‘द वीक’ पत्रिका ने चुना मैन ऑफ द इयर
एक व्यक्ति ने बदली गांव की सूरत. तमिलनाडु के कुटंबक्कम गांव को बनाया मॉडल गांव. गांव के लिए छोड़ी इंजीनियरिंग की नौकरी. महात्मा गांधी और डॉ जेसी कुमारप्पा से प्रभावित. आज खुशहाली का दूसरा नाम है कुटंबक्कम गांव.
व्यालोक
अगर आपने रंगासामी एलांगो का नाम नहीं सुना है, तो यह आपका कसूर नहीं. भारत के सुदूर दक्षिण में स्थित एक गांव की तसवीर और तकदीर बदलने वाले रंगास्वामी एलांगो जैसे असली नायकों को मुख्यधारा का मीडिया ‘उल्लेखनीय’ जो नहीं नहीं मानता!
रंगासामी हमारे-आपके, किसी के भी बड़े भाई की तरह लगते हैं, और वे हैं भी. उनकी कहानी न तो परीकथा है, न ही कोई फैंटेसी और यही उसका मुख्य आकर्षण भी है. वह एक सीधे-सादे दिखनेवाले गृहस्थ किसान सरीखे हैं, जो अपनी आभा से किसी को अभिभूत नहीं करते, किसी को डराते नहीं, बल्कि यह यकीन दिलाते हैं कि चाहने पर सब कुछ मुमकिन है.
‘द वीक’ पत्रिका द्वारा मैन ऑफ द इयर चुने गये एलांगो की बातें ‘स्ट्रेट फ्रॉम द हार्ट’ हैं, तीरे-नीमकश नहीं, और इसी वजह से आपका भी सपने देखने पर यकीन होता है, उन्हें पूरा करने का हौसला भी मिलता है. रंगासामी के गांव का नाम कुटंबक्कम है. चेन्नई-बेंगलुरु हाइवे से थोड़ा हट कर. यह गांव देश के बाकी गांवों से अलग दिखता है, अपनी साफ-सुथरी गलियों, चौड़ी सड़कों, ढंकी हुई नालियों, पेड़-पौधों से भरा हुआ वातावरण इस गांव को बाकी से अलग करता है.
53 वर्षीय दलित किसान रंगासामी एलांगो ने कई दशक पहले अपने गांव को खुशहाल बनाने का सपना देखा था, आज वह उस सपने को पूरा होते देख रहे हैं. इस देश के लाखों दलितों की तरह ही, उन्होंने भी समाज में भेदभाव और शोषण को बहुत करीब से देखा था.
उन्होंने देखा था कि उनके कई दोस्त स्कूल के लंच टाइम में केवल पानी पीकर रह जाते थे, वह पानी भी उनको ब्राह्मण या अन्य तथाकथित सवर्णो के घर से नहीं मिल सकता था. रंगासामी अपना लंच तो शेयर करते ही थे, वह उनके दुख भी बांटना चाहते थे. आखिरकार, उनकी नजर से देखें, तो चारों तरफ बिखरे दैन्य के बीच व्यक्तिगत सुख तो संभव ही नहीं है.
केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री लेनेवाले रंगास्वामी को पहली नौकरी ऑयल इंडिया में मिली. यह उनके सपनों से दूर जाने जैसा था, सो ‘जैसो उड़ि जहाज को पंछी, पुनि जहाज पै आवै’ की तर्ज पर ही एलांगो भी तमिलनाडु लौट आये, सीएसआइआर (काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च) मे नौकरी करने.
हालांकि, अपने गांव वह जब भी आते, उनका हृदय रोता ही रहता. वजह, जातिगत तनाव, अवैध शराब, प्राकृतिक संसाधनों की अगाध बरबादी और इससे जुड़े और तमाम रोगों का गांव में पूरे शबाब पर होना था. गांव की गलियां शाम के बाद अंधेरी और खतरनाक होती थीं, जबकि दिन में उन्हीं गलियों में सूअर लोटते रहते थे.
अपने गांव को आमूल-चूल बदलने का सपना लेकर रंगासामी आखिर आठ वर्षो की अपनी नौकरी छोड़ कर 1994 में अपने गांव लौट आये. इसके पीछे कुंड्राकुडी मठ के मुख्य पुजारी पोन्नमबाला आदिगलार की प्रेरणा भी थी. जाहिर तौर पर, शुरुआत बिल्कुल भी अच्छी नहीं थी.
रंगासामी के गांव में आकर बसने और उनके शुरुआती प्रयत्नों पर गांव के लोगों की प्रतिक्रिया कहीं से सहज और दोस्ताना तो नहीं ही थी. जातिगत झगड़े और शराबखोरी बहुत बड़े पैमाने पर मौजूद थी.
