बीबीसी के रूपर्ट विंगफील्ड-हेयस को पिछले हफ्ते अपनी रिपोर्टिंग के कारण उत्तर कोरिया से बाहर निकाल दिया गया और उन्हें माफी मांगने पर मजबूर किया गया.
उन्हें वहां दस घंटों के लिए नज़रबंद रखा गया और उनसे पूछताछ की गई. यहां रूपर्ट बता रहे हैं कि उनके साथ उत्तर कोरिया में क्या हुआ.
एक हफ्ते तक उत्तर कोरिया में रहने के बाद मैं वापस घर लौटने के लिए तैयार था. मैं तीन नोबेल पुरस्कार विजेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल की उत्तर कोरिया की यात्रा को कवर करने के सिलसिले में प्योंगयांग में था.
मैं प्योंगयांग में कहीं भी अकेले नहीं जा सका. हर वक्त मेरे ऊपर नज़र रखने वाले पांच लोग साथ में होते थे.
रात में बीबीसी की टीम एक उमस भरी विला में रहती थी.
हम बीजिंग में ठंडी बीयर और अच्छी नीद का मज़ा लेना चाहते थे.
प्योंगयांग एयरपोर्ट पर महिला अप्रवासन अधिकारी मेरे पासपोर्ट को लेकर थोड़ा ज्यादा वक्त लगा रही थी.
आख़िरकार उन्होंने जब तक मेरे पासपोर्ट पर मुहर लगाई तब तक दूसरे सुरक्षागार्ड मेरे सामान की तलाशी लेते रहे. यह मुझे बुरा लग रहा था.
तब तक उत्तर कोरियाई सीमा बल के एक जवान ने मेरे डिजिटल रिकॉर्डर को अपने हाथ में लेते हुए मुझे आवाज़ लगाई.
उसने कहा, "हमें इसकी जांच करनी है."
पीछे के एक कमरे में एक दूसरा गार्ड लैपटॉप पर मेरे रिकॉर्डर की फाइल खोलने की कोशिश कर रहा था.
मैंने उनसे पूछा कि "परेशानी क्या है? मेरे कार्ड में कुछ नहीं है."
गार्ड ने कहा, "रूक जाइए, इंतज़ार कीजिए."
मैंने कहा कि मैं इंतज़ार नहीं कर सकता हूं. मुझे बीजिंग जाने के लिए विमान पकड़ना है.
गार्ड ने बताया कि विमान तो पहले ही जा चुका है. आप बीजिंग नहीं जा रहे हैं. अब मेरा दिमाग ठनका.
उस वक्त मेरे सहयोगी मारिया बर्न और मैथ्यू गोडार्ड विमान पर जाने से मना कर रहे थे और उत्तर कोरियाई गार्डों पर चिल्ला रहे थे जो उन्हें विमान की ओर धकेल रहे थे.
लेकिन मुझे इसके बारे में पता नहीं था. मैं अपने आप को बहुत अकेला महसूस कर रहा था.
इसके बाद मुझे एक कार में ले जाया गया. जब तक हम प्योंगयांग की लगभग खाली सड़क पर चलते रहे तब तक कार में कोई कुछ नहीं बोला.
मुझे एक होटल के कॉन्फ्रेंस रूम में ले जाया गया और बैठने को कहा गया. मेरे सामने अधिकारियों का एक दल बैठा हुआ था.
उनमें से सबसे बुजुर्ग ने पहले मुझसे बात की.
उन्होंने कहा, "मिस्टर रुपर्ट, यह मुलाकात कितनी जल्दी और आराम से समाप्त हो सकती, यह आपके रवैए पर निर्भर करता है."
मुझसे कहा गया कि मेरी रिपोर्टिंग से उत्तर कोरियाई लोगों का अपमान हुआ है और मुझे अपनी गलती माननी है.
उन्होंने बीबीसी की वेबसाइट पर छपे मेरे लिखे तीन लेख दिखाए.
उम्रदराज अधिकारी ने मुझसे पूछा, "क्या आप यह सोचते हैं कि कोरियाई लोग खराब है."
