झारखंड में नशाखोरी व शराब पीना गंभीर सामाजिक समस्या है. शराब पीने वालों के प्रतिशत के हिसाब से झारखंड पूरे देश में दूसरे स्थान पर है. शराब पीना व नशा करना महिला हिंसा, सड़क दुर्घटना में असमय मौत व बच्चों के असमय स्कूल छोड़ने के बड़े कारण हैं. हालांकि शराब व नशे से जूझने के लिए सरकार से ज्यादा गंभीर प्रयास झारखंड के गांवों में ही हो रहे हैं. गांव की महिलाएं अब समूह में शराब का मुखर विरोध कर रही हैं. पंचायती राज भी इसमें मददगार साबित हो रहा है. राहुल सिंह की रिपोर्ट
रांची के मांडर प्रखंड के ब्रांबे गांव में बड़ी संख्या में विधवा महिलाएं हैं. लगभग 100 विधवा महिलाओं वाले इस गांव की 95 फीसदी महिला का सुहाग शराबखोरी के कारण उजड़ा. अब ये महिलाएं खुद कमाती हैं और अपना परिवार चलाती हैं. ऐसे परिवारों के बच्चों की जिंदगी-शिक्षा भी प्रभावित हो चुकी है. इस गांव की जितनी तिग्गा, सहोदरी तिग्गा, पुष्पा तिग्गा, शांति तिग्गा, सुशीला तिग्गा, चांदमनी तिग्गा सहित दर्जनों महिलाएं हैं, जिनके पति अब दुनिया में शराब के कारण नहीं हैं. हालांकि उसके बावजूद लोग संभलने को तैयार नहीं है. गांव में अब भी बड़ी संख्या में लोग शराब पीते हैं.
दिन में इस गांव में पहुंचने पर ज्यादातर घरों के दरवाजे पर ताले लटके नजर आते हैं. काम करने महिलाओं के बाहर चले जाने के कारण घर में कोई रहता नहीं. ब्रांबे की मुखिया पुतुल तिग्गा बताती हैं : हमारे गांव में लगभग 500 परिवार हैं. इसमें लगभग 100 विधवा महिलाएं हैं. इनमें से शायद ही किसी के पति की मौत बीमारी या दूसरी वजह से नहीं हुई हो, लगभग सभी के पतियों की मौत शराब पीने से ही हुई है. पुतुल बताती हैं कि ग्रामसभा में हर बार शराब व नशाखोरी की समस्या पर चर्चा होती है और लोगों को इससे दूर रहने के लिए कहा जाता है, लेकिन उसके बाद भी गांव के लोग नहीं मानते. मुखिया पुतुल तिग्गा इससे बेहद आहत हैं. वे कहती हैं : हमलोग हड़िया दारू बनाने के लिए भी लोगों को मना करते हैं. लेकिन जब ज्यादा जोर देते हैं, तो हड़िया दारू बनाने वाली महिलाएं नाराज हो जाती हैं और कहती हैं हम खाना मांगने प्लेट लेकर आपके घर जायेंगे. यानी उन्हें दूसरा रोजगार चाहिए. हालांकि इसके लिए स्वयं सहायता समूह के जरिये छोटी पहल हो रही है.
मुखिया के अनुसार, गांव में गरीबी काफी ज्यादा है. लोगों के पास रोजगार के सीमित साधन हैं. उसके बावजूद मात्र 30 परिवारों का नाम बीपीएल सूची में होने के कारण उन्हें सामाजिक योजनाओं का लाभ दिलवाना भी आसान नहीं होता. बीआइटी मेसरा में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे मुखिया के बेटे सुभाष भी गांव की इस स्थिति पर अफसोस जताते हैं. वे कहते हैं कि बड़ों की बात छोड़िए 12-15 साल के लड़के भी यहां शराब व हड़िया दारू पीते नजर आयेंगे. इसी गांव की निवासी फिरोज तिग्गा भी गांव के लोगों की नशाखोरी की आदत पर अफसोस जताती हैं. उनकी गोतनी के पति की भी मौत दारू पीने से हुई थी.
