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सोशल मीडिया पर नफरत का सिलसिला
हमारे देश के पब्लिक स्फेयर में सोशल मीडिया एक महत्वपूर्ण उपस्थिति बना चुका है. इंटरनेट और मोबाइल सेवाओं के उपभोक्ताओं की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है. सोशल मीडिया ने जहां लोगों, समुदायों और मुद्दों के बीच तालमेल और सहभागिता का अवसर पैदा किया है, वहीं इसके जरिये सामाजिक सदभाव बिगाड़ने, हिंसात्मक गतिविधियों […]
हमारे देश के पब्लिक स्फेयर में सोशल मीडिया एक महत्वपूर्ण उपस्थिति बना चुका है. इंटरनेट और मोबाइल सेवाओं के उपभोक्ताओं की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है.
सोशल मीडिया ने जहां लोगों, समुदायों और मुद्दों के बीच तालमेल और सहभागिता का अवसर पैदा किया है, वहीं इसके जरिये सामाजिक सदभाव बिगाड़ने, हिंसात्मक गतिविधियों को उकसाने, अभद्र आचरण करने तथा क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति की कोशिशें भी खूब हो रही हैं. अब तो यह भी सोचा जाने लगा है कि इससे फायदे कम, नुकसान अधिक हैं. बीतते 2015 में सोशल मीडिया के विभिन्न पहलुओं पर एक नजर वर्षांत विशेष में…
बालेंदु शर्मा दाधीच
साइबर विशेषज्ञ
इंटरनेट और दूरसंचार माध्यमों के जरिये एक-दूसरे से अदृश्य तरीके से जुड़ी लाखों-करोड़ों लोगों की भीड़ की दिशा सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी. जहां एक ओर वह मिस्र, ट्यूनीशिया और लीबिया जैसे देशों में सत्ता-परिवर्तन में परिणीत प्रत्यक्ष आंदोलनों का माध्यम बन सकती है, वहीं दूसरी ओर वह भारत जैसे देशों में अन्ना हजारे और इंडिया अगेंस्ट करप्शन जैसी मुहिमों को उभार कर अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता में बदलाव सुनिश्चित कर सकती है. दुखद तथ्य यह है कि यही अदृश्य, किंतु कनेक्टेड भीड़ यदि किसी निहित स्वार्थ, गलतफहमी या पूर्वाग्रह से प्रेरित हो, तो समाज को बांटने में भी देर नहीं लगती. ऐसी स्थिति में वह अराजकता का माध्यम बन जाती है.
हमने हाल ही में उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके के बिसहाड़ा गांव में सोशल मीडिया को अराजकता का जरिया बनते हुए देखा है. किसी ने अफवाह फैला दी कि मोहम्मद अखलाक नामक 50 वर्षीय व्यक्ति के घर में गाय का मांस देखा गया है. व्हाट्सएप्प नामक सोशल मैसेजिंग टूल पर फैली यह अफवाह चंद मिनटों में सैंकड़ों लोगों को धर्मोन्माद से भर देती है और लोग अपने दिमाग का इस्तेमाल किये बिना मोहम्मद अखलाक के घर की तरफ बढ़ चलते हैं. सोशल मीडिया एक बेकसूर की मौत का कारण बन जाता है. वह अराजकता की पराकाष्ठा को जन्म दे देता है.
दो साल पहले देश के कई हिस्सों में पूर्वोत्तर के निवासियों के विरुद्ध हिंसा भड़काने और पिछले साल मुजफ्फरनगर के दंगों को हवा देने में जिस तरह असामाजिक तत्वों ने सोशल मीडिया का खुलेआम दुरुपयोग किया, वे भी इस बात का पर्याप्त प्रमाण पेश कर चुके हैं कि मुजफ्फरनगर के दंगे इसलिए भड़के थे, क्योंकि वहां पाकिस्तान में भीड़ द्वारा कुछ लोगों को मार डाले जाने के वीडियो को सोशल मीडिया के जरिये वितरित करते हुए उसे स्थानीय घटना के रूप में पेश किया गया.
सोशल मीडिया का इस्तेमाल दूसरों के खिलाफ दुष्प्रचार और नफरत फैलाने के लिए खूब होने लगा है. अभिनेत्री श्रुति सेठ के खिलाफ इसलिए इंटरनेट पर नफरत का अभियान चलाया गया, क्योंकि उन्होंने ‘सेल्फी विद डॉटर’ नामक मुहिम को लेकर पैदा हो रही हाइप पर सवाल उठाया. श्रुति का सवाल था कि बच्चियों के साथ फोटो खिंचवा कर इंटरनेट पर पोस्ट करने से जमीनी सच्चाइयां नहीं बदल जातीं, लेकिन इसके जवाब में श्रुति को क्या कुछ नहीं कहा गया. हजारों ट्वीट औरफेसबुक टिप्पणियों में श्रुति सेठ के खिलाफ हर दर्जे के इल्जाम लगाये गये और उनके चरित्र पर कीचड़ तक उछाला गया.
