संगीत रूहानी होता है. धुनें हमें तमाम इंसानी जज़्बातों का एहसास कराती हैं. संगीत के शौक़ीन तो इसकी तुलना ऊपरवाले से करते हैं. जो बेदिल इंसान में भी जज़्बात जगा दे…
मगर, क्या आपने कभी ख़ामोश संगीत या "साइलेंट म्यूज़िक” के बारे में सुना है? आप यक़ीनन ख़ामोश संगीत के ख़्याल को हंसी में उड़ा चुके होंगे. मगर, ये भी एक चलन है, जहां लोग ख़ामोशी की धुनें सुनना पसंद करते हैं.
वैसे ये चलन नया बिल्कुल नहीं, क़रीब 75 साल पुराना है. बात 1941 की है. जब अमरीकी संगीतकार, रेमंड स्कॉट ने न्यूयॉर्क के मशहूर ब्राडवे थिएटर में 13 साज़ों वाले ऑरकेस्ट्रा के साथ ख़ामोश संगीत की महफ़िल सजाई थी. इसमें सिर्फ़ ड्रम की हल्की आवाज़ और बास साउंड की हल्की सी थाप के सिवा सिर्फ़ सन्नाटा था.
रेमंड स्कॉट की इस कोशिश की लोगों ने ख़ूब हंसी उड़ाई थी. लोग महफ़िल में बैठे बैठे ही हंस रहे थे, उन्हें लग रहा था कि शायद, संगीतकार रेमंड, उनके साथ कोई मज़ाक़ कर रहे हैं. टाइम मैग्ज़ीन ने लिखा कि ये ख़ामोश संगीत, बहरे लोगों के कानों से टकरा रहा था, जिन्हें शायद इसकी अहमियत का अंदाज़ा नहीं था.
ख़ैर, रेमंड स्कॉट का वो शो तो शायद, वक़्त से बहुत पहले का था. मगर, आज "साइलेंट म्यूज़िक” का ज़माना आ चुका है. बल्कि काफ़ी पहले ही आ चुका था.
1952 में मशहूर अमरीकी संगीतकार जॉन केज ने भी अपनी मशहूर धुन 4’33” पेश की थी. जॉन का कहना था कि किसी भी साज़िंदे को कोई धुन ज़बरदस्ती नहीं बनानी चाहिए. ये इतना इंक़िलाबी ख़याल था कि ख़ुद जॉन केज की मां ने इसे अपने बेटे की सनक करार दिया था.
मगर, वो ग़लत साबित हुईं. ख़ामोश संगीत या "साइलेंट म्यूज़िक” का विचार, कई मशहूर लोगों को आ रहा था. जॉन लेनन से लेकर योको ओनो, कोर्न, सिगुर रॉस तक सबने "साइलेंट म्यूज़िक” की धुन बनाने की कोशिश की. यहां तक कि हिप हॉप ग्रुप स्लम विलेज ने भी कुछ "साइलेंट म्यूज़िक” की धुनें तैयार कीं.
संगीत के बारे में लिखने-पढ़ने, कहने-सुनने वालों को ये ख़ामोश संगीत का ख़याल बहुत चुनौतीभरा लगता है. आख़िर, जिस एहसास की बुनियाद ही आवाज़ हो, उसे ख़ामोशी से कैसे जगाया जा सकता है?
वैसे दुनिया भर में "साइलेंट म्यूज़िक” की जो भी धुनें तैयार हुईं, जो भी कोशिशें हुईं, उन्हें शोहरत हासिल करने की तिकड़म ही माना गया. जैसे ”बेस्ट ऑफ मार्सेल मार्सियो”. इस रिकॉर्डिंग में सिर्फ़ सुनने वालों की तारीफ़ की ही आवाज़ है. 19-19 मिनट की दो रिकॉर्ड में है तो ये श्रोताओं की तारीफ़ की आवाज़ और ख़ामोशी. लोगों ने इसे सिर्फ़ मज़ाक़ समझा.
इसी तरह, ”द विट एंड विज़डम ऑफ रोनाल्ड रीगन” के रिकॉर्ड भी बाज़ार में आए तो उनमें संगीत की कोई धुन नहीं थी, महज़ कुछ चुनिंदा आवाज़ें और साथ में था तो सिर्फ़ सन्नाटा. इसे लोगों ने हाथों-हाथ लिया. स्टिफ़ रिकॉर्ड्स की इस पेशकश की तीस हज़ार कॉपी बिकीं.
