(कमलेश कुमार सिंह ,नयी दिल्ली)
सुप्रीम कोर्ट ने 5 अगस्त, 2008 को टिप्पणी की थी, ‘हम इस सरकार से तंग आ चुके हैं. भारत में यदि भगवान भी आ जायें तो वह हमारे देश को नहीं बदल सकते. ऐसे लोग जनहित याचिका दायर करते हैं, जो विभिन्न मुद्दों पर सरकार के रवैये से परेशान हैं.’
यह टिप्पणी आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक लगती है. देश में निर्वाचित सरकार है. संसद है. तेज-तर्रार नौकरशाहों की बड़ी फौज है. इसके बावजूद कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के 29 न्यायाधीश देश चला रहे हैं. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने ‘प्रभात खबर’ से कहा था, शीर्ष अदालत द्वारा सरकार को यह सलाह देना कि आपका यह काम है और आप इसे बेहतर करें, जायज है.
साथ ही, उन्होंने यह भी कहा था कि शीर्ष अदालत को अपने अधिकार क्षेत्र की लक्ष्मण रेखा को समझना चाहिए. लेकिन न्याय की उम्मीद लगाये किसी व्यक्ति की याचिका को कोर्ट ठुकरा भी नहीं सकता. अब शिक्षा, स्वास्थ्य, कुपोषण, समाज कल्याण, सुरक्षा, भ्रष्टाचार आदि से संबंधित शिकायतों को लेकर लोग शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटा रहे हैं. ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट लगातार सरकार को दिशा-निर्देश जारी कर रहा है. इससे साफ है कि जो काम सरकार को करना चाहिए था, उसे लेकर अब लोग सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद लगा रहे हैं.
जनहित से जुड़े मामलों में इस वर्ष सुप्रीम कोर्ट की कुछ अहम टिप्पणियां-
शिक्षा: देश में शिक्षा अपने उद्देश्य को नहीं पा सकी है, इसमें तत्काल सुधार की जरूरत है.
स्वास्थ्य: दवाओं का क्लीनिकल परीक्षण लोगों के फायदे के लिए होना चाहिए, न कि कंपनियों के फायदे के लिए.
सुरक्षा: सुरक्षा रसूख दिखाने का जरिया बन गयी है और इसका गलत इस्तेमाल हो रहा है. ऐसे व्यक्तियों को सुरक्षा क्यों प्रदान की जा रही है, जबकि आम आदमी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है?
समाज : किन्नर समाज में अछूत बने हुए हैं. उनके लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है.
जनकल्याण : बिहार में मिड-डे-मील जैसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों ने क्या कदम उठाये हैं?