आमिर खान का उदाहरण देखिये. उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर चली मुहिम विश्वव्यापी हो गयी और न जाने कितनों ने आमिर को देश छोड़ कर पाकिस्तान या सीरिया चले जाने के लिए कहा, मगर क्यों? क्या अपनी बात कहने का हक आमिर या किसी अन्य भारतीय नागरिक को नहीं है?
ट्विटर, फेसबुक और तमाम दूसरे माध्यमों पर घृणा का अभियान चलाते लोगों ने इस बात पर गौर करना मुनासिब नहीं समझा कि आमिर ने अपने बयान में यह कहा था कि जब उनकी पत्नी ने अपने असुरक्षा बोध के कारण देश छोड़ कर चले जाने की बात कही थी, तो आमिर भौंचक्के रह गये थे.
क्या भौंचक्का रहने का अर्थ यह नहीं है कि आमिर पत्नी की बात से सहमत नहीं थे. लेकिन, इसे पेश किस तरह किया गया? इससे ठीक पहले साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लौटाये जाने के मुद्दे पर सोशल मीडिया पर जो मुहिम चली उसका जवाब नहीं. हर किसी ने खुद ही यह अधिकार हासिल कर लिया कि वह चुन-चुन कर साहित्यकारों, कलाकारों, फिल्मकारों आदि को गाली दे. पत्रकारों को देश विरोधी, हिंदू विरोधी, पाकिस्तान समर्थक, गद्दार और दलाल कहना आम बात है.
समझ नहीं आता कि किसी भी व्यक्ति के बारे में बिना कोई मुकदमा चलाये, बिना तथ्यों की जांच-पड़ताल किए और बिना उसका पक्ष जाने हम सोशल मीडिया पर कैसे किसी को अपराधी करार दे सकते हैं. इस बात की परवाह कोई नहीं करता कि जब बड़ी संख्या में लोग निराधार बात को दोहराते हैं, तो उसे सच मान लिया जाता है. किंतु सोशल मीडिया के हमारे योद्धा दूसरों को होनेवाले नुकसान के बारे में सोच कर अपना वक्त क्यों बर्बाद करें?
सोशल मीडिया के नफरतबाज किसी को नहीं छोड़ते. फिर भले ही वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा उपाध्यक्ष राहुल गांधी हों, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके साथी लालू यादव हों, या फिर शाहरुख खान-सलमान खान-आमिर खान जैसे कलाकार हों. सदियां बीत जाने के बाद टीपू सुल्तान फिर विवादों में खींच लिये जाते हैं और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलने आयी जम्मू कश्मीर की स्कूली लड़कियों के खिलाफ मुहिम चला दी जाती है.
ऐसा लगता है सोशल मीडिया पर सक्रिय होने से हमें हर किसी को गद्दार, देशभक्त, बुद्धिमान या बेवकूफ करार देने का कोई जन्मसिद्ध किस्म का अधिकार मिल गया है. बरखा दत्त, कविता कृष्णन, श्रुति सेठ, राना अय्यूब, अदिति मित्तल, मीना कंडास्वामी, मधु किश्वर आदि भी खूब निशाना बनी हैं और बन रही हैं.
सोशल मीडिया का विकास इस उद्देश्य के लिए तो नहीं हुआ था! उसे तो हमारी साझा शक्ति का उद्घोष करनेवाला औजार बनना था. वह तो हमारे बीच दूरियां खत्म करने का माध्यम बनना था.
वह तो हमें विश्वग्राम का नागरिक बनाने के लिए आया था. ऐसा विश्वग्राम, जिसमें हर व्यक्ति के समान अधिकार हैं. जहां हर व्यक्ति का समान दर्जा है. जहां हर व्यक्ति के लिए सम्मान है. लेकिन हमारे सामाजिक जीवन की बुराइयों ने सोशल मीडिया को विध्वंस का हथियार बना लिया.
नदी का पानी रोककर बांध बनाया जाता है, ताकि उससे आसपास के खेतों में सिंचाई हो सके. लेकिन अगर कोई बाढ़ के समय आधी रात को उसी बांध की दीवारें ध्वस्त कर दे, तो धरती पर सोना उपजा कर जीवनदान देनेवाला वही बांध सैंकड़ों लोगों का जीवन लेनेवाली विभीषिका में तब्दील हो सकता है.
कटु अवश्य है, किंतु सत्य है कि सोशल मीडिया की अनियंत्रित प्रकृति उसे यदा-कदा अराजकता का माध्यम भी बना रही है.
यह अराजकता दोनों तरह की है- व्यक्तिगत भी और सामूहिक भी. व्यक्तिगत अराजकता मासूम लोगों को नुकसान पहुंचानेवाले साइबर अपराधों के रूप में दिखाई देती है, जैसे साइबर बुलिंग, साइबर स्टॉकिंग, इंटरनेट ट्रॉलिंग, मानहानि, अश्लीलता, बाल-शोषण, पहचान की चोरी आदि के रूप में. सामूहिक अराजकता कभी दंगे भड़का देती है, तो कभी किसी खास समुदाय के भीतर भय पैदा कर देती है.
