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आधार अनिवार्यता को लेकर असमंजस बरकरार

देश के नागरिकों समेत सभी निवासियों को सरकारी योजनाओं और विभिन्न सेवाओं का लाभ समुचित रूप से पहुंचाने की महती आकांक्षा के साथ शुरू हुई आधार परियोजना का भविष्य सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम निर्णय पर निर्भर करेगा. विशिष्ट पहचान संख्या के पक्ष और विपक्ष में तर्क दमदार हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि […]

देश के नागरिकों समेत सभी निवासियों को सरकारी योजनाओं और विभिन्न सेवाओं का लाभ समुचित रूप से पहुंचाने की महती आकांक्षा के साथ शुरू हुई आधार परियोजना का भविष्य सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम निर्णय पर निर्भर करेगा. विशिष्ट पहचान संख्या के पक्ष और विपक्ष में तर्क दमदार हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि समुचित सूचनाओं और भ्रष्टाचार के कारण सरकारी योजनाओं का लाभ अधिकतर नागरिकों तक ठीक से नहीं पहुंच सकता है.
इसमें सुधार के लिए तकनीकी उपायों की दरकार है. अनेक योजनाओं में आधार संख्या की उपयोगिता भी सिद्ध हुई है. परंतु इस परियोजना पर जो वैधानिक प्रश्न उठाये गये हैं, उनको भी खारिज नहीं किया जा सकता है. निजता के अधिकार और सूचनाओं के बेजा इस्तेमाल की चिंताओं के कारण ही सर्वोच्च न्यायालय को मामले के निबटारे के लिए संवैधानिक पीठ का गठन करना पड़ रहा है. न्यायालय के साथ-साथ संसद को भी परियोजना की समीक्षा कर संबंधित विधेयक पर शीघ्र निर्णय लेना चाहिए. आधार कार्यक्रम के मुद्दे को विश्लेषित करता आज का समय…
अब तक का सफर
28 जनवरी, 2009 : योजना आयोग के एक आदेश के तहत आधार संख्या जारी करनेवाली संस्था भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण की स्थापना हुई.
23 जून, 2009 : कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनी इंफोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलेकणि को इस परियोजना का प्रमुख बनाया गया. उन्हें कैबिनेट मंत्री के समकक्ष दर्जा दिया गया था.अप्रैल, 2010 : इस कार्यक्रम के प्रतीक चिह्न और ब्रांड नाम ‘आधार’ की घोषणा की गयी.
दिसंबर, 2011 : यशवंत सिन्हा की अध्यक्षतावाली वित्तीय मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने भारतीय राष्ट्रीय पहचान पहचान प्राधिकरण विधेयक, 2011 को खारिज करते हुए उसे संशोधित करने की सिफारिश की. समिति ने इस परियोजना को अनैतिक और संसदीय विशेषाधिकारों का उल्लंघन करनेवाला बताया.
7 फरवरी, 2012 : आधार प्राधिकरण ने आधार संख्याओं के सत्यापन के लिए ऑनलाइन प्रणाली की शुरुआत की, जिससे सरकारी विभाग और टेलीकॉम कंपनियां आधार संख्या के जरिये व्यक्ति के भारत में निवास करने का सत्यापन कर सकती हैं.
26 नवंबर, 2012 : तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आधार के द्वारा लाभार्थी के खाते में सीधे धन स्थानांतरण योजना की शुरुआत की.
नवंबर, 2012 : कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश केएस पुट्टास्वामी और अधिवक्ता परवेश खन्ना ने सरकार के विरुद्ध जनहित याचिका दायर कर आधार परियोजना को अवैध बताया और कहा कि इसका कानूनी आधार नहीं है.
23 सितंबर, 2013 : सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश में कहा कि सरकार किसी नागरिक को दी जानेवाली कोई सेवा आधार संख्या नहीं होने के कारण नहीं रोक सकती है, क्योंकि यह स्वैछिक है. इस आदेश के बाद तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री राजीव शुक्ला ने कहा कि सरकार आगामी सत्र में परियोजना से संबंधित विधेयक पारित करने की कोशिश करेगी. परंतु, ऐसा नहीं हो सका. विधेयक अब भी लंबित है.
