भारत समेत पूरे एशिया को समझने में पश्चिमी देशों की काफी दिलचस्पी रही है. खासकर यूरोप के शासकों और कारोबारियों ने अपने साम्राज्य और कारोबार को बढ़ाने के लिए सैकड़ों वर्षो से एशिया के देशों पर अपना प्रभुत्व जमाये रखा.
दुनिया में बदल रहे कारोबारी हालातों के बीच अब एशिया और यूरोप के बीच नये सिरे से संबंधों को गढ़ते हुए 11-12 नवंबर को नयी दिल्ली में इन देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक आयोजित की गयी है. यूरोप और एशिया के बीच प्राचीन समय से लेकर आधुनिक संबंधों को दर्शा रहा है आज का नॉलेज..
भारत समेत समूचे एशिया को खोजने के संबंध में अनेक भ्रांतियां हैं. वास्कोडिगामा ने भले ही भारत आने का मार्ग को खोजा, लेकिन माना जाता है कि इस बारे में अंग्रेजों ने एक भ्रम का माहौल भी बनाया. वास्कोडिगामा समुद्री मार्ग से भारत कैसे आया इसके यथार्थ को जानने से इसकी वास्तविकता स्पष्ट होती है.
जब कोलंबस ने नवीन संसार की खोज कर ली, उस समय पुर्तगाली के लोग भारत के लिए समुद्री मार्ग की खोज में व्यस्त थे. पुर्तगाल के शासक ने भारत के लिए समुद्री मार्ग की खोज के लिए वास्कोडिगामा को चुना. वह पुर्तगाली राजदरबार और सेना की नौकरी में सम्मिलित हुआ. युवक के रूप में उसने नौ संचालन और जलयान के प्रबंध में अनुभव हासिल किया.
वास्को के नेतृत्व में चार छोटे जलयानों का जहाजी बेड़ा 1497 में भारत के लिए रवाना हुआ. केपवर्डे द्वीपों को पार करने के पश्चात वास्को ने दक्षिण अंध महासागर में अपने जलयानों को लेकर दक्षिण–पश्चिम की ओर अनजाने स्थान की ओर बढ़ा. उसे यह ज्ञात नहीं था कि एक समय वह दक्षिण अमेरिका के तट से केवल 600 किलोमीटर के भीतर था. ये लोग बिना जमीन देखे हुए तकरीबन साढ़े चार हजार मील जहाज चला लेने के 96 दिनों के बाद अफ्रीका के दक्षिण–पश्चिमी तट की ओर बढ़ते चले गये.
भारत से संबंध कायम
महान भूगोलवेत्ता हिकेटियस ने विश्व का सामान्य सर्वेक्षण प्रस्तुत किया है. इसमें भूमध्यसागर, खासकर एजियन सागर के निकट स्थित स्थानों और प्रदेशों का वर्णन किया गया है. उसने अपने लेखन में दुनिया के तमाम इलाकों समेत भारतीयों का भी जिक्र किया है, लेकिन यह वर्णन अस्पष्ट है.
हेकेटियस दूसरा यूनानी लेखक था, जिसने भारत और विदेशों के बीच कायम हुए राजनीतिक संबंधों की चर्चा की है. हेरोडोटस जो एक प्रसिद्ध यूनानी लेखक था, ने यह लिखा है कि भारतीय युद्ध प्रेमी थे. इसी लेखक के ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि भारत का उत्तरी तथा पश्चिमी देशों से मधुर संबंध था. पहली बार यूरोप के लोग जब भारत आये, तो भारतीय जहाजों की बनावट और उसकी गुणवत्ता से अभिभूत थे.
यहां के जहाज बिना किसी तरह की मरम्मत के पचास वर्षो से ज्यादा समय तक काम में लाये जाते थे, जबकि यूरोपीय जहाजों को दस–बारह वर्षो में मरम्मत की जरूरत पड़ती थी. भारत में सागौन, शीशम और साल के बने जहाज यूरोप के जहाजों से ज्यादा टिकाऊ होते थे.
हेरोडोटस को इतिहास का पिता कहा जाता है और वह आरंभिक भूगोलवेत्ता भी थे. वे इस बात के समर्थक थे कि समस्त इतिहास का भौगोलिक दृष्टि से अध्ययन किया जाना चाहिए और समस्त भूगोल को इतिहास की तरह व्यवहार में लाना चाहिए. पृथ्वी के धरातल का वर्णन करते समय हेरोडोटस ने उस समय की जातियों और उनके रहन–सहन के तरीकों के बारे में बड़े ही रोचक तरीके से वर्णन किया है.
