ने विदेश प्रस्थान किया और हांगकांग, सिडनी, तोक्यो, सेन फ्रांसिस्को, शिकागो, टोरंटो, नार्वे, हॉलैंड, एम्सटरडम, फ्रैंकफर्ट, जिनेवा, ज्यूरिख, वियेना का भ्रमण कर योग का शंखनाद किया.
2007 में सेवा, प्रेम और दान को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए उन्होंने देवघर के रिखिया में रिखिया पीठ की स्थापना की. पांच दिसंबर, 2009 को शिष्यों की उपस्थिति में वह महासमाधि में लीन हो गये.
श्री तिरुमलाई कृष्णमाचार्य
जन्म
18 नवंबर 1888
मृत्यु
1989
श्री तिरुमलाई कृष्णमाचार्य भारत के आरंभिक आदर्श योग पुरुष थे़ इन्होंने योग की भिन्न और विशिष्ट प्रथाएं स्थापित की. इनके शिष्यों में बीकेएस अयंगार, के पट्टाभि जॉयस, इंदिरा देवी, श्रीवत्स रामास्वामी, एजी मोहन और कृष्णमाचार्य के पुत्र टीकेबी देसिकाचार्य हैं.
कर्नाटक के चित्तदुर्ग जिले के मुचुकुंदापुरम के अयंगार परिवार में जन्मे कृष्णमाचार्य के पूर्वजों में एक नौंवी सदी के शिक्षक और संत नाथमुनि थे. कृष्णमाचार्य के पिता वेदों के प्रसिद्ध शिक्षक थे. पिता के मार्गदर्शन में ही संस्कृत, वेद और अमरकोष जैसी पुस्तकों का अध्ययन आरंभ किया.
पिता की मृत्यु के बाद मैसूर आये. यहां उनके प्रपितामह श्री श्रीनिवास ब्रह्मतंत्र प्रकाल स्वामी प्रकाल मठ के अध्यक्ष थे. यहां उन्होंने स्वामी प्रकाल मठ और कामराज संस्कृत महाविद्यालय में औपचारिक शिक्षा प्राप्त की. मैसूर में ही उन्होंने वैदिक विद्या में परीक्षा उत्तीर्ण की. सोलह वर्ष की आयु में लंबी भारत यात्रा के दौरान छह भारतीय दर्शनशास्त्रों वैशेषिक न्याय, साख्य, योग मीमांसा और वेदांत का अध्ययन किया. 1906 में वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय पहुंचे और उस दौरान ब्रह्मर्षि ​शिव कुमार शास्त्री के साथ कार्य करते हुए तर्कशास्त्र और संस्कृत का अध्ययन जारी रखा. पुन: 1909 में मैसूर आकर प्रकालमठ में वेदांत का अध्ययन किया.
इस दौरान उन्होंने प्राचीनतम वाद्य यंत्र वीणा बजाना भी सीखा. 1914 में फिर बनारस आये और क्वींस कॉलेज में दाखिला लिया. आर्थिक सहयोग न मिलने के कारण धार्मिक भिक्षुओं की तरह प्रतिदिन सात घरों से रोटी के लिए गूंथा आटा पाकर भोजन की व्यवस्था की. बनारस के बाद दर्शन की पढ़ाई करने के लिए पटना विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. बंगाल के वैद्य कृष्ण कुमार से आयुर्वेद अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति भी मिली. उन्होंने श्री बाबू भगवान दास से योग सीखा और पटना विश्वविद्यालय से साख्य योग की परीक्षा उत्तीर्ण की.
सन 1919 में कृष्णमाचार्य योगेश्वर राममोहन ब्रह्मचारी की खोज में निकले. वे नेपाल के परे हिमालय पर्वत में निवास करते थे. श्रीब्रह्मचारी से पतंजलि के योग सूत्र, आसन व प्राणायाम, योग के चिकित्सकीय पहलुओं को सीखते हुए वहां उन्होंने कई साल ​बिताये. गुरु ने गुरखा भाषा में योग कुरूंथा का स्मरण कराया. दक्षिण भारत लौट कर मैसूर के राजा के संरक्षण में उन्होंने योग विद्यालय की स्थापना की. योग, मकरंद, योगांजलि और योगसानालू सहित अनेक पुस्तकों का लेखन किया. उनका योग सिद्धांत आष्टांग विन्यास योग के निमित्त है.