मार्च, 2014 : नीलेकणि ने आधार परियोजना के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया और पिछले साल के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रत्याशी बने. उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा. लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने इस परियोजना पर अनेक सवाल उठाये, इसे रोकने की मांग की.
एक जुलाई, 2014 : नीलेकणि ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली से मुलाकात की तथा उन्हें आधार कार्यक्रम को जारी रखने के लिए मनाने की सफल कोशिश की. आधार परियोजना अब सरकार की सबसे पसंदीदा योजनाओं में से एक है.
अदालत में आधार
नवंबर, 2012 : आधार की वैधता को पहली चुनौती सर्वोच्च न्यायालय में कर्नाटक उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश केएस पुट्टास्वामी और वकील परवेश खन्ना ने दी थी. उनका तर्क था कि आधार संख्या को कानूनी मान्यता नहीं है, क्योंकि भारत का राष्ट्रीय पहचान प्राधिकार विधेयक संसद में विचाराधीन है.
इस जनहित याचिका में कहा गया था कि सरकार द्वारा नागरिकों की निजी सूचनाओं का संकलन न सिर्फ निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है, बल्कि यह संसद के कार्यक्षेत्र का उल्लंघन भी है.
दिसंबर, 2012 : अदालत ने केंद्र सरकार, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकार और अन्य संबंधित विभागों से जवाब तलब किया. बाद में, इस तरह की अन्य याचिकाओं को एक-साथ जोड़ दिया गया.
23 सितंबर, 2013 : अपने पहले अंतरिम आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को सामाजिक लाभ योजनाओं से आधार संख्या नहीं होने के कारण वंचित नहीं रखा जा सकता है तथा किसी भी सेवा के लिए इसे अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है.
2 फरवरी, 2015 : सर्वोच्च न्यायालय ने इस परियोजना पर नयी सरकार को अपना रुख स्पष्ट करने का निर्देश दिया. यह निर्देश पूर्व सैन्य अधिकारी मैथ्यू थॉमस द्वारा दायर जनहित याचिका पर दिया गया था. बारह फरवरी को सरकार ने अपने जवाब में कहा कि वह इस परियोजना को जारी रखेगी.
16 जुलाई, 2015 : सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से अंतरिम आदेश को वापस लेने का आग्रह किया.11 अगस्त, 2015 : दूसरे अंतरिम आदेश में अदालत ने कहा कि सरकारी विभागों द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली और रसोई गैस वितरण प्रणाली के अलावा आधार का उपयोग किसी भी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं किया जा सकता है. इस आदेश में यह भी कहा गया है कि अब तक जमा की गयीं सूचनाएं किसी अन्य संस्था के साथ साझा नहीं की जा सकती हैं.
साथ ही, सरकार को यह निर्देश जारी किया गया कि वह मीडिया में विज्ञापन के देकर लोगों को यह जानकारी देगी कि किसी नागरिक के लिए आधार बनवाना अनिवार्य नहीं है. तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने यह भी निर्णय लिया कि आधार से संबंधित संवैधानिक प्रश्नों के बारे में फैसला लेने के लिए मसले को बड़ी खंडपीठ को सौंपा जायेगा.
7 अक्तूबर, 2015 : सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश में बदलाव के सरकार के आग्रह को खारिज करते हुए कहा कि इस संबंध में अंतिम निर्णय संवैधानिक पीठ द्वारा ही लिया जायेगा. प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षतावाली खंडपीठ में अगली सुनवाई 14 अक्तूबर काे संभावित है़
चाहिए आधार, क्योंकि भ्रष्टाचार को दूर करने में सहायक
भांबी वी शिनॉय
वरिष्ठ पत्रकार
आधार कार्ड के प्रयोग को लेकर जतायी जा रही कई तरह की शंकाओं को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसका प्रयोग सीमित करने का फैसला सुनाया है. लेकिन, इसके उपयोग के फायदे कम नहीं है. कुछ समय पहले आंध्र प्रदेश में बायोमेट्रिक कार्ड को लेकर किये गये सर्वे से आधार कार्ड के खिलाफ दी जा रही दलीलें कमजोर दिखती है. आधार कार्ड को लेकर फैलाये गये भ्रम को इस अध्ययन से दूर करने में मदद मिल रही है.
