।। स्वयं प्रकाश ।।
मैं सोनपुर मेला हूं. प्राचीन काल में हरिहरक्षेत्र के नाम से विख्यात रहा. कहते हैं-गज और ग्राह युद्ध यहीं समाप्त हुआ था. कहानी है- एक बार देवल मुनि स्नान कर रहे थे. गंधर्वो के प्रमुख थे हुहु. उन्होंने मुनि का पैर पकड़ा और पानी में उनसे खिलवाड़ करने लगा. मुनि क्रोधित हो गये. उन्होंने शाप दिया – ग्रह (मगरमच्छ) हो जाओ. एक राजा थे इंद्रद्युम्न. पांडेय़ देश के. महर्षि अगस्त्य उनके राज्य में एक बार भ्रमण को आये. राजा ने उनका यथोचित सम्मान नहीं किया. गुस्साये अगस्त्य ने उनको गज (हाथी ) बन जाने का शाप दिया. कालांतर में मगरमच्छ ने हाथी का पैर पकड़ लिया.
वर्षों तक लड़ाई चली. हाथी कमजोर होता चला गया. और गंगा-गंडक के इसी संगम पर गज को ग्राह पानी में खींच कर ले जा रहा था. जान बचाने के लिए एक दिन गज ने आर्तभाव से हरि (विष्णु) की आराधना की. सूंड में कमल लेकर पुकारा. प्रार्थना की. और अपने भक्त को बचाने हरि सोनपुर की धरती पर आये. उन्होंने सुदर्शन चक्र से ग्राह का वह पाप से मुक्त हो गया. और फिर से गंधर्व प्रमुख बन गया. उधर, हरिभक्त इंद्रद्युम्न को भी श्रप से मुक्ति मिली और उन्हें बैकुंठ मिला. श्रीमद्भागवत के आठवें स्कंध में गजेंद्र मोक्ष की कथा है. स्तोत्र भी.
यही नहीं भगवान राम भी यहां आये. बाबा हरिहरनाथ की पूजा-अर्चना की. गुरु नानक भी आये. ऐसा सिख ग्रंथों में है. कहते हैं- अंतिम समय में भगवान बुद्ध इसी रास्ते कुशीनगर गये. वहीं उनका महापरिनिर्वाण हुआ. महाभारत में कथा है. महाबली भीम अपने भैया युद्धिष्ठिर को सुनाते हैं.
कहते हैं- कार्तिक पूर्णिमा को यहां स्नान करने से सौ गोदान का फल प्राप्त होता है. लोग आते हैं. चले जाते हैं. तारीखें बदल गयी. शताब्दियां और सहस्राब्दियां भी. युग भी. पर न जाने कितने इतिहास को मैं अपने कलेजे में समेटे हुए हूं. एक-एक चीज बताने लगूं, तो मेला पुराण हो जायेगा. नदी सभ्यता का दौर. तब जल मार्ग ही यातायात का साधन था. संपर्क का स्रोत. व्यवसाय का आधार भी.
एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला. आर्यावर्त के बाहर सुदूर अफगान, इरान, इराक से लोग खरीद-बिक्री करने आते थे. चंद्रगुप्त मौर्य ने भी इसी मेले से बैल, घोड़े, हाथी और हथियारों की खरीदारी की थी. इतना ही नहीं 1857 की लड़ाई के लिए बाबू वीर कुंअर सिंह ने भी यहीं से अरबी घोड़े, हाथी, हथियारों का संग्रह किया था.
पूर्वी के प्रणेता पंडित महेंद्र मिश्रभी यहीं पकड़े गये. ब्रिटिश हुकूमत की आर्थिक व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए जाली नोट छापते थे. सीआइडी ने गोपीचंद नाम के पुलिस अधिकारी को पंडित जी के यहां नौकर रखवा दिया था. उसने अपनी सेवा से उनका दिल जीत लिया और रहस्य भी जान गया. मेले में मिश्रजी की भी रावटी लगी थी. देश-विदेश के संगीत-प्रेमी उनकी पूर्वी के दीवाने थे. सुनते-सीखते.
और यह क्या. मेले में एक दिन अंगरेज पुलिस की टुकड़ी उनके सामने हथकड़ी लेकर खड़ी थी. सामने सेवक गोपीचंद पुलिस वर्दी में. गद्दारी, धोखा, विश्वासघात से दुखी सरल-हृदय पंडित जी का स्वर था – पाकल पाकल पनवां खियवलस गोपीचनवां.. रे बेइमनवा. संभवत: गुलाम भारत में जाली नोट छापने का पहला काम महेंद्र मिश्र ने ही किया था. एक तरह से वे स्वतंत्रता-सेनानी थे. अंगरेजों की आर्थिक रीढ़ तोड़ कर ही मां भारती की सेवा कर रहे थे.
