नेपाल में भले ही राजशाही का खात्मा हो गया हो, लेकिन नेपाल को गणतंत्र घोषित करने के पांच साल से ज्यादा बीतने के बाद भी नेपाल में अभी तक संविधान का निर्माण नहीं किया जा सका है.
राजशाही को खत्म करने और सत्ता व्यवस्था में सुधार के लिए माओवादियों समेत अन्य दल एक मंच पर आये थे, लेकिन वास्तविक सुधार की दिशा में आगे बढ़ने में वे नाकाम रहे. यहां राजनीतिक अस्थिरता और गतिरोध की स्थिति अब भी कायम है. इस यथास्थिति को भंग करने के लिए नेपाल में आज संविधान सभा के गठन के लिए दोबारा चुनाव कराये जा रहे हैं.
नेपाल के मौजूदा चुनाव में क्या हैं मुद्दे, भारत को लेकर नेपाल के लोगों की क्या है धारणा और जन–क्रांति के बाद राजनीतिक गतिरोधों के बीच देश में संविधान का निर्माण अब तक नहीं हो पाने जैसे तमाम मुद्दों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..
एक अन्य तसवीर में नेपाल में बिजली से चलनेवाली सुपरफास्ट ट्रेन को दिखाया गया है. एक तसवीर में नेपाल के प्रख्यात पर्यटक शहर पोखरा में कुछ इस तरह से ट्रेन परिचालन को दर्शाया गया है, जिससे यह एहसास होता है जैसे यह ट्रेन स्विट्जरलैंड के मनोरम इलाकों से गुजर रही हो.
साथ ही, पहाड़ी इलाकों में मौजूद पर्यटन स्थलों तक जाने के लिए ‘रोपवे’ की तसवीर समेत बुलेट ट्रेन की तसवीर लगायी गयी है. इतना ही नहीं, इस तरह की कई अन्य तसवीरें इस ब्लॉगर ने अपने ब्लॉग पर लगा रखी हैं, जिसे देख आप हैरान हो जायेंगे कि क्या वाकई में नेपाल इतनी तरक्की कर चुका है.
आप सोच रहे होंगे कि क्या यह नेपाल की वास्तविक तसवीर है? बिलकुल नहीं. यह तो महज कल्पना की गयी है कि यदि देश में राजनीतिक परिस्थितियां विकास के अनुकूल रहें, तो वर्ष 2020 तक नेपाल की ऐसी तसवीर कायम की जा सकती है. ‘न्यू नेपाल डेवलपमेंट ड्रीम’ के नाम से इंटरनेट पर एक पीडीएफ फाइल में इस तरह के नेपाल की कल्पना की गयी है.
इसमें भविष्य के नेपाल की जिस तसवीर की कल्पना की गयी है, उसके बारे में शायद आम नेपाली नागरिक सपने में भी नहीं सोच पाता होगा. ऐसा नहीं है कि नेपाल ने ऐसा सपना नहीं देखा था, या उसमें यह क्षमता नहीं है. 2007 में राजशाही के खात्मे के बाद लगभग ऐसा ही सपना नेपाल के लोगों ने देखा था.
राजशाही के खिलाफ जनक्रांति
वर्ष 1996 में माओवादियों ने छापामार हिंसक आंदोलन यानी जन–क्रांति की शुरुआत की थी. इस जन–क्रांति में राज्य और विद्रोहियों की ओर से 15 हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे. इस जन–क्रांति के दौरान माओवादी नेताओं भारत–विरोधी भावनाओं को हवा दी थी. माओवादी नेताओं का कहना था कि नेपाल में भारतीय अर्ध–औपनिवेश स्थिति कायम है, जिसे वे खत्म करना चाहते हैं.
माओवादी नेपाल में संस्कृत शिक्षा का विरोध करते थे. साथ ही, वे जातीय और क्षेत्रीय मतभेदों को बढ़ावा देते थे. 1991 के बाद से ही नेपाल में माओवादियों का भय कायम हो गया. माओवाद के प्रसार के बीच नेपाल में 1990 से 2005 तक अनेक दलों की सरकारें गठित हुईं.