आधार कार्ड के उपयोग से लोगों को सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही तरीके से मिल पा रहा है. साथ ही इससे सब्सिडी के बोझ को कम करने में मदद मिलेगी. कई रिपोर्ट में कहा गया है कि आधार कार्ड के प्रयोग से लाभार्थियों को सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही तरीके से मिल पायेगा.
सरकार देश में जनवितरण प्रणाली और मनरेगा जैसी योजनाओं के तहत अरबों रुपये खर्च करती है. लेकिन बिचौलियों के कारण जरूरतमंदों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है. यह सर्वविदित है कि जनवितरण प्रणाली के तहत केरोसिन तेल अवैध तौर पर बाजार में पहुंचता है और इसे डीजल और पेट्रोल में मिलाया जाता है.
ग्लोबल सब्सिडी इनिशिएटिव की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सब्सिडी का लाभ आम लोगों को सही तरीके से नहीं मिल पा रहा है और गरीबों की बजाय इसका लाभ अमीर और मध्यवर्ग के लोग उठा रहे हैं. पारदर्शिता के कारण जनकल्याणकारी योजनाओं में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है और इससे काले धन को बढ़ावा मिल रहा है. एक अनुमान के मुताबिक इसमें सालाना 45 हजार करोड़ रुपये का भ्रष्टाचार होता है. आधार कार्ड के उपयोग से इसमें पारदर्शिता आयेगी और सरकारी योजनाओं का लाभ जमीनी स्तर पर दिखेगा.
आधार जनकल्याणकारी योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन का एक माध्यम है. एक बार पीडपीएस, मनरेगा, एलपीजी को इससे जोड़ दिया जायेगा तो इससे न सिर्फ सरकार को पैसे की बचत होगी बल्कि सही लोगों को इसका लाभ मिलेगा. लेकिन देश में राजनीतिक दल और समाज के कुछ लोग बेहतर व्यवस्था का निर्माण नहीं चाहते हैं. उदाहरण के तौर पर 1990 में कर्नाटक में जनवितरण प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए कूपन सिस्टम की शुरुआत मैसूर में की गयी.
यह योजना इतनी सफल रही कि सरकार इसको व्यापक बनाना चाहती थी, लेकिन बिचौलियों और राजनीतिक दलों के दबाव में इसे बंद कर दिया गया. उसी तरह योजना आयोग की सलाह पर जनवितरण प्रणाली को बेहतर बनाने के लिए कुछ राज्यों ने स्मार्ट कार्ड सिस्टम को लागू किया. उस समय भी इसे लेकर कई तरह की शंकाएं लोगों ने सामने रखी.
पूर्व के अनुभव को देखकर कहा जा सकता है कि आधार कार्ड को लेकर भी लोग भ्रम फैलाने की कोशिश कर रहे हैं. जहां तक आधार कार्ड के प्रयोग से लोगों के निजता के हनन का सवाल है, यह पूरी तरह गैरवाजिब है. कोई व्यक्ति अगर ड्राइविंग लाइसेंस के लिए आवेदन करता है, तो उससे भी कई तरह की जानकारियां मांगी जाती है. वोटर कार्ड बनाने के लिए भी लोगों को जानकारी देनी होती है.