यूरोप से समृद्ध था भारत
भारत का प्राचीन इतिहास लिखनेवाले इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत, यूरोप के किसी देश की तुलना में एक महानतम औद्योगिक और उत्पादक राष्ट्र था. इसका टेक्सटाइल सामान–इसके लूम से उत्पादित बेहतर उत्पादन, कॉटन, वूलन, लीनन और सिल्क– सभ्य विश्व में प्रसिद्ध थे.
इसी प्रकार यहां की आकर्षक ज्वैलरी और बहुमूल्य नग, पोरसेलिन्स, सिरेमिक्स, गुणवत्ता, रंग में बेहद गुणवत्तायुक्त माने जाते थे. एशिया में उस समय कई महान वास्तुकार थे, जिन्होंने अनेक ऐतिहासिक निर्माणकार्यों को अंजाम दिया.
आरंभिक दौर में भले ही वास्कोडिगामा को भारत की खोज करने के लिए यहां आना बताया गया हो, लेकिन कुछ वर्षो के बाद ही यूरोप ने भारत के साथ कारोबार शुरू कर दिया. कारोबार के साथ ही उसने भारत को अपने कब्जे में लेने की कवायद शुरू की. इन्हीं कवायदों के तहत इस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गयी और पूरे देश पर यूरोप का कब्जा हो गया. इसी बीच यूरोप की साम्राज्यवादी नीति के तहत पूरे यूरोप पर धीरे–धीरे उसका कब्जा होता गया.
औद्योगिक क्रांति
इसे सभी जानते हैं कि इंगलैंड समेत तमाम यूरोपीय देशों में 18वीं सदी के आरंभिक समय में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ. इस क्रांति ने पूरे यूरोप को आर्थिक समृद्धि की एक नयी दिशा प्रदान की. धीरे–धीरे यूरोपवासियों ने इस आर्थिक समृद्धि को अपने हक में करने के लिए दुनिया के अन्य देशों में अपना प्रभुत्व कायम किया.
जानकारों का मानना है कि यूरोप को यह मालूम हो चुका है कि अगर एशिया संगठित हो गया तो वे विश्व का शोषण नहीं कर पायेंगे. इसीलिए वे भारत, पाकिस्तान, चीन, अफगानिस्तान और ईरान को कभी न खत्म होने वाले युद्ध में झोंक कर नष्ट कर देना चाहते हैं. नफरत फैलानेवाली हरेक बात का लाभ हमें नहीं, बल्कि अमेरिका और यूरोप को मिलता है.
दक्षिण एशिया के देश
दक्षिण एशिया में वे सभी देश शामिल हैं, जो कि चीनी जन गणराज्य के दक्षिण में हैं और हिंद महासागर के देश, जैसे– भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बंग्लादेश, म्यांमार, इंडो–चीन के देश, जैसे वियतनाम, लाओस, कंबोडिया, थाइलैंड और इसके दक्षिण में मलयेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया और फिलिपींस इसमें आते हैं. चीन और ताइवान इसकी उत्तरी सीमा है.
विश्व का यह वह हिस्सा है, जो यूरोपीयन उपनिवेशवादी देश जैसे ब्रिटेन, पुर्तगाल, हालैंड आदि के शोषण का शिकार रहे हैं, भारत सबसे बड़ा देश है और उसका भूतकाल बड़ा शानदार रहा है. औपनिवेशिक काल में दुनिया का यह हिस्सा साम्राज्यवादियों की कठपुतली की तरह था और वे ही इसके भाग्य विधाता थे. औपनिवेशिक काल में इन देशों की अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मुश्किल से ही कोई स्वतंत्र भूमिका रही हो.
भारत की स्वतंत्रता के बाद इन देशों में स्वतंत्रता आंदोलन ने जोर पकड़ा और कुछ वर्षो के भीतर सभी देश आजाद हो गये. आज के बदलते समय में विश्व राजनीति में इन देशों की प्रमुख भूमिका हो चली है. राष्ट्रों के समुदाय में इनकी आवाज का काफी महत्व है. जहां यूरोप ने दुनिया को दो विश्वयुद्ध दिये, तो इस क्षेत्र ने विश्वशांति में काफी भूमिका निभायी है. दक्षिण एशिया के देश संयुक्त राष्ट्र समेत अनेक मंचों पर शांति के लिए पैरवी करते रहे हैं.
