तहलका यौन उत्पीड़न मामले के प्रकाश में आने के बाद कार्यस्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा का सवाल विमर्श के केंद्र में है. सवाल पूछा जा रहा है कि कानूनी प्रावधानों के बावजूद महिलाओं का उत्पीड़न रुक क्यों नहीं रहा? महिला सुरक्षा और इससे जुड़े कानूनी प्रावधानों के विभिन्न पहलुओं पर महिला प्रसिद्ध अधिकार कार्यकर्ता रंजना कुमारी से संतोष कुमार सिंह ने बातचीत की. पेश है मुख्य अंश.
कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा मामले में फैसला देते हुए महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किये थे. इसके तहत एक कानून भी बनाया गया है. इसके बावजूद कार्यस्थल पर यौन-उत्पीड़न के मामले सामने आ रहे हैं. इसकी वजह आखिर क्या है?
देखिए, कानून तो बनाया गया है, लेकिन कानून का शासन कितना स्थापित हो पाया है, यह महत्वपूर्ण सवाल है. कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा नियोक्ता की जिम्मेवारी होती है. लेकिन जब नियोक्ता खुद ही उत्पीड़नकर्ता बन जायें या उच्च पदों पर बैठे लोग अपने मातहत महिला कर्मचारियों को लोभ-लालच देकर या बलात शोषण करने लगें, तो समाज को इस मसले पर गंभीरता से सोचना पड़ेगा. जहां तक कानून का सवाल है, ऐसी घटनाओं की रोकथाम और जांच-पड़ताल के लिए सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा मामले में एक गाइडलाइन जारी की थी. इसके तहत प्रत्येक संस्थान को एक समिति बनाना है, लेकिन इसका अनुपालन कहां हो रहा है? अभी तहलका में जो मामला सामने आया है, उसमें घटना घटित होने के बाद ऐसी समिति बनाने की दिशा में पहल शुरू हुई, जबकि संस्थान में पहले ही ऐसी समिति होनी चाहिए थी.
उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में महिलाएं शिकायत दर्ज नहीं करातीं. क्या उनकी चुप्पी की वजह से भी ऐसी घटनाएं बढ़ती हैं?
इसके पीछे सबसे प्रमुख कारण पुरुष प्रधान समाज की सोच है, जो हर हाल में महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझता है. महिलाओं के खिलाफ हिंसा स्त्री-पुरुष के बीच गहरी असमानता और भेदभाव का परिणाम है. पुरुष-प्रधान सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाएं इसका पोषण करती हैं. ये सामाजिक संरचनाएं पुरुष की श्रेष्ठता के स्त्री विरोधी विचार को बढ़ावा देती हैं और स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर गैरवाजिब रूढ़ियों और अपेक्षाओं को मजबूती देती हैं. कोई महिला इन बेड़ियों को तोड़ते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करती है, अपने साथ हो रहे उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाती है, शिकायत दर्ज कराती है, तो दोषी व्यक्ति द्वारा उसे ही सवालों के दायरे में खड़ा करने का प्रयास शुरू हो जाता है. तहलका के मामले को देखें, तो पहले तेजपाल ने अपनी गलती स्वीकार की, इसे एरर ऑफ जजमेंट बताया, अपने रिश्तों की दुहाई दी, लेकिन जब उन्हें लगा कि लड़की पीछे हटने को तैयार नहीं है, तो उसे बदनाम करने की कोशिश शुरू हो गयी. और कहा जाने लगा कि आपसी सहमति थी. यह सोचने वाली बात है कि आखिर कोई लड़की अपने पिता के उम्र के व्यक्ति को, जिसकी बेटी उसकी हमउम्र है, दोस्त है, के साथ सहमति जैसी बात कैसे सोच सकती है?
कुछ लोग कानून के बेजा इस्तेमाल को लेकर भी सवाल खड़े कर रहे हैं. हाल ही में एक नेता का बयान आया है कि अब अधिकारी अपने मातहत महिला कर्मचारी की नियुक्ति से डरने लगे हैं. ऐसे में महिलाओं को नौकरियां मिलने में परेशानी होगी?
ये सारे बेतुके सवाल हैं और पुरुषों की मानसिकता को दर्शाते हैं. जिन नेता ने ऐसा बयान दिया है, इससे उनकी सोच सामने आती है. ऐसा बयान उन्होंने पहली बार नहीं दिया है, पहले भी वह बयानबाजी के जरिये महिलाओं के प्रति अपनी संवेदनहीनता का परिचय दे चुके हंै. बावजूद इसके अगर उनकी पार्टी उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाती, तो इससे यही माना जायेगा कि दल की सोच ही ऐसी है. अब जहां तक कानून के बेजा इस्तेमाल की बात है, तो हो सकता है कि कुछेक मामलों में ऐसा हो, लेकिन यह कहना कि इस कानून की वजह से महिलाओं को नौकरी मिलने में परेशानी होगी, बेतुकी बात है. महिलाएं जहां भी कार्य कर रही हैं, चाहे वह कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, अपनी योग्यता की बदौलत काम कर रही हैं. यदि पुरुष समाज ऐसा सोचता है कि वह किसी महिला को नौकरी देता है, तो उसे उसके दैहिक और मानसिक शोषण का अधिकार मिल जाता है, तो यह सरासर अन्याय है. ऐसी सोच रखनेवाले लोगों को कटघरे में खड़ा करने की जरूरत है.
