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खेती हुई फायदेमंद, अंधविश्वास से उठा विश्वास तो संवरने लगा पुनगी

रांची जिला के मांडर प्रखंड की कंजिया पंचायत का एक गांव है – पुनगी. यह गांव आदिवासी बहुल है. एक समय था जब इस गांव की जमीनें सूखी और बंजर हुआ करती थीं. ग्रामीणों को किसी प्रकार की सुविधाएं नहीं थी. ग्रामीण स्वयं को असहाय महसूस करते थे. रोजी रोटी कमाने के लिए ज्यादातर लोग […]

रांची जिला के मांडर प्रखंड की कंजिया पंचायत का एक गांव है – पुनगी. यह गांव आदिवासी बहुल है. एक समय था जब इस गांव की जमीनें सूखी और बंजर हुआ करती थीं. ग्रामीणों को किसी प्रकार की सुविधाएं नहीं थी. ग्रामीण स्वयं को असहाय महसूस करते थे. रोजी रोटी कमाने के लिए ज्यादातर लोग पलायन कर जाते थे. बाहर के राज्यों में ईंट भट्टों, भवन निर्माण या किसी असंगठित क्षेत्र में मजदूरी करते और जीवन चलाते. आज इस गांव में बदलाव आया है. बंजर भूमि हरे-भरे खेत में बदल गये हैं.

पलायन कर बाहर गये लोग अच्छे किसान बन गये हैं. मटर, गोभी, सरसों से लहलहाते हरे-भरे खेत अब गांव की नयी पहचान बन गये हैं. तीन सौ परिवार वाला यह गांव पहले से बेहतर स्थिति में है. लोगों का पलायन काफी कम हो गया है. ग्रामीण आजीविका के लिए अपने ही गांव के जमीनों पर खेती कर रहे हैं. खेती की नयी तकनीक को प्रभावशाली तरीके से उपयोग में लाया जा रहा है. लोगों को अपने अधिकारों की जानकारी हुई है. गांव के ज्यादातर बच्चे स्कूल जाते हैं. सर्व शिक्षा अभियान के तहत यहां एक प्राइमरी स्कूल है और उच्च शिक्षा के लिए बच्चे नजदीक के ही गांव के उच्च विद्यालय जा रहे हैं. विकास की योजनाओं को प्रभावी बनाया जा रहा है.

शिकोह अलबदर
ललिया उरांव की उम्र 60 को पार कर रही है. कुछ अस्वस्थ भी रहते हैं मगर ग्रामसभा को लेकर बड़े उत्साहित रहते हैं. ललिया उरांव बताते हैं कि वो थल सेना में थे. सेवानिवृत हुए तीस साल हो गये. सेवानिवृत्ति के बाद जब गांव वापस आये तो समझ में नहीं आता था कि क्या करें. खेती-बाड़ी में लग गये और गांव के विकास में हमेशा अपनी भागीदारी निभायी. गांव में कभी चिकित्सक नहीं आते थे. पेसा कानून लागू होने के बाद कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने यहां के लोगों को ग्रामसभा का महत्व बताया. पेसा कानून के प्रावधानों के बारे में भी जानकारी दी. इससे लोग अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हो गये.

चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता बीडी शर्मा के संगठन भारत जन आंदोलन से जुड़े जोनस लकड़ा बताते हैं कि इस गांव में लोगों के पास खेती की जमीन थी, लेकिन जानकारी का अभाव था. इस गांव में खेती के जानकारों को बुलाया और लोगों को खेती से संबंधित जानकारी दी जाने लगी. नशा उन्मूलन के लिए अभियान चलाया गया जिससे नशा को काफी हद तक रोका जा सका है. नशा कर मारपीट करने की घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आयी है.

पीरू उरांव कहते हैं कि यह एक ऐसा गांव था जहां के हर परिवार का एक या दो सदस्य रोजी-रोटी के लिए राज्य से बाहर जरूर पलायन कर जाते थे. गांव में ही कुछ ऐसे परिवार भी थे, जो पूरी तरह से आजीविका के लिए पलायन कर जाते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. पीरु उरांव कहते हैं – गांव में अब 25 प्रतिशत से भी कम लोग पलायन करते हैं. जो बाहर जाते भी हैं, वे खेती के समय लौट आते हैं.

शिक्षा के विषय पर कहते हैं : 100 में एकाध परिवार ही ऐसा हो सकता है, जो अपने बच्चे को स्कूल नहीं भेज रहा हो. जोनस लकड़ा ने इस गांव में 1980 के दशक में प्रौढ़ शिक्षा के तहत रात्रि पाठशाला की शुरुआत की थी. उस समय रात्रि पाठशाला में 40-50 ग्रामीण जुटते थे. खेती-बाड़ी, पशुपालन तथा स्वास्थ्य पर कई तरह का प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके जोनस लकड़ा ने इसका प्रयोग इस गांव के विकास के लिए किया. वे अंधविश्वास के खिलाफ भी लोगों को प्रशिक्षण देते थे. बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों के माध्यम से ग्रामीणों को खेती से संबंधित प्रशिक्षण दिलाया गया. विश्वविद्यालय के सहयोग से ग्रामीणों को कृषि में प्रशिक्षण के लिए भेजा जाने लगा. इस काम में ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट का भी काफी योगदान रहा है.

खेती से गांव के लोगों की आर्थिक स्थिति सुधरी है. लोगों को यह बताया जाता है कि संगठित होकर खेती करें और लाभ कमायें. गांव के लोगों को प्रारंभ में अपनी पैदावार के विपणन का किसी प्रकार का अनुभव नहीं था तो व्यापारी कम दाम में ही उपज को खरीद लेते थे. लेकिन ग्रामीणों ने आपस में इस बात की चर्चा कर संगठित होकर अपनी उपज का सही मूल्य पाया.

्रगांव के किसान चारो उरांव बताते हैं कि 1989-90 में वे स्कूल के दिनों में आर्थिक परेशानी के कारण कोलकाता चले गये थे. लेकिन बाद में वापस गांव आये और अपने परिवार की जमीन पर खेती शुरू की. उनके पिताजी व चाचाजी के पास 11 एकड़ जमीन थी. चारो ने मेहनत कर खेती को लाभदायक बनाया, जिसके बाद उनलोगों ने दो एकड़ जमीन और खरीदी. आज वे अपने खेत में तरह-तरह की सब्जियां व सरसों आदि उपजाते हैं.

गांव में इस नारे को बुलंद किया गया कि अंधविश्वास पर विश्वास नहीं करें. शुरुआती दिनों में इसके लिए लोगों को प्रायोगिक अनुभव कराया गया. जैसे, भगत के घर से सामान गायब कर उससे यह मालूम करने की कोशिश की गयी कि वह पाइप कहां है. भगत इस सवाल का जवाब नहीं दे सके. इस तरह के और भी दूसरे प्रयोग किये गये. इससे लोगों को यह बताया गया कि जब वह अपनी चीजों के बारे में आपको नहीं बता सकता तो भला फिर दूसरों के बारे में कैसे बता पायेगा.

Prabhat Khabar Digital Desk
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