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‘पठानकोट’ मोदी की पाक नीति का इम्तहान है

सुशांत सरीन रक्षा विशेषज्ञ, बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए नरेन्द्र मोदी और नवाज़ शरीफ़, फ़ाईल फ़ोटो नरेंद्र मोदी अगर कूटनीति के मामले में पहले के प्रधानमंत्रियों से अलग हैं तो वह केवल एक मामले में, और वह है उनकी अनिश्चितता. यह अनिश्चितता जितनी पाकिस्तान के साथ संबंधों में दिखती है, उतनी और किसी दूसरे […]

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नरेन्द्र मोदी और नवाज़ शरीफ़, फ़ाईल फ़ोटो

नरेंद्र मोदी अगर कूटनीति के मामले में पहले के प्रधानमंत्रियों से अलग हैं तो वह केवल एक मामले में, और वह है उनकी अनिश्चितता.

यह अनिश्चितता जितनी पाकिस्तान के साथ संबंधों में दिखती है, उतनी और किसी दूसरे मामले में नहीं.

पाकिस्तान के मसले पर वो जैसी दिलेरी दिखाते आए हैं वैसी और किसी मसले पर नहीं.

मोदी के अचानक लाहौर पहुंचकर नवाज़ शरीफ़ को जन्मदिन की बधाई देने के एक हफ़्ते के भीतर पठानकोट पर हमला हो गया.

ज़ाहिर है, उसके बाद मोदी भी सोच विचार में पड़ गए होंगे कि पाकिस्तान जैसे देश से कैसे निपटा जाए. ऐसा देश जिसके ख़िलाफ़ न तो मनमुटाव न ही प्रेम, न आक्रमकता और न ही दोस्ती काम करती हुई दिखती है.

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मोदी के पहले के सभी प्रधानमंत्रियों को भी इस समस्या का सामना करना पड़ा था. उनका कार्यकाल भारत-पाकिस्तान समस्या के किसी समाधान को ढूंढे बग़ैर ख़त्म हो गया. मोदी के सामने भी कुछ इसी तरह की स्थिति है.

मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही लगातार यह बता रहे हैं कि वो लहरों की उलटी दिशा में तैरने में घबराते नहीं हैं. इस बात से हर कोई यह अनुमान लगाने में लगा है कि मोदी आगे क्या करेंगे?

हर कोई यह अनुमान लगा रहा था कि मोदी पश्चिमी देशों पर नाराज़गी दिखा सकते हैं, जिन्होंने उनके साथ एक ‘अछूत की तरह’ व्यवहार किया था. लेकिन मोदी ने इसके उलट पश्चिमी देशों से दोस्ती बनाई.

सभी ने सोचा था कि मोदी नेपाल के मसले पर नरम रूख़ अपनाएंगे और पाकिस्तान को लेकर उनकी नीति बहुत कठोर होगी.

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2014 लोकसभा चुनावों के दौरान अपने समर्थकों के बीच नरेन्द्र मोदी

उन्होंने पाकिस्तान पहुंचने के लिए तो बिल्कुल ही अनोखा तरीका अपनाया.

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में कभी नरमी तो कभी तनाव रहा है. बीते अठारह महीनों में आपसी बातचीत और ‘संयुक्त राष्ट्र’ के स्तर पर भी शब्दों के तीर खूब चले हैं.

इससे ज़मीनी स्तर पर, ख़ासकर जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर तनाव पैदा हुआ. इससे अनिश्चित नीति के अलावा अस्पष्ट रवैये और सामंजस्य की कमी को लेकर मोदी की काफ़ी आलोचना भी हुई है.

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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल, फ़ाईल फ़ोटो

मोदी क्या करना चाहते हैं, यह अभी भी साफ़ नहीं है. अगर एक बार नई पहल को रोक दिया जाए तो पहले के प्रधानमंत्रियों की तरह मोदी को भी ज़्यादा कुछ हासिल नहीं होगा.

स्थितियों पर काबू पाना इस समस्या का एक हिस्सा है. लेकिन मूल समस्या से जुड़े सवाल और इसके समाधान का तरीका ज़्यादा महत्वपूर्ण है, जिससे दोनों देशों के संबंध बिगड़े हुए हैं.

यह इसलिए भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि लोगों के पास इसका कोई संकेत नहीं है कि इस समस्या से निपटने का रास्ता क्या होगा.

मसलन, किस तरह के समझौते का फ़ॉर्मूला तैयार किया गया है या इससे क्या खोना पड़ेगा और क्या हासिल होगा?

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और अगर ऐसा कोई फ़ॉर्मूला है तो क्या नरेंद्र मोदी और नवाज़ शरीफ़ इसे अपनी जनता, विपक्षी पार्टियों और सबसे महत्वपूर्ण अपनी व्यवस्था को उसे मानने के लिए राज़ी करा पाएंगे?

दूसरे शब्दों में, नरेंद्र मोदी शायद ही यह सोच रहे होंगे कि लाहौर यात्रा से पाकिस्तान के हाथ बंध जाएंगे और इससे उनके लिए माहौल को बिगाड़ पाना मुश्क़िल हो जाएगा.

उधर, पाकिस्तान के लोग भी शायद इस फ़ैसले पर पहुंचे होंगे कि लाहौर यात्रा से मोदी के ही हाथ बंध गए. अब यह मोदी को ही मुश्क़िलों और दिक्कतों से भर देगा.

इससे पहले भी करगिल में ऐसा ही हुआ था. ऐसा लगता है कि हद से आगे निकल जाने और पाकिस्तान के साथ मित्रता बनाने की उत्सुकता में मोदी ने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया.

नरेंद्र मोदी को यह ज़रूर पता होना चाहिए कि उनका पाकिस्तान जाना एक बड़े जोखिम वाला दांव था.

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1999 का करगिल युद्ध, फ़ाईल फ़ोटो

अगर मोदी अपने मक़सद में कामयाब हो जाते तो पूरी दुनिया में उनकी वाहवाही होती. लेकिन इसकी संभावना ज़्यादा थी कि वो नाकाम होंगे, और ऐसी स्थिति में उनकी आलोचना होगी.

इसके लिए उन्हें न केवल अपने विरोधियों, बल्कि बहुत सारे समर्थको के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा. पाकिस्तान को लेकर उनके भाषण पूरी तरह से उनके कूटनीतिक पहल के उलट थे.

दूसरी तरफ, पठानकोट की घटना न केवल भारत के साथ बातचीत की इच्छा के लिए पाकिस्तान की ईमानदारी और गंभीरता का ‘लिटमस टेस्ट’ है, बल्कि यह मोदी की पाकिस्तान नीति की भी परीक्षा है. यहां ‘कुछ नहीं’ करने का कोई विकल्प नहीं है.

मोदी पठानकोट की घटना को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच असरदार तरीक़े से उठा सकते हैं. इससे वे आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान पर दबाव बना सकते हैं.

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पठानकोट में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

निश्चित तौर पर ऐसे में भारत-पाकिस्तान बातचीत एक बार फिर से अधर में अटक जाएगी.

लेकिन यह भी मुमकिन है कि नरेंद्र मोदी अपने चौंकाने वाले रवैयों से एक बार फिर ऐसा कुछ करें जिसकी किसी ने उम्मीद भी नहीं की हो.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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