पासपोर्ट बनवाने के लिए भी लोगों को कई तरह की जानकारियां एजेंसियों को देनी होती है. क्या इस मसले पर किसी ने निजता के उल्लंघन का सवाल उठाया? ऐसे में आधार कार्ड के लेकर सवाल उठाना सही नहीं है. अमेरिका की अदालतों ने भी कई फैसलों में कहा है कि बायोमेट्रिक कार्ड लोगों के निजता के मूलभूत अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है.
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व जज वाधवा के नेतृत्व में जनवितरण प्रणाली में सुधार के लिए एक कमिटी का गठन किया था. इस कमिटी ने बायोमेट्रिक स्मार्ट कार्ड और कंप्यूटर आधारित सूचना तंत्र बनाने की सिफारिश की थी, ताकि भ्रष्टाचार को कम किया जा सके. यह रिपोर्ट आधार योजना के गठन से पहले की थी. यह सही है कि तकनीक को लेकर कुछ खामियां हो सकती है, लेकिन इसे पूरी तरह खारिज करना सही नहीं है. ब्रिटेन की नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी की रिपोर्ट के मुताबिक बायोमेट्रिक कार्ड में प्रति 10 हजार में एक गलती की संभावना है.
इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन की रिपोर्ट के मुताबिक अधिकांश देशों में बायोमेंटिक पासपोर्ट है और बहुत कम समय में यह लोगों के आमजीवन का हिस्सा बन गया है. आलोचकों का कहना है कि ब्रिटेन ने इस योजना को बंद कर दिया लेकिन ब्राजील, आस्ट्रेलिया, अमेरिका और दूसरे अन्य देशों में बायोमेट्रिक कार्ड का प्रयोग हो रहा है. अमेरिका के सोशल सिक्युरिटी नंबर सिस्टम और आधार में कई समानताएं है. अमेरिका जैसे देश जहां निजता, मानवाधिकार के मुद्दे काफी अहम हैं, वहां जब इसे लेकर कोई संशय नहीं है तो भारत में आधार को लेकर इतनी चिंता समझ से परे है. इससे भारत की सुरक्षा को भी खतरा नहीं है, बल्कि आधार के डाटा का प्रयोग आंतकवादियों के बारे में जानकारी जुटाने में भी किया जा सकता है.
आधार कार्ड को लेकर फैलाये जा रहा भ्रम आमलोगों के हित में नहीं है. नौकरशाही की असफलता को आधार कार्ड के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. यह सही है कि सरकार के विभिन्न विभागों जैसे चुनाव आयोग, विभिन्न मंत्रालय और राज्य सरकार के बीच समन्वय की कमी है. आधार कार्ड को लेकर भी बेहतर समन्वय की कमी रही है. क्या आज देश में राशन कार्ड अनिवार्य है? नहीं है. लेकिन जो जनवितरण प्रणाली का लाभ लेना चाहते हैं, उनके लिए यह अनिवार्य है. ऐसे में क्या आधार के प्रयोग को वैकल्पिक बनाना गलत है?
आधार के प्रयोग से जरुरतमंदों की पहचान सही तरीके से हो पायेगी. आधार कार्ड के सही प्रयोग से भ्रष्टाचार को कम करने में मदद मिलगी और इसका व्यापक असर देखने को मिलेगा. किसी भी व्यापक बदलाव का विरोध होता है और आधार अपवाद नहीं है. लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति से इसे लागू किया जा सकता है. आंध्र प्रदेश में स्मार्ट कार्ड का प्रयोग इसका उदाहरण है.
(लेखक की वेबसाइट से साभार)
नहीं चाहिए आधार, क्योंकि देश की सुरक्षा, लोगों की निजता को खतरा
गोपाल कृष्ण
सदस्य, सिटिजन फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज
नागरिकों की निजता के अधिकार के पक्ष में यूरोपियन मानवाधिकार न्यायालय और फिलिपींस के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी उंगलियों और आंखों की पुतलियों की तसवीर आधारित आधार संख्या और निजता के अधिकार मामले की सुनवाई के लिए एक संवैधानिक बेंच का गठन कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों वाली बेंच ने अटॉर्नी जनरल के अनुरोध पर 11 अगस्त, 2015 को आदेश दिया था कि इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश द्वारा गठित संवैधानिक बेंच करेगी.