1947 में दिल्ली में ‘एशियंस रिलेशंस कांफ्रेंस’ का आयोजन हुआ था. 1954 में भारत और चीन में संयुक्त रूप से शांति के प्रसिद्ध पांच सिद्धांतों, पंचशील का प्रतिपादन किया गया. इसके बाद 1955 में, एशियाई देशों की इंडोनेशिया में कांफ्रेंस हुई. दक्षिण एशिया ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को सार्थकता प्रदान करने के लिए बहुत प्रयास किया. भारत के नेतृत्व में इस आंदोलन में एशिया समेत अन्य कई महादेशों के राष्ट्रों ने हिस्सा लिया. गुटनिरपेक्ष आंदोलन में एशिया के 36 देशों ने हिस्सेदारी निभायी थी. कुछ यूरोपीय देशों, खासकर युगोस्लाविया ने गुटनिरपेक्षता के दर्शन को स्वीकार किया.
चीन की ताकत
आज के दौर में, चीन न केवल एशिया महाद्वीप में, बल्कि विश्व में अपनी पहचान बनाने में सफल हो रहा है. चीन विश्व शक्ति बनने की दौड़ में अब ज्यादा पीछे नहीं है. चीन विश्व शक्ति बनने के लिए साम–दाम–दंड भेद नीति और अपनी मानसिक योग्यता का प्रयोग कर प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने की कवायद में है. वह समय अब दूर नहीं जब चीन अमेरिका, रूस और अन्य विश्व के शक्तिशाली देशों को पीछे छोड़ देगा. चीन शिक्षा, मानव विकास, सामाजिक, राजनितिक और आर्थिक स्तरों पर स्वयं को मजबूत कर रहा है.
सिल्क रूट
सिल्क रूट को प्राचीन चीनी सभ्यता के व्यापारिक मार्ग के रूप में जाना जाता है. दो सौ साल ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी के बीच रेशम के व्यापार को बढ़ावा मिला था. पहले रेशम के कारवां चीनी साम्राज्य के उत्तरी छोर से पश्चिम की ओर जाते थे. लेकिन फिर मध्य एशिया के कबीलों से संपर्क हुआ और धीरे–धीरे यह मार्ग चीन, मध्य एशिया, उत्तर भारत, आज के ईरान, इराक और सीरिया से होता हुआ रोम तक पहुंच गया.
हालांकि, इस मार्ग पर केवल रेशम का व्यापार नहीं होता था, बल्कि इससे जुड़े सभी लोग अपने–अपने उत्पादों का व्यापार करते थे. कालांतर में सड़क के रास्ते व्यापार करना खतरनाक हो गया तो यह व्यापार समुद्र के रास्ते होने लगा.
भारत और चीन ने साझा रिश्तों को मजबूत करने की ओर एक अहम कदम उठाते हुए समुद्र से 14,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित विख्यात नाथू ला र्दे को 44 साल बाद 2006 में फिर खोला है. एक जमाने में ऐतिहासिक सिल्क रूट का हिस्सा रह चुके इस र्दे को व्यापार के लिए खोला गया.
आंकड़ों में असेम
असेम की वेबसाइट के मुताबिक, 2012 में यूरोपीय संघ के सभी आयात में एशिया की हिस्सेदारी 29.8 प्रतिशत तथा निर्यात में हिस्सेदारी 21.4 प्रतिशत थी. एशिया के चार देश यूरोपीय संघ के शीर्ष 10 व्यापार साझेदारों में शामिल हैं, जिसमें चीन (12.5 प्रतिशत) के साथ सबसे ऊपर है. उसके बाद जापान (3.4 प्रतिशत), भारत (2.2 प्रतिशत), दक्षिण कोरिया (2.2 प्रतिशत) और सिंगापुर (1.5 प्रतिशत) का स्थान है.
आधुनिक रेल सिल्क रूट
यूरोप और एशिया के बीच सदियों पुराना सिल्क रूट फिर खुल गया है. तुर्की में दोनों महाद्वीपों को जोड़ने वाली पहली रेल सुरंग चालू हो गयी है. बोसपोरस नाम की यह रेल सुरंग समुद्र में बनायी गयी सबसे गहरी रेल सुरंग है. जमीन और समुद्र के भीतर बनायी गयी बोसपोरस सुरंग 13.6 किलोमीटर लंबी है. सुरंग का 1.4 किलोमीटर हिस्सा बोसपोरस के समुद्र में बना है.
यह काले सागर को सीधे मारमारा सागर से जोड़ता है. बताया गया है कि खाड़ी के पास सुरंग 60 मीटर गहराई में खोदी गयी है. इस लिहाज से सागर के भीतर से जाने वाली यह सबसे गहरी रेल सुरंग है. यात्री सुविधाओं की दृष्टि से यह बेहद अहम है. साथ ही, यह सुरंग चीन को सीधे पश्चिमी यूरोप के बाजारों से जोड़ेगी. इसे आधुनिक दौर का ‘रेल सिल्क रूट’ कहा जा रहा है.