मैंने जवाब दिया, "नहीं"
"क्या आप सोचते हैं कि कोरियाई लोग कुत्ते की तरह आवाज़ निकालते हैं?"
मैंने दोबारा जवाब दिया, "नहीं"
उन्होंने चिल्लाते हुए कहा, "तब क्यों लिखते हो यह सब?"
मैं चक्कर में पड़ गया था. उनका क्या मतलब हो सकता है?
मुझे मेरा एक लेख दिखाया गया, जिसमें से आपत्तिजनक भाग को काले पेन से घेर दिया गया था.
मैंने सोचा कि "क्या वे वाकई में गंभीर है?"
"उन्होंने ‘कठोर-चेहरे’ का मतलब कुरूप और ‘बार्क’ का मतलब निकाला था कि मैं सोचता हूं कि वे कुत्तों की तरह भौंकते हैं."
मैं विरोध जताते हुए कहा, "इसका मतलब वो नहीं है जो आप सोच रहे हैं."
बुजुर्ग ने मेरी ओर तिरछी नज़र से देखते हुए कहा, "मैंने अंग्रेजी पढ़ी है. तुम क्या सोचते हो कि इन शब्दों के जरिए तुम क्या कहना चाहते हो, मैं समझता नहीं हूं?"
दो घंटे तक उन्होंने कोशिश की कि मैं अपनी गलती मान लूं. आख़िरकार वो बुजुर्ग अधिकारी जाने के लिए खड़ा हुआ.
उन्होंने कहा, "यह साफ है कि अपने रवैये से आपको परेशानी होने वाली है. हमारे पास पूरी तफ्तीश करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. "
इसके बाद एक नौजवान ने पूछताछ का मोर्चा संभाला.
उसने पूछा, "आपको पता है कि मैं कौन हूं?"
मैंने ना में जवाब दिया.
उसने कहा, "मैं न्यायिक अधिकारी हूं. मैंने ही केनेथ बेई के मामले की जांच की थी और अब आपके मामले की जांच करने जा रहा हूं. "
यह सुनकर मेरे पेट में मरोड़ होना शुरू हो गया. केनेथ बेई एक कोरियाई अमरीकी थे जिन्हें 2013 में उत्तर कोरिया में 15 साल की सज़ा दी गई थी.
एक लंबी पूछताछ के बाद आखिरकार साढ़े तीन बजे मुझे छोड़ा गया और मुझे मारिया और मैथ्यू से मिलवाया गया.
उन्हें प्योंगयांग के बाहर एक दूसरे गेस्ट हाउस में रखा गया था. एयरपोर्ट से मुझे गायब हुए दस घंटे हो गए थे.
हमें इसके बाद यंगगाकडो होटल में जाने की अनुमति दी गई जहां सभी अंतरराष्ट्रीय मीडिया के लोग मौजूद थे. इसके बाद हमने थोड़ी राहत की सांस ली. लेकिन अगले दो दिनों तक हमें उत्तर कोरिया छोड़ने की इजाज़त नहीं थी.
फिर अचानक आठ मई को जब हम एयरपोर्ट जाने की तैयारी कर रहे थे तो सरकार ने घोषणा की कि मुझे देश निकाला दिया जा रहा है.
आख़िरकार उन्होंने मुझे हिरासत में क्यों लिया और मुझे बाहर निकाला? मेरा अनुमान है कि उन्हें मेरी रिपोर्टिंग से लगा कि नोबेल पुरस्कार विजेताओं की यात्रा की सफलता की कहानी सही ढंग से पेश नहीं हो पाएगी.
उनकी यात्रा उत्तर कोरिया के लिए बहुत महत्व की थी. ये नोबेल विजेता देश की अच्छी छवि पेश करने वाले थे. उन्होंने यहां के सबसे मेधावी छात्रों से मुलाकात की थी.
लेकिन मेरी कवरेज से उन्हें अपनी योजना पर पानी फिरने का डर था.
मैंने हिरासत में 10 घंटे बिताए लेकिन इन दस घंटों में ही मुझे यह महसूस हुआ कि उत्तर कोरिया में किसी का लापता हो जाना कितना आसान है.
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