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कांग्रेस : कार्यकर्ताओं से दूर होने का खामियाजा

राशिद किदवई वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस को अगर भाजपा को चुनौती देनी है, तो उसे वैचारिक लड़ाई शुरू करनी होगी. भाजपा को वैचारिक लड़ाई के सहारे ही परास्त किया जा सकता है. अगर पार्टी भाजपा के रास्ते पर जाकर ध्रुवीकरण की राजनीति करेगी, तो भविष्य में उसे इसका गंभीर खामियाजा भुगतना होगा. पांच […]

राशिद किदवई
वरिष्ठ पत्रकार एवं
राजनीतिक विश्लेषक
कांग्रेस को अगर भाजपा को चुनौती देनी है, तो उसे वैचारिक लड़ाई शुरू करनी होगी. भाजपा को वैचारिक लड़ाई के सहारे ही परास्त किया जा सकता है. अगर पार्टी भाजपा के रास्ते पर जाकर ध्रुवीकरण की राजनीति करेगी, तो भविष्य में उसे इसका गंभीर खामियाजा भुगतना होगा.
पांच राज्यों के चुनावी नतीजे कांग्रेस के लिए निराशाजनक हैं. केरल व असम में वह सत्ता से बेदखल हो गयी. यह हार कांग्रेस के लगातार पिछड़ने का संकेत है. हालांकि, राजनीतिक जीवन में उतार-चढ़ाव आता रहता है. वर्ष 1998 में जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाला था, तब देश में केवल पांच राज्यों में ही उनकी सरकार थी.
पार्टी में आंतरिक कलह था. नेतृत्व को लेकर कार्यकर्ताओं में उत्साह था कि अब बेहतर होगा. मौजूदा स्थिति तब से काफी भिन्न है. चुनावों में लगातार मिल रही हार से कार्यकर्ता नेतृत्व को लेकर आश्वस्त नहीं है. पार्टी के सामने नेतृत्व का संकट खड़ा है. काफी समय से चर्चा है कि अब पार्टी की कमान राहुल गांधी को दी जायेगी, लेकिन यह भी स्पष्ट नहीं है.
इन चुनावों में राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल में वाम से गंठबंधन कर रणनीतिक गलती की. इस गंठबंधन का नुकसान पार्टी को केरल में उठाना पड़ा. 2008 में वाम दलों ने न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. ऐसे में दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच इस गंठबंधन को लेकर पहले से ही संदेह था. अगर वाम दलों के साथ गंठबंधन करना ही था, तो पार्टी को कोई वैचारिक रास्ता निकालना चाहिए था. कांग्रेस वर्किंग कमेटी में प्रस्ताव लाया जाता. चर्चा के बाद भाजपा को हराने का प्रस्ताव पारित कर गंठबंधन का रास्ता तैयार किया जाता. उन्हें यह याद रखना चाहिए था कि ममता बनर्जी कांग्रेस की वैचारिक विरोधी नहीं रही हैं, लेकिन वाम दलों से गंठबंधन कर कांग्रेस ने भविष्य मजबूत सहयोगी खो दिया है.
इसके अलावा, 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस शासित राज्यों में बेहतर प्रदर्शन नहीं करनेवाले मुख्यमंत्रियों को हटाने का प्रस्ताव पारित किया गया था. असम में भी तरुण गोगोई को हटाने के पक्ष में लगभग 52 विधायक थे, लेकिन कुछ कांग्रेसियों ने शीर्ष नेतृत्व को समझा दिया कि हार के लिए मुख्यमंत्री को हटाने से आलाकमान पर भी सवाल उठेंगे. इससे आहत होकर असम में कांग्रेस के कद्दावर नेता हेमंत विस्व सरमा भाजपा में चले गये. दरअसल, पार्टी को समझ नहीं आ रहा कि आगे बढ़ने के लिए क्या कदम उठाया जाये.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने असम में कांग्रेस, एजीपी और एआइयूडीएफ का एक महागंठबंधन बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन पार्टी ने इसे खारिज कर दिया. लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व जमीनी हकीकत को समझ नहीं पा रहा है. नेतृत्व का मतलब सिर्फ परिवार से नहीं है, बल्कि राजनीतिक कौशल का परिचय देना से है. यह सही है कि कांग्रेस में सोनिया-राहुल के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है.
ऐसे में पार्टी को आगे बढ़ना है, तो राहुल को अध्यक्ष पद की कमान तत्काल सौंप देनी चाहिए. साथ ही, पार्टी को अपने मूल सिद्धांतों पर लौटना होगा. चुनाव में प्रत्याशियों के चयन व प्रचार के तरीके को तय करना होगा. किसी बाहरी व्यक्ति के सहारे पार्टी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकती है. केवल प्रशांत किशोर के सहारे कांग्रेस उत्तर प्रदेश अौर अन्य राज्यों में चुनाव जीतने का सपना नहीं देख सकती है.
इसके लिए कार्यकर्ताओं से संवाद बनाना और उनमें उत्साह जगाना जरूरी है. साफ है कि इन चुनावी नतीजों का असर उत्तर प्रदेश और पंजाब में होनेवाले चुनावों पर पड़ेगा. खास कर पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह का पक्ष कमजोर होगा.
कांग्रेस को अगर भाजपा को चुनौती देनी है, तो उसे वैचारिक लड़ाई शुरू करनी होगी. भाजपा को वैचारिक लड़ाई के सहारे ही परास्त किया जा सकता है. अगर पार्टी भाजपा के रास्ते पर जाकर ध्रुवीकरण की राजनीति करेगी, तो भविष्य में उसे इसका गंभीर खामियाजा भुगतना होगा. पार्टी को सामाजिक लड़ाई भी लड़नी होगी और कार्यकर्ताओं की बात सुननी होगी. सही समय पर सही फैसले लेने की क्षमता विकसित करनी होगी. साथ ही लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी को जनहित के मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की शुरुआत करनी होगी.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)

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