"हमारे मसीहा बाबासाहेब आंबेडकर हैं, भगवान राम नहीं,"
भीवराव आंबेडकर की 125वीं वर्षगांठ की रैली में ऐसा बोली थीं बसपा प्रमुख मायावती.
उधर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक रैली में कहा- "सिर्फ़ नरेंद्र मोदी सरकार में ही बाबासाहेब आंबेडकर के बनाए संविधान और सबके विकास की बात पर अमल हो रहा है."
उत्तर प्रदेश में 2017 में विधान सभा चुनाव होने हैं और दोनों बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता प्रदेश के दलितों और पिछड़ों को रिझाने में लगी हुई हैं.
पिछले चुनाव में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को भारी बहुमत से जीत मिली थी.
लेकिन इस बार सभी की नज़रें अमित शाह और मायावती पर टिकी हुई हैं.
कुछ महीने पहले मायावती कई उन लोगों से मिल रहीं थीं जो पार्टी की टिकट चाहते हैं.
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जब एक ऐसे नेता ने मायावती से अपनी लोकप्रियता के गीत गाए, तब मायावती ने सवाल किया, "तो सिर्फ बसपा के मंडल को-ऑर्डिनेटरों से ही मिलते रहे हो. समिति और प्रभारी लोगों की तो राय कुछ और है. थोड़ी और मेहनत करके दोबारा आओ."
इधर आरएसएस और अमित शाह ने उत्तर प्रदेश की बिसात के लिए अपने चार भरोसे के लोगों को लखनऊ में तैनात कर रखा है.
केशव प्रसाद मौर्य, ओम माथुर, सुनील बंसल और शिव प्रकाश जैसे आरएसएस की बैकग्राउंड वाले नेता राज्य में सक्रिय हैं जबकि प्रदेश प्रवक्ता चन्द्रमोहन का भी संबंध संघ से ही है.
मतलब साफ़ है कि अमित शाह आम चुनाव 2014 की ही रणनीति को एक नए तरीके से 2017 में राज्य में आज़माएंगे.
दोनों अपनी पार्टियों को बहुमत दिलाने की जुगत में हैं लेकिन इनके तरीके एकदम अलग हैं.
जैसे मायावती का स्टाइल आज भी करीब-करीब वही है जो एक दशक पहले था.
वोटिंग के दिन के लिए अपने वोट बैंक को उनका संदेश होता है, "अब भय किसी बात का नहीं है. सुबह-सुबह उठो, नाश्ता करने से पहले ही अपने बूथ पर पहुंचो और वोट डालो."
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उधर चुनाव के लिए अमित शाह का स्टाइल है डोर-टू-डोर कैम्पैन का, जो मूलत: आरएसएस का ही स्टाइल है. 2014 के आम चुनाव में यूपी में ऐसा लगभग हर जगह नज़र आया था.
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में बूथ लेवल पर पकड़ बनाने की मुहिम 2014 के पहले शुरू की थी और इसमें संघ कार्यकर्ताओं की भूमिका प्रमुख थी.
ये वो मॉडल था जिसे मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा ने गुजरात में सफलतापूर्वक आज़माया था.
रही बात बसपा की तो जानकार कहते हैं कि पिछले चुनावों में मायावती ने अपने स्टाइल में थोड़ा फेरबदल किया था.
हिन्दुस्तान अख़बार के पूर्व सम्पादक नवीन जोशी बताते हैं कि मायावती का असल काम देखना है तो गांवों का मॉडल भी देखना होगा.
उन्होंने कहा, "पिछले चुनाव में मायावती ने भी एक ऐसी कोर टीम बनाई थी जो खास तौर पर ब्राह्मणों और सवर्णों तक पहुंचने का काम करती है. ये टीम ज़्यादातर शहरों में ही काम करती है, जबकि गावों में बसपा के काडर तक संदेश सीधा ही जाता है."
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मायावती के लोकसभा चुनाव क्षेत्र रहे आंबेडकर नगर जाकर भी यही समझ में आया कि मायावती अपने काडर को सीधा संदेश देने में यकीन रखतीं हैं और उनका कार्यकर्ता आज भी ‘बहनजी’ के ‘आदेश’ का इंतज़ार करता है.
बसपा के एक सूत्र ने बताया, "मायावती की खास बात ये है कि वो उप-चुनाव वगैरह में यकीन नहीं रखती हैं. और अगर कहीं किसी चुनाव में बसपा का उम्मीदवार नहीं होता और मायवती को किसी का समर्थन करना होता है तो रात को सिर्फ एक मेसेंजर चलता है जो एक प्रधान से दूसरे ग्राम प्रधान तक और फिर आगे भी इसी तरह से संदेश पहुँचाता है."
मायावती और बसपा को वर्षों से कवर करने वाले वीएन दास जैसे वरिष्ठ विश्लेषक मानते हैं कि यूपी में मायावती बनाम अमित शाह में शायद इस बार मायवती ज़्यादा मज़बूत साबित हों.
उन्होंने बताया, "प्रदेश में अभी भी जातीय समीकरण महत्वपूर्ण साबित होंगे और इनमें अमित शाह अब भी उतने सफल नहीं हो सके हैं. दूसरी ओर मायावती अगर वही करती रहीं जो उन्होंने पहले किया है, तो वो मज़बूत होंगी क्योंकि उनके जातीय समीकरण बने बनाए हैं."
लेकिन नवीन जोशी जैसे विश्लेषक इस बात से इनकार नहीं करते कि "बिहार में मिली करारी हार के बाद इस बात में कोई शक नहीं कि अमित शाह इन चुनावों के लिए कुछ नया सोच रहे होंगे. अब वो क्या होगा ये आगे ही देखने को मिलेगा."
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