एक सुर्ख गुलाब उसकी मेज पर रखा है और एक सफेद गुलाब दाहिनी चोटी की पहली गुंथन से कोई एक इंच ऊपर, कान से थोड़ा नीचे, ऐसी लापरवाही से खोंसा गया है कि कभी भी गिर सकता है.
मैं इन दोनों गुलाबों को बीसियों बार देख चुका हूं और देखता ही जा रहा हूं, क्योंकि मेरा काम ही है इस कमरे का चक्कर काटना.
चार कतारों में हरेक में दस के हिसाब से, चालीस मेज-कुरसियां लगी हैं, दो कतारें दीवारों से लगी हैं यानी मुङो हर बार में कमरे के तीन राउंड लेने पड़ते हैं. सामने की ओर से देखें, तो यूं कह सकते हैं कि मेरी चहलकदमी हर बार अंगरेजी का ‘एस’, या मात्र गिनने का दीर्घ निशान बनाती जा रही है.
मैं पढ़ भी नहीं रहा हूं, लिख भी नहीं रहा हूं, क्योंकि इसकी मनाही है पर सोच जरूर रहा हूं. इससे किसी प्रकार की भी कोई आवाज नहीं निकल रही, पर सायलेंसर वाले स्टोव की तरह चुपचाप किसी चीज की गैस बन रही है और कोई गैस फ्लेम पकड़ती जा रही है.
हवा का झोंका आया सो उस लड़की का सुर्ख गुलाब मेज से जा उड़ा है. मैं आगे बढ़ उसे उठा वापस मेज पर रख देता हूं, वह मुस्कुराती मेरी ओर देख धीरे-से कहती है, ‘थैक्यू सर.’
मैं ‘कोई बात नहीं’ कहता फिर-फिर चहलकदमी का ‘एस’ बनाने लगता हूं.
आज आखिरी दिन है यहां का. इस ड्यूटी के बाद पूरे दो माह की छुट्टी. आज रात ही अपने घर-शहर चला जाऊंगा. ट्रेन शायद दस-दस को छूटती है. सवेरे ही पार्टनर से पूछ रहा था कि रात की ट्रेन से जाऊं तो मेल पकड़ सकूंगा! उसने बतलाया था कि बीना में मेल कभी मिलती है, कभी नहीं. मिली, तो कल ग्यारह के लगभग घर में होगे, नहीं तो एक घंटे बाद पैसेंजर मिलेगी और सारा दिन बरबाद!..
सोच रहा हूं कि एक घंटे की रिस्क कौन ले.. मेल मिले मिले, न मिले न मिले..
‘सर!’ दीवार के पासवाली कतार से किसी ने पुकारा है. मैं पास जाता हूं, तो वह पानी को कहता है. मैं खिड़की में से ही बाहर बैठे चपरासी से कह रहा हूं,‘पानी ले आओ!’..
चपरासी जग में पानी भरने लगा है पास रखे मटके से.. कहां तो मैं चाय पीने जा रहा था और कहां वापस अपने कमरे में लौट आया हूं.
चपरासी कार्ड लाकर देता है. मैं लिखने को पेन निकालता हूं, पर दोनों मेजों पर कुचले पड़े सुर्ख और सफेद गुलाबों पर जाकर मेरी आंख भटक जाती है.
मैं अनमना-सा चहलकदमी का ‘एस’ बनाने लगता हूं. एक लड़का हिंदुस्तान का नक्शा बना रहा है, शायद इतिहास का पेपर है. लगता है मुङो उस नक्शे में गुलाब के कुचले हुए फूल-ही-फूल बिखरे हैं- सफेद, सुर्ख और भी कई रंगों के फूल, मगर सब कुचले हुए..
मैं कांपते हाथों से अपना खुला पेन बंद करता हूं, गुस्से में आकर मंगवाये हुए कोरे कार्ड के चार टुकड़े कर उसे बरामदे में फेंकता हुआ अपने आप से कहता हूं ‘मैं वाया बीना जाऊंगा.’