बहुत से सच, ऐसे ही हंसी में कहे जाते हैं. जैसे साल 2014 में बैंड वुल्फपेक ने "साइलेंट म्यूज़िक” के दस ट्रैक बाज़ार में उतारे. बैंड ने लोगों से कहा कि वो इन्हें सोते वक़्त सुनें. इस रिकॉर्ड का मक़सद था कि इसकी कमाई से बैंड अपने टूर के लिए पैसे जुटाना चाहता था. बैंड अपनी पैसे की दिक़्क़त से जनता को रूबरू कराना चाहता था. इसमें वो कामबाय भी हुए.
जॉन केज की ख़ामोश धुन 4’33” भी, टेलीफ़ोन लाइन से लेकर, रेलवे स्टेशन और लिफ्ट लॉबी में बजने वाले वाहियात संगीत के विरोध के तौर पर तैयार की गई थी. अमरीका में चालीस और पचास के दशक में लोग सार्वजनिक ठिकानों पर बजने वाली ऐसे संगीत से इतने आजिज़ आ चुके थे कि उन्होंने इस पर पाबंदी लगाने की मांग की थी. मामला अमरीकी सुप्रीम कोर्ट तक गया था. इसी के जवाब में जॉन केज ने ख़ामोश संगीत की ये धुन तैयार की थी.
जॉन केज का मानना था कि सन्नाटे का मतलब बेआवाज़ होना या ख़ामोशी नहीं. ये अपने अंदर की आवाज़ सुनने की कोशिश है. रगों में दौड़ते लहू की आवाज़, दिमाग़ में मचे शोर की आवाज़.
जॉन केज की धुन 4’33”, किसी साज़ से निकली आवाज़ नहीं, बल्कि माहौल में ख़ुद-ब-ख़ुद गूंजती आवाज़ों का कलेक्शन था. ये बताने की कोशिश थी कि हर आवाज़ अपने आप में एक धुन है.
तब से इस धुन का कई बार इस्तेमाल हो चुका है. आज दुनिया के तमाम हिस्सों में इस धुन की मदद से आज के दौर के तनाव से निपटने की कोशिश हो रही है. शोर-गुल के बजाय ख़ामोशी से दिल बहलाने की कोशिश हो रही है.
जैसे हम किसी के गुज़र जाने पर दो मिनट का मौन रखते हैं. बहुत से संगीतकारों ने भी दर्द को ऐसे ही "साइलेंट म्यूज़िक” की धुनों में पिरोया है. जैसे जॉन लेनन और योको ओनो की ”टू मिनट्स साइलेंस” या ”अनफिनिश्ड म्यूज़िक नंबर 2:लाइफ विद द लायंस”. लोग कहते हैं कि ये 1968 में योको योनो के गर्भपात से हुए दर्द की याद में था. इसी तरह कोर्न ने अपने अलबम ”फॉलो द लीडर” में 12 सेकंड का ख़ामोश ट्रैक जोड़ा था. ये मौत के आगोश में पड़े एक फैन को समर्पित था.
कोई भी ख़ामोश धुन, बाक़ी संगीतमय आवाज़ों की तरफ़ ध्यान खींचने का काम भी करती है. बढ़िया धुन के बीच में अगर ख़ामोशी होगी तो, सुनने वाले का ध्यान, उस ख़ूबसूरत धुन की तरफ़ जाएगा. वो उसको सुनने के लिए बेताब होगा.
इसी तरह ये ख़ामोश संगीत या "साइलेंट म्यूज़िक” हमें संगीतकार के किसी दर्द का एहसास कराएगा. किसी ख़ास राजनैतिक मसले पर हमारे जज़्बातो को जगाएगा.
इस सूरत में क्या "साइलेंट म्यूज़िक” को संगीत माना जाए?
इंग्लैंड की मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी के जूलियन डॉड ऐसा नहीं मानते. वो कहते हैं कि संगीत की बुनियाद ही आवाज़ है. बिना आवाज़ की कोई भी चीज़, संगीत नहीं कही जा सकती. किसी भी शोर को धुन मानने के लिए ज़रूरी है कि उसमें लय, ताल, सुर हों.
जूलियन का मानना है कि ख़ामोश संगीत या "साइलेंट म्यूज़िक” को संगीत के बजाय एक आर्ट कहना बेहतर होगा. हालांकि वो ये भी कहते हैं कि नाम में क्या रखा है. ये संगीत है या नहीं, ये बहस ही बेमानी है. ख़ामोश संगीत की वजह से हमें पारंपरिक संगीत की धुनों की अहमियत का एहसास होता है.
ख़ामोश संगीत को लेकर छिड़ी बहस से एक बात साफ़ होती है. कई बार आपको अपनी बात कहने के लिए, शोर मचाना ज़रूरी नहीं. आपकी ख़ामोशी भी आपके एहसास बयां कर जाती है, बड़े ताक़तवर तरीक़े से.
(अंग्रेज़ी में मूल लेख यहां पढ़ें, जो बीबीसी कल्चर पर उपलब्ध है.)
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