इस मामले की अगली सुनवाई 14 अक्तूबर संभावित है. गौरतलब है कि महात्मा गांधी ने अपना पहला सत्याग्रह 1906 में दक्षिण अफ्रीका में एशिया के लागों की उंगलियों के निशान लेने और उनकी निजता के अधिकार की रक्षा के लिए ही किया था.
लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाएं जब ढुलमुल रवैया अख्तियार करती हैं, तो नाजायज सरकारी संस्थाओं को जीवनदान देती प्रतीत होती हैं. हालांकि संसद ने इस मामले में ऐसा रवैया नहीं अपनाया. जब आधार संख्या को लागू करनेवाली संस्था- भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआइडीएआइ)- को कानूनी बनाने के लिए केंद्र सरकार ने एक विधेयक पेश किया, तो संसद ने उसे पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा की अध्यक्षतावाली वित्त की संसदीय समिति को सौंप दिया.
इस समिति ने आधार लागू करनेवाली संस्था और उसकी परियोजना की कड़ी आलोचना की, इसे संसद की अवमानना बताया और विधेयक को वापस भेज दिया. यह विधेयक आज तक संसद में पारित नहीं हुआ है. फलस्वरूप आधार और प्राधिकरण के वजूद पर सवालिया निशान लगा हुआ है.
ऐसे में आधार को लेकर केंद्र सरकार का रुख दर्शाता है कि वह संसदीय समिति द्वारा की गयी सिफारिशों की अनदेखी कर रही है.
समिति ने बायोमीट्रिक आंकड़ों के संग्रहण की वैधता पर सवाल उठाया था, क्योंकि इस काम के लिए कोई संसदीय मंजूरी प्राप्त नहीं है. यहां याद दिलाना जरूरी है कि केंद्रीय बजट 2009-10 पेश करते वक्त तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने यूआइडीएआइ की घोषणा करते हुए कहा था कि ‘भारतीय नागरिकों की पहचान और बायोमीट्रिक आंकड़ों का एक आॅनलाइन डेटाबेस बनाया जायेगा तथा देश भर में पंजीकरण व पहचान सेवाएं मुहैया करायी जायेंगी.’ संसद को इस मामले में अंधेरे में रखा गया कि कैसे विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को आपस में जोड़े बगैर भारत के हर नागरिक को आधार संख्या बांटनी शुरू कर दी गयी.
इतना ही नहीं, बगैर किसी विधायी मंजूरी के जनांकिकीय आंकड़ों और फील्ड वेरिफिकेशन तथा बायोमीट्रिक से जुड़ी समितियों की स्थापना कर दी गयी.
सरकार ने सुनिश्चित कर दिया है कि प्राधिकरण द्वारा आधार योजना को लागू करने के लिए चयनित विदेशी सेवा प्रदाताओं के विदेशी और देशी आंतरिक गुप्तचर एजेंसियों के साथ संबंधों की जानकारी विधायिका को न लगने पाये. संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट नागरिकों का डेटाबेस बनाने के क्रम में बायोमीट्रिक आंकड़ों के संग्रहण की वैधता पर सवाल उठाती है.
रिपोर्ट कहती है, ‘बायोमीट्रिक सूचना का संग्रहण और निजी जानकारी के साथ उसके संबंधों पर नागरिकता कानून 1955 तथा नागरिकता नियम 2003 में संशोधन के बगैर कोई अन्य विधेयक बना कर सही ठहराने की गुंजाइश नहीं बनती, और इसकी संसद को विस्तार से पड़ताल करनी होगी.’ इससे पता चलता है कि केंद्रीय बजट में आधार के लिए आवंटन अवैध है.