स्वतंत्रता आंदोलन का भी गवाह रहा हूं. स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में बिहार प्रदेश किसान सभा का गठन 1929 में यहीं हुआ. राजेंद्र बाबू अध्यक्ष बनाये गये. तब ब्रजकिशोर बाबू ने इसका विरोध किया था. स्वामीजी ने सरदार पटेल के साथ किसान सभा के लिए भ्रमण भी किया. इसी मेले में तय हुआ कि कांग्रेस की राजनीतिक नीतियों का किसान सभा विरोध नहीं करेगी. अंगरेजों से मुक्ति दोनों का लक्ष्य था. कांग्रेस का, समाजवादियों का सम्मेलन भी यहां हुआ. यहां की अमराइयों में समाजवादियों ने समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स चलाया. जेपी, कृपलानी, युसूफ मेहर अली सरीखे बड़े नेताओं ने समाजवाद का पाठ पढ़ाया.
क्या नहीं बिकता-मिलता था सोनपुर मेले में. तब मॉल कल्चर नहीं था. तब भौतिक समृद्धि के लिए लोग यहां नहीं आते थे. जरूरत होती थी. गांव में तब सब तरह की दुकानें नहीं होती थीं. तब मेले से ही साल भर की जरूरत का सामान खरीदते थे. संग्रह, दिखावे के लिए नहीं. आम आदमी अपनी आवश्यकता को ध्यान में रखता, तो राजा-महाराजा शौक और प्रतिस्पर्धा में खरीदारी करते थे. एक से एक बाजार.
चिड़िया बाजार, हाथी बाजार, घोड़ा बाजार, ऊंट बाजार, घोड़ा बाजार, बकरी बाजार, गाय बाजार, बैल बाजार, मीना बाजार, लकड़ी बाजार, लोहा बाजार, अंगरेजी बाजार. तरह तरह के बाजार. तरह-तरह की चीजें. सूई से लेकर अरबी घोड़ा, ढाका का मलमल, किसिम किसिम के रेशमी ऊनी कपड़े.. हीरे-जवाहरात. तरह-तरह के खेल-तमाशे. क्या-क्या बताऊं.कोई खरीदने आता. कोई बेचने. कोई अध्यात्म संगम में डुबकी लगाने. राजा, रंक, फकीर, साधु-संन्यासी, हर फन के माहिर कलाकार, मशहूर थियेटर, मशहूर हस्तियां अपनी कला का प्रदर्शन करते. यहां आने से उनकी ख्याति चहुंओर फैलती. कला- संस्कृति का भी आदान-प्रदान होता था. गुरु-शिष्य परंपरा कायम थी. इस तरह व्यापार, कला, सौहार्द-प्रेम का भी केंद्र रहा मैं.
गौरवशाली-समृद्ध अतीत रहा है मेरा. यह आत्मश्लाघा नहीं. तभी तो मेलों का मेला – सोनपुर मेला था मैं. कण-कण, पग-पग में इतिहास बिखरा है. संसार का इकलौता मंदिर है हरिहरनाथ. यहां हरि (विष्णु) और हर (शिव) की एकीकृत मूर्ति है. कहते हैं – ब्रह्म ने इसकी स्थापना की थी. संगम किनारे दक्षिणोश्वर काली की मूर्ति में शुंग काल का स्तंभ है. कुछ तो गुप्त और पाल काल की मूर्तियां हैं. पर वर्षो से दुखी हूं. किसी का ध्यान हमारे विकास पर नहीं. यहां के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री बने, केंद्रीय मंत्री भी. आस जगी थी- कुछ करेंगे. जब जीत कर यहां से विधानसभा, संसद जाने लगते तो बाबा हरिहरनाथ की पूजा-अर्चना करते. ऐसे में और विश्वास बढ़ गया था. नतीजा सिफर रहा. किसी ने कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया.
इतिहास, कला, संस्कृति, परंपरा, धरोहर के प्रति सजग-सतत क्रियाशील सरकार ने रुचि ली. मेला प्राधिकार बनाया, पर ढाक के तीन पात. आचार्य किशोर कुणाल, गुप्तेश्वर पांडेय के नेतृत्व में हरिहरनाथ मंदिर का कायाकल्प हो रहा है. मंदिर के पुजारी विद्वान सुशील जी और सचिव विनय बताते हैं – स्थानीय लोगों का सहयोग भी मिल रहा है. सुखद है. व्यवस्था बदली है. पर वर्षों से मैं उद्धार की बाट जोह रहा हूं. जन-सरकार मेरा कल्याण करे, ताकि अतीत की स्मृतियां जीवंत रह सकें. सोनपुर मेला फिर से नजीर बने संसार के लिए. ऐसी योजना ही न बने, बल्कि उसे महामेला का मूर्तरूप मिले.
हमने यहां वसुधैव कुटुंबकम को जिया है. आज बाजारवाद, पूंजीवाद, भोगवाद, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, पैसे के लिए आपाधापी, कुछ भी करने को तैयार, अधिकाधिक संपत्ति अजिर्त करने, स्वामित्व की होड़ लगी है. इन सबसे नैतिकता, मर्यादा, मानवीयता, सौहार्द का क्षरण होता है. न जाने ऐसी कितनी घटनाओं का गवाह रहा हूं. देखता हूं, तो दुख होता है. पर मैं कर क्या सकता हूं. साक्षी मात्र रहना मेरी नियति है. जो हमने देखा है, उन अनुभवों – एहसासों के आधार पर ऐसा हमने कहा. अंत में पुनश्च – मेरा उद्धार हो, यही मेरी प्रार्थना है.