इस दौरान पार्टियों के व्यवहार से जनता ऊब चुकी थी और राजा ज्ञानेंद्र ने गाहेबगाहे गद्दी पर अपनी पकड़ मजबूत बना रखी थी. विभिन्न राजनीतिक दलों ने आंदोलन किया, लेकिन अलग–अलग पार्टियों की असंगठित शक्ति राजा की हैसियत के आगे टिक नहीं पा रही थी. आंदोलन करने वाले दलों को आम जनता का पूरा समर्थन हासिल नहीं हो पा रहा था.
आंदोलन की धार कुंद होती देख सभी दलों ने मिलकर प्रयास किया और पूरे देश में व्यापक तौर पर जन–क्रांति की शुरुआत हो गयी. आखिरकार, 2006 में राजा ज्ञानेंद्र को गद्दी का त्याग करना पड़ा और एक बार फिर से संसद को बहाल किया गया.
अंतरिम संविधान
देश से निरंकुश राजतंत्र को पूरी तरह से खत्म करने के लिए दिसंबर, 2007 में माओवादियों और प्रमुख लोकतांत्रिक दलों के बीच नयी दिल्ली में एक समझौता हुआ. माओवादियों ने जन–क्रांति का रास्ता छोड़ते हुए दलीय व्यवस्था को स्वीकार किया. संसद को बहाल करते हुए राजतंत्र को खत्म करने का फैसला लिया गया.
इस बीच नेपाल को हिंदु राष्ट्र का दर्जा खत्म करते हुए इसे धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया गया. देश में अंतरिम संविधान भी बनाया गया. इसके तहत दो वर्ष की अवधि तय करते हुए वर्ष 2008 में संविधान सभा के चुनाव आयोजित किये गये. इन चुनावों में माओवादी सबसे बड़े दल के रूप में उभरे.
अंतरीम संविधान के मुताबिक दो वर्षों में संविधान निर्माण नहीं हो सका. इसकी अवधि दो बार बढ़ायी गयी, लेकिन इसके बावजूद दलों के बीच संविधान को ले कर एक मत नहीं बन पाया. नतीजन, संविधान सभा भंग हो गयी. सुप्रीम कोर्ट ने सत्ता की कमान अपने हाथ में लेते हुए, नेपाल में नये चुनाव की तिथि घोषित की. ये चुनाव आज हो रहे हैं.
चुनावी मुद्दे : हिंदू राष्ट्र की मांग
संविधान सभा चुनाव में एक अहम मुद्दा नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र घोषित करने का है. इसके लिए नेपाली जनता को एकजुट करने के उद्देश्य से गठित राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को नेपाल नरेश का समर्थक माना जाता है. यह पार्टी हिंदू राष्ट्र के पक्ष में नेपाली जनता के प्रबल समर्थन के प्रति आश्वस्त है.
इस दल का मानना है कि नेपाल की आम जनता में हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के प्रति झुकाव है, लेकिन गरीबी और विकास से जुड़े मामलों के बीच यह मुद्दा उभर नहीं रहा. मालूम हो कि नेपाल पूर्व में हिंदू राष्ट्र रह चुका है. जाहिर है माओवादी और दूसरी प्रगतिशील पार्टियां इसके खिलाफ हैं.
भारत से रिश्तों पर राजनीति
भारत समर्थन और विरोध का मामला भी इस संविधान सभा चुनाव में एक बड़ा मुद्दा माना जा रहा है. विकास के मामले में भारत द्वारा पिछले 50-60 वर्षो के दौरान दी गयी सहायता को दरकिनार करते हुए नेपाल के माओवादियों का भारत के मुकाबले चीन की ओर ज्यादा झुकाव रहा है. हालांकि, संविधान सभा चुनावों से पहले प्रमुख माओवादी नेता प्रचंड की भारत यात्रा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उनकी मुलाकात को इस दिशा में एक सार्थक पहल माना जा सकता है.