केंद्रीय बजट 2012-13 में कहा गया है, ‘नंदन नीलेकणि के नेतृत्व में सब्सिडी के प्रत्यक्ष हस्तांतरण से संबंधित आइटी रणनीति पर कार्यबल की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया है. यह कदम 12 करोड़ किसान परिवारों को लाभ देगा, जबकि उर्वरकों के दुरुपयोग को रोक कर सब्सिडी पर होनेवाले खर्च को कम करेगा.’ अतीत में सब्सिडी के प्रत्यक्ष हस्तांतरण से होनेवाले ऐसे फायदे बेकार साबित हो चुके हैं, लेकिन सरकार निजी हितों के दबाव में इस रास्ते पर चलने को आमादा है.
संसदीय समिति ने कहा था कि आधार परियोजना में ‘उद्देश्य की स्पष्टता’ का अभाव है और अपने क्रियान्वयन में यह ‘दिशाहीन’ है, जिससे ‘काफी भ्रम’ फैल रहा है. मौजूदा कानूनी ढांचे के अंतर्गत बायोमीट्रिक आंकड़ों का संग्रहण कैदी पहचान कानून के तहत अस्थायी अवधि के लिए किया जा रहा है.
लेकिन, आधार के मामले में बायोमीट्रिक आंकड़ा, बगैर किसी संवैधानिक या कानूनी मंजूरी के, स्थायी तौर पर इकट्ठा किया जा रहा है.
ऐसे दूरगामी प्रयासों के पीछे कोई विधायी आधार न होने की स्थिति में, यह काम करने के लिए बहुउद्देश्यीय पहचान पत्र को लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र (एमपीएनआइसी) पर एक मंत्रिसमूह की सिफारिशों का हवाला दिया गया है. यह सारी कवायद स्वीकार करने योग्य नहीं है.
मौजूदा केंद्र सरकार के मुखिया और अरुण जेटली जैसे नेताओं ने 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान आधार संख्या को देश और देश के नागरिकों की निजता के अधिकार के लिए खतरा बताया था. लेकिन, ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार के मंत्रिगण विदेशी कंपनियों के द्वारा मजबूर किये जा रहे हैं.
नहीं तो कोई भी सरकार अपने नागरिकों की संवेदनशील जानकारी अमेरिकी एक्सेंचर और फ्रांसीसी सैफरान जैसी कंपनियों को सूचना के अधिकार से प्राप्त अनुबंध के मुताबिक ‘सात साल’ तक के लिए रखने कैसे दे सकती है? और इलेक्ट्रॉनिक युग में सात सेकेंड, सात साल, सत्तर साल या सात सौ साल तक सूचना रखने का मतलब एक ही है. इस तरह भविष्य के सांसदों, मंत्रियों और अन्य अधिकारियों के आकड़े विदेशों में अदूरदर्शी तरीके से भेजा रहा है. हद तो यह है कि इसके लिए प्रति आधार पंजीकरण तय राशि भी हम इन कंपनियों को दे रहे हैं.
आधार जैसी परियोजना को चीन, ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और फिलिपींस जैसे देशों ने रोक दिया है, क्योंकि आधार जैसी योजना देश की सुरक्षा से भी जुड़ी है. पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट ने भी जब इसके कानूनी वैधता पर सवाल उठाया, तो भारत सरकार के चंडीगढ़ प्रशासन ने आधार को अनिवार्य बनानेवाला अपना आदेश वापस ले लिया. 11 अगस्त, 2015 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारतीय चुनाव आयोग ने भी मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने के संबंध में दिया गया आदेश वापस ले लिया. इसी तरह दिल्ली सरकार ने भी एक आदेश जारी कर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पालन करने का आदेश दिया है.
सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च, 2014 को दो ऐसे सरकारी संस्थाओं के मामले में फैसला दिया, जिनकी संवैधानिक और कानूनी वैधता पर गंभीर सवाल है. केस का नाम है यूआइडीएआइ बनाम सीबीआइ. गौरतलब है कि गुवाहाटी हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति इकबाल अहमद अंसारी और डॉ (श्रीमती) न्यायमूर्ति इंदिरा शाह बेंच ने सीबीआइ की वैधता पर ठोस सवाल उठा कर 6 नवंबर, 2013 को अपना 89 पेज का फैसला दे दिया. मगर जब केंद्र सरकार ने इस फैसले को चुनौती दी, तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसले पर रोक लगा दी और इस मामले की सुनवाई के लिए भी एक संवैधानिक बेंच का गठन कर दिया. ऐसे गंभीर मामले में भी सुनवाई में देरी होती जा रही है.
उम्मीद है आधार के मामले में सुनवाई राष्ट्र सुरक्षा और निजता के अधिकार की सुरक्षा के मद्देनजर ज्यादा संवेदनशील होगी. ऐसा न हो कि फैसला आते-आते बहुत देर न हो जाये और कारवां हमें, भविष्य के नागरिकों और उनके नुमाइंदों को गुबार में छोड़ कर गुजर जाये. हर किसी को समझना होगा कि यह देश के संघीय ढांचे के भी खिलाफ है, क्योंकि इस तरह से सारा संवेदनशील आंकड़ा एक जगह पर एकत्रित हो जायेगा और एकत्रित करनेवाला तानाशाह बन सकता है.
समर्थन में दलीलें
पूर्ववर्ती यूपीए सरकार और मौजूदा एनडीए सरकार की विभिन्न योजनाओं के लाभ को समुचित तरीके से करोड़ों लोगों तक पहुंचाने के लिए आधार जैसे कार्यक्रम जरूरी हैं. रसोई गैस अनुदान हस्तांतरण, जन धन योजना, ग्रामीण रोजगार योजना जैसी कई योजनाओं में आधार संख्या का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा रहा है.
आधार को रोकने से चुनाव सुधार, पेंशन, भविष्य निधि आदि से संबंधित प्रस्तावित कार्यक्रमों पर असर होगा. जन धन योजना जैसी वित्तीय समावेशी योजना असफल हो सकती है.
आधार पंजीकरण स्वैच्छिक है और इसमें लोग स्वयं ही अपनी सूचनाओं के सुरक्षित उपयोग की अनुमति देते हैं, जिनसे उनको लाभ होता है. इसे निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है.
अगर आधार का उपयोग रसोई गैस की आपूर्त्ति में किया जा सकता है, तो फिर अन्य योजनाओं में क्यों नहीं? बॉयोमेट्रिक सिस्टम का उपयोग भी कई स्तरों पर हो रहा है, जैसे कि कार्यालयों में उपस्थिति दर्ज करने में. ऐसे में अन्य जगहों पर इसके उपयोग पर आपत्ति का कोई तुक नहीं है.
आधार के प्रयोग से योजनाओं और सेवाओं का लाभ सही तरीके से लोगों को पहुंचाया जा सकता है तथा इससे भ्रष्टाचार और लापरवाही रोकने में भी मदद मिलेगी.
विरोध में दलीलें
परियोजना के उद्देश्यों, खतरों और इस पर होनेवाले व्यय पर समुचित सोच-विचार के बिना ही इसे लागू किया गया है.
घोषित रूप से स्वैच्छिक होने तथा अदालती आदेश के बावजूद अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न योजनाओं, कार्यक्रमों और सेवाओं में इसे अनिवार्य बनाने की कोशिश की जा रही है.
इस परियोजना को कोई वैधानिक या विधायी मान्यता प्राप्त नहीं है. इस परियोजना के तहत नागरिकों की बॉयोमेट्रिक सूचनाएं संग्रहित करना गैरकानूनी है. यह संविधान के अनुच्छेद 21 में उल्लिखित निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है.
इस कार्यक्रम को अनियोजित तरीके से और संसदीय समिति की सिफारिशों की अवहेलना कर लागू किया जा रहा है.
आधार जैसी परियोजना को चीन, ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और फिलिपींस जैसे देशों ने रोक दिया है, क्योंकि यह परियोजना देश की सुरक्षा से भी जुड़ी है.

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