कभी वह जाने-अनजाने में आतंक की मदद कर बैठती है, तो कभी किसी बेकसूर व्यक्ति को त्वरित और काल्पनिक मुकदमे में दोषी सिद्ध कर देती है. अलग-अलग स्थान पर बैठे लोगों को नियंत्रित या अनुशासित करना या उनका अच्छा आचरण सुनिश्चित करना भला कहां संभव और व्यावहारिक है!
इसी अराजकता की वजह से दुनिया की अनेक सरकारें, व्यापारिक संस्थान और आम लोग आशंकित हैं. अपरिमित शक्ति से लैस यह माध्यम रेगिस्तान में मदमस्त भटकते ऊंट की तरह कब किस दिशा में बैठ जाये, कौन जाने!
अंत में एक सवाल, क्या हम लोकतंत्र, इंटरनेट की मुक्त प्रकृति और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसी तमाम नकारात्मक घटनाओं को अनदेखा करने का जोखिम मोल ले सकते हैं, जो सोशल मीडिया का निर्बाध और अविवेकपूर्ण इस्तेमाल से पैदा हो रही हैं?
क्या हम यह सोच कर तसल्ली कर सकते हैं कि जिस तरह हर चीज के दो पहलू होते हैं, अच्छी और बुरी, ठीक उसी तरह सोशल मीडिया के भी दो पहलू हैं और हमें इस तथ्य के साथ जीना होगा? क्या हम यह सोच कर उम्मीद लगा सकते हैं कि हमारा समाज धीरे-धीरे सोशल मीडिया के प्रति परिपक्व होता चला जायेगा और ऐसी समस्याएं धीरे-धीरे कम होती चली जायेंगी? शायद नहीं, क्योंकि इसका ठीक उल्टा नहीं होगा, इस बात की भी तो कोई गारंटी नहीं है!
जनवरी, 2015 में स्थिति
24.20 करोड़ भारतीय इंटरनेट के सक्रिय यूजर्स, जबकि चीन में यह संख्या रही थी 64.20 करोड़.
75 फीसदी आबादी यानी 94.60 करोड़ मोबाइल उपभोक्ता
11 फीसदी भारतीय मोबाइल उपभोक्ताओं के पास 3जी और 4जी सेवाएं
72 फीसदी ऑनलाइन एक्टिविटी मोबाइल पर, यह संख्या 2013 के मुकाबले नौ फीसदी अधिक.
27 फीसदी ऑनलाइन गतिविधियां डेस्कटॉप या लैपटॉप पर, जो कि 2013 की तुलना में 19 फीसदी कम रहीं.
11.80 करोड़ भारतीयों के पास सोशल मीडिया के सक्रिय अकाउंट जिनमें 10 करोड़ मोबाइल उपभोक्ता थे. फेसबुक, गूगल प्लस और ट्विटर सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया साइट रहे थे.
2सरा स्थान रहा था दुनिया में भारत का सोशल मीडिया के माध्यम से हुए साइबर हमलों के लिहाज से
2014 में.
अब 15.90 मोबाइल यूजर्स थे 2015 के मध्य तक भारत में, जिनके 2017 तक 30 करोड़ हो जाने का अनुमान लगाया गया है इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया और सलाहकार संस्था केपीएम जी के रिपोर्ट में.
21.30
करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या का आकलन है 2015 में.
35.40
करोड़ इंटरनेट यूजर्स की कुल संख्या का अनुमान है 2015 में़
19
फीसदी है भारत में इंटरनेट की पहुंच भारत में जो कि इस श्रेणी में दुनिया की तीसरी सबसे संख्या है.
3.70
करोड़ नये मोबाइल उपभोक्ता बने थे 2015 के मध्य तक.
6.72
फीसदी की बढ़त दर्ज की गयी थी मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या में 2015 के मध्य में पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में.
39.1
लाख नए इंटरनेट उपभोक्ता बने 2015 के मध्य तक भारत में.
52.49
फीसदी की बढ़त दर्ज की गयी ब्रॉडबैंड उपभोक्ताओं की संख्या में जून, 2015 तक पिछले वर्ष की तुलना में.
844 सोशल मीडिया पेज ब्लॉक किये गये सरकार द्वारा जनवरी से नवंबर, 2015 के बीच.
492 पेज इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 के सेक्शन 69ए के तहत ब्लॉक किये गये.
4,192 मामले सेक्शन 66ए के तहत दर्ज किये गये देश भर में. इन मामलों में 1,125 व्यक्तियों पर चार्जशीट दायर हुई, लेकिन सिर्फ 43 को ही दोषी पाया गया. सबसे अधिक मामले
मामले उत्तर प्रदेश (898), कर्नाटक (603), असम (377), महाराष्ट्र (375) औरतेलंगाना (352) में दर्ज किये गये. इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने मार्च, 2015 में इसेरद्द कर दिया था.
15,155 फेसबुक के कंटेंट को प्रतिबंधित किया गया सरकार के द्वारा इस वर्ष जून तक.352 साइट लिंक प्रतिबंधित किये गये 2015 के नवंबर महीने तक.
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