छत्तीसगढ़ के बाद झारखंड में शराब पीने की सर्वाधिक लत
भारत सरकार के 2010-11 के हेल्थ सर्वे के अनुसार, छत्तीसगढ़ के बाद झारखंड व असम में नशाखोरी करने वालों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है. छत्तीसगढ़ में नशाखोरों की संभाव्यता दर 31.6 प्रतिशत है, जबकि झारखंड में यह प्रतिशत 24.6 प्रतिशत है. असम में यह प्रतिशत 23.8 के आसपास है. वहीं, सिर्फ महिलाओं में नशाखोरी की लत की बात करें, तो असम इसमें सबसे आगे है और दूसरे पायदान पर झारखंड ही खड़ा है. असम में जहां महिलाओं में नशाखोरी की संभाव्यता दर 10 प्रतिशत है, वहीं झारखंड में यह प्रतिशत 8.2 व छत्तीसगढ़ में 7.4 है. पश्चिमी सिंहभूम जिला महिलाओं में शराब पीने की लत के मामले में देश के सभी जिलों में पहले पायदान पर है. रिपोर्ट के अनुसार, यहां 33.7 प्रतिशत महिलाएं शराबखोरी की लत की शिकार हैं. असम का डिब्रूगढ़ जिला पुरुषों की शराब पीने की लत के मामले में 48.8 प्रतिशत के साथ पहले स्थान पर है. राजस्थान के लोगों में शराब पीने की लत सबसे कम (3.4}) है. शराब पीने की आदत 60 अलग-अलग प्रकार की बीमारियों का कारण बनती है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रलय के अनुसार, 1990 तक औसत भारतीय जहां 28 साल की उम्र में पहली बार शराब पीता था, वहीं अब 19 साल की उम्र में औसत भारतीय पहली बार शराब पी रहा है. आकलन है कि जल्द ही यह औसत उम्र घट कर 15 वर्ष हो जायेगी.
झारखंड पुलिस की वेबसाइट के अनुसार, राज्य में सड़क दुर्घटनाओं का दूसरा सबसे बड़ा कारण नशे में गाड़ी चलाना है. जबकि तेज गति से गाड़ी चलाना सड़क दुर्घटना का पहला प्रमुख कारण है. अध्ययन के अनुसार, भारत में 25 सड़क दुर्घटनाएं शराब के कारण होती हैं. ज्यादातर मामले सिर में चोट लगने के होते हैं.
क्या है मूल वजह
हर तबके के लोगों में शराब पीने की लत होती है. यह किसी जाति, धर्म, आयवर्ग या क्षेत्र से जुड़ी समस्या नहीं है. सरना धर्म गुरु व शराब के खिलाफ अभियान चलाने वाले बंधन तिग्गा कहते हैं : आदिवासी समाज में शराब पीने की परंपरा नहीं रही है. केवल पूजा-पाठ (धार्मिक अनुष्ठान) में तपवन के रूप में इसका प्रयोग किया जाता था.
वे कहते हैं कि आदिवासी समाज को शराब पीने की लत दूसरों से लगी. खासकर उस वर्ग से जो परंपरागत रूप से शराब बनाने का कारोबार करता रहा है. आज परंपरागत रूप से इस पेशे को करने वाले लोग दूसरे रोजगार में चले गये. बंधन तिग्गा बताते हैं कि गांव में पाहन, महतो, मुंडा, पनभरा, कोटवार जैसे धार्मिक नेताओं का प्रभाव व नियंत्रण कम हुआ है. इसके कारण युवाओं का सही मार्गदर्शन खत्म हो गया. वे कहते हैं धरम कुड़िया, जोख एड़पा(युवा गृह), पोललो एड़पा (युवती गृह) की परंपरा धीरे-धीरे आदिवासी समाज से लुप्त हो रही है. इससे वे धर्म, संस्कृति व अपनी गौरवशाली परंपरा व सभ्यता की शिक्षा-दीक्षा नहीं पा पा रहे हैं. इससे युवा वर्ग प्रभावित हुआ है. विशेषज्ञों के अनुसार, लोग पहली बार शराब संगी-साथी के साथ व उनके आग्रह पर हल्के माहौल में पीते हैं और धीरे-धीरे यह लत में तब्दील हो जाती है.