आज की तारीख में जो रंगासामी के हमसफर हैं, वही तब उनके दुश्मन हुआ करते थे. बालू, जो आज उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कर रहे हैं, वह उस जमाने में शराब माफिया के लठैत हुआ करते थे. वह अकसर रंगासामी को गाली-गलौज देने आ जाते थे या फिर अपनी बड़ी लाठी लेकर उनको मारने भी दौड़ते थे.
आज नजारा बदल गया है. शुरुआती दो वर्षो के संघर्ष के बाद 1996 में पंचायत चुनाव हुए. रंगासामी निर्दलीय लड़े और जीत भी गये. जीतने के बाद उन्होंने सबसे पहले शराब के कारोबार पर लगाम लगायी, फिर बाकी समस्याएं तो धीरे-धीरे काबू में आती ही चली गयीं. उन्होंने उन सभी परिवारों के लिए नौकरी का इंतजाम किया, जिन्होंने अवैध शराब बनाना बंद कर दिया था.
कम लागत के पर्यावरण-अनुकूल मकान बनाये गये. स्वास्थ्य-केंद्र बना, सड़कें और नालियां बनायी गयीं, स्ट्रीट लाइट का इंतजाम हुआ और वर्षाजल के संग्रहण का काम भी हुआ. सबसे बड़ा काम रंगासामी ने दलितों और गैर-दलितों को साथ लाकर किया. तमिलनाडु सरकार के समथ्वुपुरम (समानता का गांव) नामक कार्यक्रम शुरू करने से पहले ही यह विचार कुंटुबक्कम में आकार ले चुका था. हालांकि, तकनीकी तौर पर यह तमिलनाडु का 77 वां समथ्वुपुरम है.
रंगासामी दो बार लगातार निर्वाचित हुए. आज उन्होंने अपने गांव को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बना दिया है. हरेक घर में कम से कम एक ग्रेजुएट है, और हरेक परिवार की सालाना आय भी पहले की तुलना में कई गुणा बढ़ी है.
रंगासामी के बारे में एक और ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि वह गांव के विकास के बारे में सोचते हैं. अपनी पत्नी को सफलता का श्रेय देते हुए वह यह भी बताते हैं कि वह 100 फीसदी गांधीवादी नहीं हैं, पर उनसे प्रेरित जरूर हैं.
एलांगो ने गांवों के आर्थिक विकास का विचार डॉक्टर जे सी कुमारप्पा (1892-1960) से पाया, जो पहले जोसेफ चेल्लादुराई कॉर्नेलियस थे. वह कोलंबिया यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट थे. महात्मा गांधी के संपर्क में आकर उन्होंने अपना अंगरेजी उपनाम त्याग दिया, उनको गांधीवादी अर्थशास्त्र का जनक माना जाता है. रंगासामी कहते हैं, ‘मैंने गांव के टोल और अर्थव्यवस्था का अध्ययन उनसे ही सीखा है.
गांधी से अधिक, उनके विचारों ने मुङो अपना सपना पूरा करने में मदद दी है. कुमारप्पा ने सिद्धांत दिया है कि स्थायित्व की अर्थव्यवस्था में नियोजित सहयोग होता है, जबकि नश्वर होनेवाली अर्थव्यवस्था अंधाधुंध प्रतियोगिता पर आधारित होती है.’
रंगासामी की दवा बेहद सरल है-छोटी शुरुआत करें, समस्याओं को पहचानें, मूलभूत सुविधाएं मुहैया करायें. लोगों का सशक्तीकरण करें और एक समय में एक गांव को रूपांतरित करें.
इसी दवा के सहारे आज कुटुंबक्कम बदल चुका है. देश-विदेश के लिए मिसाल बन चुका है. बालू की तरह राजेंद्रन और कई युवा सामाजिक कर्म को समर्पित हो चुके हैं. 33 वर्षीय नंदकुमार शिवा ने एमसीए करने के बाद कई लुभावनी नौकरियों के प्रस्ताव ठुकरा कर रंगासामी एलांगो का साथ देना बेहतर समझा है.
इस बेहद मामूली आदमी के कदम के निशान सचमुच उसके कद से भी बड़े हो गये हैं. नील आर्मस्ट्रांग के शब्द उधार लें, तो कह सकते हैं ‘एक मानव के लिए छोटा कदम, पर समूची मानवता के लिए विशाल छलांग.’
स्नेत : द वीक
कुटंबक्कम पंचायत
अवस्थिति : तिरुवल्लूर जिला, तमिलनाडु में. चेन्नई से 40 किलोमीटर दूर.
क्षेत्रफल : 36 वर्ग किलोमीटर
आबादी : पांच हजार. 55% आबादी दलित. 4% ईसाई.
आमदनी का स्नेत : कृषि और कुटीर उद्योग. झील द्वारा 1,400 एकड़ की सिंचाई. इसके अतिरिक्त 700 एकड़ कृषि भूमि वर्षा जल सिंचित. हर परिवार की औसत मासिक आय : 40,000 रुपये.
शिक्षा : हर परिवार में कम से कम एक कॉलेज स्नातक.