यूँ तो जेएनयू में आए दिन मार्च होते रहते हैं, लेकिन जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की रिहाई का मार्च कई मायनों में अलग था.
इस मार्च पर कहीं न कहीं हाईकोर्ट के आदेश की छाप भी थी और मीडिया ट्रायल का ख़ौफ़ भी. साथ ही ऐसे लोगों का जुड़ाव भी जो आमतौर पर ऐसे मार्चों में शायद ही कभी शिरकत करते हों.
गंगा ढाबा से प्रशासनिक भवन तक के इस मार्च की शुरुआत किसी भी आम जेएनयू मार्च की तरह क्रांतिकारी गीतों से हुई लेकिन छात्रों के एक वर्ग की कोशिश लगातार ये थी कि मीडिया के कैमरे उन पर फोकस रखें.
चारों तरफ अंबेडकर के पोस्टर हवा में लहरा रहे थे और लाल सलाम के साथ एक सुर में जय भीम के नारे भी लग रहे थे.
मार्च शुरू होने से पहले माइक पर ताकीद हुई कि कोई भी ऐसा नारा न लगे, जिससे किसी को भी कोई मुश्किल हो बाद में. ज़ाहिर है कोर्ट के आदेश का कुछ तो असर हुआ ही था.
मार्च शुरु हुआ और पोस्टर बैनर वाले छात्र मीडिया की ज़द में आने की अपनी तुच्छ कोशिशों में जुटे. हालांकि बड़ी संख्या छात्रों की ऐसी भी थी, जिन्हें इन कैमरों से कोई मतलब नहीं था. वह वाकई कन्हैया के लौटने से खुश थे और नारे लगा रहे थे.
लेकिन मार्च के सबसे आगे एक लड़का तिरंगा लहराता चल रहा था. मैंने जेएनयू में कई मार्च देखे हैं और कैंपस के भीतर शायद ही कभी इस तरह से तिरंगा लहराकर मार्च किया गया होगा.
ये तिरंगा एड ब्लॉक तक और पूरे कार्यक्रम के दौरान कैमरों की ज़द में लहराता हुआ दिखाई देता रहा.
एड ब्लॉक पर कन्हैया ने अपने भाषण की शुरुआत की चिरपरिचित नारे से…आवाज़…दो…हम एक हैं…
आमतौर पर दाढ़ी में कन्हैया को देखने वाले लोग एकबारगी क्लीनशेव्ड कन्हैया को पहचान भी नहीं पाए. ख़ैर अपने भाषण में कन्हैया ने प्रधानमंत्री से लेकर मीडिया और स्मृति ईरानी से लेकर एबीवीपी पर धारदार टिप्पणियां की.
जेल में पुलिसकर्मियों से बातचीत के अपने अनुभव बताए और आखिर में यह भी कहा कि जेएनयू को और उनके छात्रों को आत्ममंथन की भी ज़रूरत है.
कन्हैया का कहना था कि छात्र जिन मुद्दों पर बात करते हैं, वो उस तरह आम लोगों में नहीं पहुँच पाते और ज़रूरी है कि वो आम लोगों की भाषा में बात करें.
इस बात के लिए जेएनयू की पहले भी आलोचना होती रही है और कन्हैया ने इसे खुलकर माना कि आम लोगों तक पहुंचने में जार्गन्स आड़े आते हैं.
भाषण सुनने और मार्च के दौरान जेएनयू के कई शिक्षक भी दिखे. उन्होंने पूरा भाषण सुना और तालियां बजाईं.
कई पुराने छात्र और कई अन्य विश्वविद्यालयों से शिक्षक भी कन्हैया को सुनने पहुँचे थे. और कन्हैया ने शायद ही किसी को निराश किया.
हाईकोर्ट के आदेश पर कोई टिप्पणी न करते हुए भी कन्हैया ने सरकार, दिल्ली पुलिस और मीडिया के एक धड़े को आड़े हाथों लिया.
ज़ाहिर था कि स्पीच की वाहवाही हुई है. कुछ छात्रों का यहां तक कहना था कि ये जेएनयू के लिए यह एक ऐतिहासिक दिन था.
यह बात शायद सही भी हो क्योंकि कन्हैया का भाषण एक छात्र नेता का भाषण नहीं था. वो एक परिपक्व विपक्ष का भाषण था, जो तैयार था आगे की लड़ाई लड़ने के लिए केंद्र की सरकार के साथ.
कैंपस और छात्रों के तेवरों को देखें, तो वाकई ये लड़ाई आगे चलेगी. केंद्र सरकार भले ही संसद में विपक्ष का मुंह बंद कर देती हो लेकिन जेएनयू के इस मामले ने राजधानी दिल्ली में सरकार के ख़िलाफ़ एक बड़ी आलोचना का केंद्र तो खोल ही दिया है.
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