द एशिया–यूरोप मीटिंग (असेम)
असेम की स्थापना वर्ष 1996 में यूरोपीयन यूनियन के 15 देशों और आसियान के 7 सदस्यों समेत चीन, जापान, कोरिया और यूरोपीयन कमीशन को मिला कर की गयी थी. इसका मकसद इसके सदस्य राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में संबंधों को मजबूती प्रदान करते हुए आपसी सम्मान और समान साझेदारी कायम करना है.
भारत 2007 में असेम में शामिल हुआ था. भारत इस समूह का एक महत्वपूर्ण सदस्य बन गया है और इसके कामकाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. मौजूदा समय में यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देश, 2 यूरोपीय देश, यूरोपीय आयोग, एशिया के 20 देश तथा आसियान सचिवालय असेम वार्ता के तहत राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मुद्दों पर विचार–विमर्श किया जाता है. हाल के वर्षो में यूरोप को आर्थिक मंदी से उबारने में इसकी व्यापक भूमिका रही.
यूरोप–एशिया के बीच आर्थिक सेतु
यूरोप को उस समय अनियंत्रित आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ रहा था, जब असेम के राष्ट्राध्यक्षों की 2008 में बीजिंग में बैठक हुई थी. उस समय यूरोप के देशों ने एशिया के देशों से वित्तीय संकट से जूझ रही यूरोजोन की अर्थव्यवस्थाओं की मदद करने का अनुरोध किया था.
एशियाई देशों ने ऐसा किया भी. एशिया के देशों को यूरोपीय निर्यात ने इस संकट से बाहर निकलने में यूरोप के देशों की मदद की. इसके बाद से अब पांच वर्ष बीत गया है और आज हालात बिलकुल बदल चुके हैं.
असेम के विदेश मंत्रियों की दिल्ली में ऐसे समय में (11-12 नवंबर, 2013) बैठक हो रही रही है, जब औद्योगिक यूरोप में भारत जैसे उभरते बाजारों एवं आसियान के देशों की तुलना में विकास की दर बेहतर है. साथ ही, इनकी अर्थव्यवस्थाओं के विकास की दर धीमी पड़ गई है. यह ऐसा समय है जब यूरोप के देश उभरते बाजारों के आर्थिक समुत्थान में शामिल हो रहे हैं.
‘असेम’ के कुछ रोचक तथ्य
अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर नजर रखनेवाले लोग यह जानने को उत्सुक हैं कि 11वीं असेम विदेश मंत्री बैठक में क्या एशिया व यूरोप इस मंच को पुनर्जीवित करने और इसके आंतरिक लोकतंत्र से पीछे हटे बगैर इसे अधिक परिणामोन्मुख मंच बनाने के लिए एक साथ आ सकते हैं. ऐसी उम्मीद जतायी गयी है कि यह बैठक असेम के लिए ऐसी राह का निर्माण करेगी, जिसके आधार पर इसके भागीदार 2014 में ब्रुसेल्स में अपनी अगली शिखर बैठक और 2016 में इसके 20वीं वर्षगांठ समारोह में अधिक मजबूत शक्ति के रूप में उभरना चाहते हैं.
अधिकांश अन्य क्षेत्रीय समूहों से भिन्न असेम का कोई सचिवालय नहीं है. इसकी एकमात्र भौतिक संस्था सिंगापुर में स्थित एशिया– यूरोप प्रतिष्ठान (एएसइएफ) है, जो सांस्कृतिक संपर्क और आपसी हित के राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर सेमिनार के आयोजन के माध्यम से एशिया एवं यूरोप के बीच परस्पर समझ एवं सहयोग को बढ़ावा देने के लिए काम करता है. स्थायी सचिवालय के अभाव में असेम अपने हितधारकों के बीच नियमित बैठकों पर बहुत अधिक निर्भर है.
असेम इन शिखर बैठकों के बीच एक जीवंत मंच बना हुआ है. इसके तहत वित्त, व्यापार, संस्कृति, शिक्षा, आपदा तत्परता, परिवहन, जलवायु परिवर्तन, समुद्री जल दस्युता, सूचना प्रौद्योगिकी, अप्रवासन, खाद्य सुरक्षा, विकास, रोजगार, ऊर्जा सुरक्षा, वैश्विक अभिशासन समेत अनेक अन्य विषय शामिल होते हैं.