इसका खास जोर शक्ति व ओजस्विता प्राप्त करने के लिए प्रभावकारी शैली पर आधारित है. उन्होंने अपने शिष्यों के धर्म और संस्कृति को समझने का प्रयास किया. हैदराबाद के निजाम से उन्होंने योग शिक्षा पर उर्दू में बात की. इससे प्रभावित होकर उनका सारा परिवार योग करने लगा. जीवन के एक शतक बितानेवाले कृष्णमाचार्य का योग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा.
जग्गी वासुदेव
जन्म
3 सितम्बर, 1957
जग्गी वासुदेव एक योगी और दिव्यदर्शी हैं. जग्गी वासुदेव का जन्म तीन सितंबर, 1957 को कर्नाटक राज्य के मैसूर शहर में हुआ. उनके पिता एक डॉक्टर थे. बालक जग्गी को कुदरत से खूब लगाव था. अक्सर ऐसा होता था, वे कुछ दिनों के लिए जंगल में गायब हो जाते थे, जहां वे पेड़ की ऊंची डाल पर बैठ कर हवाओं का आनंद लेते और अनायास ही गहरे ध्यान में चले जाते थे. जब वे घर लौटते तो उनकी झोली सांपों से भरी होती थी, जिनको पकड़ने में उन्हें महारत हासिल है.
11 वर्ष की उम्र में जग्गी वासुदेव ने योग का अभ्यास करना शुरू किया. इनके योग शिक्षक थे श्री राघवेंद्र राव. 25 वर्ष की उम्र में अनायास ही बड़े विचित्र रूप से, इनको गहन आत्म अनुभूति हुई, जिसने इनके जीवन की दिशा को ही बदल दिया. एक दोपहर, जग्गी वासुदेव मैसूर में चामुंडी पहाड़ियों पर चढ़े और एक चट्टान पर बैठ गये. तब उनकी आंखें पूरी खुली हुई थीं.
अचानक, उन्हें शरीर से परे का अनुभव हुआ. उन्हें लगा कि वह अपने शरीर में नहीं हैं, बल्कि हर जगह फैल गये हैं, चट्टानों में, पेड़ों में, पृथ्वी में. अगले कुछ दिनों में, उन्हें यह अनुभव कई बार हुआ और हर बार यह उन्हें परमानंद की स्थिति में छोड़ जाता. इस घटना ने उनकी जीवनशैली को पूरी तरह से बदल दिया. जग्गी वासुदेव ने उन अनुभवों को बांटने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का फैसला किया. इस मकसद को पूरा करने के लिए ईशा फाउंडेशन की स्थापना की.
सद्गुरु द्वारा स्थापित ईशा फाउंडेशन एक लाभरहित मानव सेवा संस्थान है, जो लोगों की शारीरिक, मानसिक और आतंरिक कुशलता के लिए समर्पित है. यह दो लाख पचास हजार से भी अधिक स्वयंसेवियों द्वारा चलाया जाता है. इसका मुख्यालय ईशा योग केंद्र कोयंबटूर में है. आंतरिक विकास के लिए बनाया गया यह शक्तिशाली स्थान योग के चार मुख्य मार्ग – ज्ञान, कर्म, क्रिया और भक्ति को लोगों तक पहुंचाने के प्रति समर्पित है. इसके परिसर में ध्यानलिंग योग मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की गयी है.
1999 में सद्गुरु द्वारा प्रतिष्ठित ध्यान लिंग अपनी तरह का पहला लिंग है, जिसकी प्रतिष्ठता पूरी हुई है. योग विज्ञान का सार ध्यानलिंग, ऊर्जा का एक शाश्वत और अनूठा आकार है. इसके प्रवेश द्वार पर सर्व-धर्म स्तंभ है, जिसमें हिंदू, इसलाम, ईसाई, जैन, बौध, सिख, ताओ, पारसी, यहूदी और शिंतो धर्म के प्रतीक अंकित हैं, यह धार्मिक मतभेदों से ऊपर उठ कर पूरी मानवता को आमंत्रित करता है.
स्वामी निरंजनानंद सरस्वती
जन्म
14 फरवरी 1960
स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग के प्रसिद्ध जानकार हैं. वह बिहार के मुंगेर स्थित प्रसिद्ध योग स्कूल के प्रमुख हैं और उन्होंने योग, तंत्र और उपनिषदों पर कई पुस्तकें लिखी हैं.
छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में 14 फरवरी, 1960 को जन्मे स्वामी निरंजनानंद की जीवनदिशा उनके गुरु स्वामी सत्यांनद द्वारा निर्देशित रही. स्वामी सत्यानंद सरस्वती, बिहार योग विद्यालय के संस्थापक थे. 1964 बिहार योग विद्यालय और स्वामी निरंजन दोनों के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण साल रहा. इसी साल मुंगेर में बिहार योग विद्यालय की स्थापना हुई और इसी साल चार साल के निरंजन योग विद्यालय में प्रविष्ट हुए. यहां उन्हें गुरु ने योग निद्रा के माध्यम से योग और अध्यात्म का प्रशिक्षण दिया. कम उम्र में ही वे इतने योग्य हो चुके थे कि स्वामी सत्यानंद ने उन्हें दशनामी संन्यास परंपरा में दीक्षित करने के बाद काम पर लगा दिया. उन्हें विदेशों में योग के प्रसार की जिम्मेवारी दी गयी. उन्हें न सिर्फ योग समझाना था, बल्कि दुनिया की विविध संस्कृतियों को समझना भी था.
सांस्कृतिक एकता के यौगिक सूत्रों की खोज करनी थी. उन्होंने विशेष तौर पर ध्यान और प्राणायाम के क्षेत्र में अनुसंधान का काम अल्फा रिसर्च के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ जो कामिया के साथ काम किया. सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया के ग्लैडमैन मेमोरियल सेंटर के जापानी डॉ टॉड मिकुरिया ने उन पर ध्यान संबंधी शोध किये. जिस समय स्वामी निरंजनानंद विदेश के लिए निकले, तो उस समय स्वामी सत्यानंद के योग आंदोलन के परिणामस्वरूप केवल फ्रांस में 77 हजार पंजीकृत योग शिक्षक थे.
उस समय के लिए यह बहुत बड़ी संख्या थी. उन दिनों वे सिर्फ इन योग शिक्षकों को को प्रशिक्षित करते थे. इस आंदोलन का नाम योगा एड्यूकेशन इन स्कूल रखा गया. 23 साल की उम्र तक निरंजनानंद सरस्वती अपने हिस्से का एक बड़ा काम पूरा करके वापस लौट आये थे.
भारत लौटने के बाद उन्होंने सन 1993 के विश्वयोग सम्मेलन के बाद गंगा दर्शन में बाल योग मित्र मंडल की स्थापना की. 1994 में विश्व के प्रथम योग विश्वविद्यालय, बिहार योग भारती तथा 2000 में योग पब्लिकेशन ट्रस्ट की स्थापना की. मुंगेर में विभिन्न गतिविधियों के संचालन के साथ उन्होंने दुनिया भर के साधकों का मार्गदर्शन करने हेतु व्यापक रूप से यात्राएं की. सन 2009 में गुरु के आदेशानुसार संन्यास जीवन का एक नया अध्याय आरंभ किया. योग दर्शन, अभ्यास एवं जीवनशैली की गहन जानकारी रखनेवाले स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने योग, तंत्र, उपनिषद पर अनेक प्रामाणिक पुस्तकें लिखी हैं.
योग का मानव प्रतिभा के रूप में कैसे इस्तेमाल हो, इसके लिए वे निरंतर प्रत्यनशील हैं. स्वामी निरंजनानंद जी के मुताबिक दरअसल योग जीवनशैली है. यह एक अभ्यास नहीं है. यहां तक कि यह आध्यात्मिक साधना भी नहीं है. असल में यह जीवनशैली ही है. एक बार आप योग के नियमों के तहत जीना शुरू कर देते हैं, तो बहुत संभावनाएं हैं कि आपकी धारणाओं, बातचीत, मन, भावनाओं, व्यवहार और कार्यों आदि में सुधार होने लगेगा.
बी.के.एस अयंगार
जन्म
14 दिसम्बर 1918
मृत्यु
28 अगस्त 2014
बीकेएस अयंगार के नाम के मशहूर योगगुरु वेल्लुर कृष्णमाचारी सुंदरराजा अयंगार अग्रणी योगगुरु थे. उन्होंने आयंगर योग की स्थापना की और इसे पूरी दुनिया में मशहूर बनाया. सन 2002 में भारत सरकार द्वारा उन्हें साहित्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में पद्मभूषण व 2014 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया. ‘टाइम’ पत्रिका ने 2004 में दुनिया के सबसे प्रभावशाली 100 लोगों की सूची में उनका नाम शामिल किया था. अयंगार ने जिन प्रसिद्ध लोगों को योग सिखाया था, उनमें जिद्दू कृष्णमूर्ति, जयप्रकाश नारायण, येहूदी मेनुहिन जैसे नाम शामिल हैं. आधुनिक ऋषि के रूप में विख्यात अयंगार ने विभिन्न देशों में अपने संस्थान की सौ से अधिक शाखाएं स्थापित की. यूरोप में योग फैलाने में वे सबसे आगे थे.