कानूनी प्रावधानों से ऐसी घटनाओं की रोकथाम में कितनी मदद मिलेगी?
एक समग्र कानून और न्यायिक ढांचे की मजबूती इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. इसके द्वारा ही दोषियों को सजा दिलायी जा सकती है. इसके माध्यम से ही इस हिंसा को सांस्कृतिक और सामाजिक वैधता प्रदान करनेवाली सोच से लड़ा जा सकता है. हालांकि, सिर्फ कानून बना देना ही काफी नहीं. जरूरत इस बात की है कि कानून सिर्फ कागजों में ही सिमट कर न रह जाये, इसका प्रभावशाली तरीके से क्रियान्वयन किया जाय़े
आमतौर पर यह शिकायत होती है कि कानून की मजबूती के बावजूद पुलिसकर्मियों के रवैये के कारण महिलाएं घटना की रिपोर्ट दर्ज कराने से बचती हैं.
महिलाओं की आशंकाएं गैरवाजिब नहीं हैं. स्त्रियों के खिलाफ हिंसा को न रोक पाने के मामले में एक अहम मसलाजांच एजेंसियों के रवैये का है. कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि अपर्याप्त प्रशिक्षण के कारण पुलिसकर्मियों को स्त्री के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए बनाये गये कानून के बारे में कोई समझ ही नहीं है़ उन्हें यह नहीं पता कि ऐसे मामलों में उनका कर्त्तव्य क्या बनता है? कई मामलों में पुलिस द्वारा शिकायत दर्ज न करना आम बात है. यह समस्या इस बात से और भी गंभीर हो जाती है कि मदद करने के बजाय पुलिसकर्मी महिलाओं को ही प्रताड़ित करते हैं. साथ ही पुलिस की कार्रवाई को लेकर स्त्री के मन में अविश्वास, स्त्रियों की दशा को और सोचनीय बना देता है. उन्हें यह डर रहता है कि अपराधी पकड़े नहीं जायेंगे और उनकी बदनामी होगी. इसलिए जरूरी है कि पुलिस को संवेदनशील बनाने के लिए उनके बेहतर प्रशिक्षण की व्यवस्था हो. पुलिस को यह बताया जाये कि हिंसा की ऐसी शिकायतों पर किस तरह की प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए.
संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का मसला आप उठाती रही हैं. क्या आपको ऐसा लगता है कि यदि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती है, तो उनके उत्पीड़न की घटनाओं में कमी आयेगी?
निश्चित तौर पर राजनीति में महिलाओं की पूरी और बराबरी की भागीदारी लैंगिक समानता के लक्ष्य को पाने के लिए बेहद जरूरी है. और इसके लिए महिला आरक्षण की वर्षो पुरानी मांग को पूरा किया जाना आवश्यक है. यदि ज्यादा से ज्यादा महिलाएं संसद और विधान मंडल में चुन कर आयेंगी, तो वे पुरजोर तरीके से अपनी बात रख सकेंगी. महिला सुरक्षा को लेकर समाज, सरकार के रवैये को प्रभावित करने में कामयाब होंगी. वे न सिर्फ नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावित कर सकती हैं, बल्कि महिलाओं के मुद्दों को सरकारी प्राथमिकता में सबसे ऊपर ला सकती हैं. इसलिए मैं सोचती हूं कि स्त्री का पूर्ण सशक्तीकरण तब तक नहीं हो सकता, जब तक उसे राजनीति समेत समाज के हर क्षेत्र में समानता के साथ हिस्सेदारी करने का मौका न मिल़े. स्त्री का न सिर्फ राजनीतिक सशक्तीकरण,बल्कि आर्थिक सशक्तीकरण की राह पर बढ़ना काफी आवश्यक है.
दिसंबर में दिल्ली में एक छात्र के साथ किये गये अमानुषिक व्यवहार के खिलाफ हुए प्रदर्शनों के बाद कानून में बदलाव किया गया. कहा गया कि कड़े कानूनों की बदौलत ऐसी घटनाएं रूकेंगी और अपराधियों में भय का माहौल बनेगा. पर ऐसा नहीं दिखता.
निश्चित तौर पर उस घटना के बाद दिवंगत जस्टिस जेएस वर्मा की सिफारिशों के अनुरूप कानून में बदलाव किया गया. लोग भी इसीलिए सड़कों पर उतरे थे कि जनदबाव को देखते हुए सरकार जागेगी और कानून में तब्दीली लायेगी. अच्छी बात है कि सरकार ने जनभावना को समझा और कानून में तब्दीली की गयी. लेकिन ऐसी घटनाएं एकबारगी नहीं रुक सकतीं. इसमें वक्त लगेगा. लोगों में जागरूकता बढ़ने, कानून का प्रभाव बढ़ने से ही स्थिति में सुधार होगा. इसलिए कानून के विषय में अधिक से अधिक लोगों को जानकारी दिये जाने की जरूरत है.
महिला अधिकार की जंग
गैरसरकारी संगठन ‘सेंटर फॉर सोशल रिसर्च’की निदेशिका रंजना कुमारी लगातार महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाती आ रही हैं. वह ‘वीमेन पॉवर कनेक्ट’ की प्रेसीडेंट और ‘ज्वाइंट एक्शन फ्रंट फॉर वीमेन’ की कोऑर्डिनेटर भी हैं.