चुनाव और चुनौतियां
यह चुनाव संविधान सभा का चुनाव भले हो, लेकिन हकीकत में इसमें चुने गये जनप्रतिनिधि ही संविधान बनने तक कामचलाऊ सरकार भी चलायेंगे. यह चुनाव संविधान सभा की 601 सीटों के लिए दोबारा हो रहा है. 365 सीटों पर प्रत्यक्ष रूप से वोट के जरिये और शेष 236 सीटों पर दलों के माध्यम से अप्रत्यक्ष पद्धति से चुनाव कराये जायेंगे.
पूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला के पुत्र तथा नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रकाश कोइराला इस चुनाव में सक्रिय राजनीति से दूरी बनाए हुए हैं. उनका मानना है कि इस चुनाव से कोई हल नहीं निकलने वाला है. उन्हें इस बात की आशंका है कि गरीब देश की जनता के करोड़ों रुपये खर्च कर बनने वाली संविधान सभा नेपाल की खुशहाली और राजनीतिक स्थिरता का माध्यम बनेगी.
उनका मानना है कि राजनीतिक दलों को क्षुद्र राजनीतिक लाभों को छोड़कर पूरे देश के संदर्भ में व्यापक राजनीतिक सोच विकसित करना चाहिए, तभी नेपाल की बदहाली दूर हो पायेगी. फिलहाल नेपाल के भविष्य को इन चुनावों पर निर्भर माना जा सकता है.
बहुदलीय प्रजातंत्र
वर्ष 1990 में नेपाल में बहुदलीय प्रजातंत्र की स्थापना हुई. इसमे दलों के माध्यम से जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति को सरकार का प्रमुख और राजा को राष्ट्र–प्रमुख के तौर पर बनाये रखने पर सहमति कायम हुई. वर्ष 1991 में हुए आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस को बहुमत हासिल हुआ और जीपी कोईराला प्रधानमंत्री बने. लेकिन 3 वर्षो के बाद पार्टी में अंतर्कलह शुरू हो गया.
कम्युनिस्टों ने भी आंदोलन किया और जीपी कोईराला ने संसद भंग कर दिया. 1994 के चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी और मनमोहन अधिकारी प्रधानमंत्री बने. यह सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी. इस प्रकार लगातार राजनीतिक अंतर्कलह जारी रहा, जो अब तक जारी है.
राजा त्रिभुवन से वीरेंद्र तक का सफर
भारत की आजादी के वक्त नेपाल के राजा थे त्रिभुवन वीर विक्रम शाह देव और उनके बेटे थे महेंद्र. राजा त्रिभुवन बड़े सरल हृदय के व्यक्ति थे. कहा जाता है कि भारत की स्वतंत्रता से वे बहुत खुश थे और नेपाल में भी लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे. इसी बीच नेपाली कांग्रेस ने विद्रोह कर दिया और नेपाल में पहली बार फरवरी, 1951 में लोकतंत्र की स्थापना हुई.
1955 में महाराजा त्रिभुवन के निधन के बाद महेंद्र सत्ता में आये. वे देश में लोकतंत्र नहीं चाहते थे. 1959 में आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस को दो–तिहाई बहुमत हासिल हुआ और बीपी कोईराला प्रधानमंत्री नियुक्त किये गये. राजा महेंद्र ने दिसंबर, 1960 में संसद को भंग करते हुए लोकतांत्रिक व्यवस्था को खत्म कर दिया. राजा महेंद्र की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र विरेंद्र वीर विक्रम शाहदेव नये राजा बने.
राष्ट्रव्यापी विरोध के बाद जनमत संग्रह कराये जाने पर सहमति कायम हुई. 1980 में ‘बहुदलीय प्रजातंत्र’ या ‘निर्दलीय प्रजातंत्र’ के लिए जनमत संग्रह कराये गये. इसमें परिणाम ‘निर्दलीय प्रजातंत्र’ के पक्ष में आये. इससे राजा वीरेंद्र की सत्ता अगले एक दशक तक कायम रही.