कर्नाटक के वेल्लुर में 1918 में पैदा हुए अयंगार 1937 में महाराष्ट्र के पुणे चले आये और योग प्रसार करने के बाद 1975 में योग विद्या नाम से अपना संस्थान आरंभ किया, ​जिसके बाद देश-विदेश में कई शााखाएं खोली गयीं. उन्होंने योग पर तीन पुस्तकें लिखी हैं – ‘लाइट आॅफ योगा’, ‘लाइट आॅन प्राणायाम’, और ‘लाइट आॅन योग सूत्र आॅफ पतंजलि’. ‘लाइट आॅफ योगा’ का 18 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. उन्हें आधुनिक योग का जनक माना जाता है.
बीकेएस अयंगार ने आयंगर योग की सृष्टि की. उन्होंने योग की पहली शिक्षा अपने गुरु तिरुमलाई कृष्णमाचार्य से ली थी. इसके बाद योग इन्हें इतना प्रिय हो गया था कि वे इस ज्ञान को खुद तक ही सीमित न रख कर सब में बांट देना चाहते थे. उन्होंने कई अनुसंधानों के बाद अायंगर योग की पद्धति विकसित की. यह पद्धति अष्टांग योग पर आधारित है.
स्वामी वेद भाारती
जन्म
1933
मृत्यु
जुलाई 2015
ऋषिकेश में स्वामी राम साधक ग्राम में स्वामी वेदभारती का आश्रम हैं. वे हिमालय के स्वामी राम के शिष्य हैं. यह ग्राम उन साधकों के लिए है जो योग के पारंपरिक ज्ञान को मूल स्वरूप में ग्रहण करना चाहते है. उन्होंने मात्र नौ वर्ष की उम्र से पतं​जलि के योग सूत्र की शिक्षा देनी शुरू की. 14 वर्ष की उम्र से देश और दुनिया का भ्रमण कर रहे हैं. योग ध्यान और अध्यात्म पर उनकी 18 पुस्तकें हैं. उनके मुताबिक योग और ध्यान स्वशासन का विज्ञान है, उसकी कला है. यह प्रक्रिया सिर्फ आसनों तथा प्राणायामों तक सीमि​त नहीं है.
डॉ एचआर नागेंद्र
जन्म
1 जनवरी 1943
पूरब और पश्चिम का जहां सर्वोत्तम देखा जा सकता है, वह स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान है. यह जहां एक तपोभूमि है, वहीं प्रयोगभूमि भी है. नाम है- प्रशांति कुटीरम. अब यह एक विश्वविद्यालय का रूप ले चुका है. इसकी शुरुआत 25 साल पहले हुई थी.
विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ एचआर नागेंद्र की पैतृक जमीन पर संस्थान का सपना बुना गया. डॉ नागेंद्र नासा से इस्तीफा देकर योग की ओर अग्रसर हुए. उनके इस रूपांतरण में एकनाथ रानाडे की भूमिका रही है. उन्हीं की प्रेरणा से पहले वे विवेकानंद शिला स्मारक से जुड़े और उसके बाद यहां आये. योग का हाल के वर्षों में काफी प्रचार-प्रसार हुआ है. उसे वैज्ञानिक आधार देने में इस संस्थान का बड़ा योगदान माना जा रहा है.
1973 में एक दिन कन्याकुमारी के विवेकानंद शिला स्मारक गये. वहां उनकी मुलाकात स्मारक के तत्कालीन संचालक एकनाथ रानाडे से हुई़ 1975 में वे विवेकानंद शिला स्मारक में जीवनदानी के रूप में सम्मिलित हुए. वहीं पर उनके दिल में योग थेरेपी और रिसर्च का काम आया. 1986 से अब तक वे विवेकानंद केंद्र योग रिसर्च फाउंडेशन के सेक्रेटरी हैं और प्रशांति कुटीरम के योग संस्थान के निदेशक हैं. योग पर उनकी 35 पुस्तकें हैं. उनमें यह पुस्तक बहुत चर्चित है- योग का आधार और उसके प्रयोग.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें