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प्रारंभिक चरण में पहचान करने में मिली कामयाबी, कैंसर कोशिकाओं को सोखेगा स्पंज

कैंसर के ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि जब तक उसकी पहचान होती, वह घातक स्टेज में पहुंच चुका होता है. कैंसर को प्रारंभिक चरण में पहचानने और उसकी चेतावनी देने के लिए कई दुनियाभर में कई तकनीकों पर काम चल रहा है. इस बीच वैज्ञानिकों ने एक ऐसा स्पंज विकसित किया है, जिसे […]

कैंसर के ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि जब तक उसकी पहचान होती, वह घातक स्टेज में पहुंच चुका होता है. कैंसर को प्रारंभिक चरण में पहचानने और उसकी चेतावनी देने के लिए कई दुनियाभर में कई तकनीकों पर काम चल रहा है. इस बीच वैज्ञानिकों ने एक ऐसा स्पंज विकसित किया है, जिसे शरीर के भीतर इंप्लांट करने पर वह कैंसर कोशिकाओं को सोखने का काम करेगा. क्या है यह स्पंज, कैसे इसे विकसित किया गया है आदि समेत इससे जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं को बता रहा है नॉलेज…

दिल्ली : दुनियाभर में कैंसर से होनेवाली मौतों में सबसे ज्यादा मामले (करीब 90 फीसदी) मेटेस्टिक कैंसर के होते है. कैंसर के उस प्रारूप को मेटेस्टिक कैंसर कहा जाता है, जो शरीर में एक स्थान से शुरू हो और धीरे-धीरे अन्य हिस्सों में फैलता हो.

कैंसर की जांच के क्रम में डॉक्टर नियमित रूप से इस बात की जांच करते हैं कि मरीज के खून में कैंसर कोशिकाएं अन्य प्रकार की नयी मुश्किलें न पैदा करें या फिर वे इन कोशिकाओं को फैलने से रोकें. हालांकि, इस तरह की कोशिकाओं को पहचानना बेहद मुश्किल होता है. लेकिन हाल ही में इस मामले में कुछ हद तक सफलता हासिल हुई है और शोधकर्ताओं ने एक छोटा सा स्पंज विकसित किया है, जिसे शरीर के भीतर इंप्लांट किया जा सकता है. दरअसल, यह खास स्पंज कैंसर कोशिकाओं को सोखने का काम करेगा.

‘पॉपुलर साइंस’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसा होने से डॉक्टर अब इंसान के शरीर में कैंसर को खतरनाक स्तर तक पहुंचने से पहले न केवल उसे जानने में सक्षम हो सकते हैं, बल्कि समय रहते उन कोशिकाओं को नष्ट करने की कोशिश भी कर सकते हैं, ताकि कैंसर को समय रहते रोका जा सके. ‘बीबीसी’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिकी शोधकर्ताओं ने हाल ही में चूहों पर इसका परीक्षण किया है. शोधकर्ताओं ने उम्मीद जतायी है कि यह डिवाइस मरीज के भीतर अर्ली वार्निंग सिस्टम के तौर पर काम कर सकता है. इससे डॉक्टर को यह समझने में मदद मिलेगी कि इंसान के भीतर कैंसर फैल रहा है या नहीं. इस स्पंज के इंप्लांट होने से कैंसर के मरीज के शरीर में कैंसर कोशिकाओं को दूसरे हिस्सों में फैलने से भी रोका जा सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक, यूनाइटेड किंगडम में कैंसर रिसर्च से यह पाया गया है कि कैंसर के कारण होने वाली 10 मौतों के मामले में से 9 मामलों में इस बीमारी का शरीर के अन्य हिस्सों में फैलना प्रमुख कारण रहा है.

चूहों में किया गया परीक्षण

चूहों में ब्रेस्ट कैंसर के लिए किये गये परीक्षण के आधार पर तकरीबन पांच मिलीमीटर डायमीटर यानी व्यास वाले एक ‘बायोमैटेरियल’ को मेडिकल डिवाइस के इस्तेमाल के रूप में मंजूरी दी गयी है. प्रायोगिक परीक्षण के दौरान शोधकर्ताओं ने इसे चूहे के पेट और उसकी त्वचा के भीतर इंप्लांट कर दिया.

28 दिनों के बाद जब उन्होंने इन स्पंज को हटाया, तो शोधकर्ताओं ने पाया कि उनमें कैंसर कोशिकाएं भी थीं, जबकि बिना स्पंज वाले उतकों में कोई कैंसर कोशिकाएं नहीं पायी गयीं. शोधकर्ताओं ने पाया कि पेट की चर्बी के भीतर या त्वचा में इस उपकरण को इंप्लांट करने की दशा में यह शरीर के भीतर सर्कुलेट हो जाती है और कैंसर कोशिकाओं को सोखना शुरू कर देती है.

शोधकर्ताओं का मानना है कि प्रतिरक्षी कोशिकाएं जब स्पंज को इंप्लांट किये गये स्थान पर एकत्रित होती हैं, तो मेटेस्टिक कैंसर कोशिकाएं उन्हें फॉलो करती हैं और स्पंज उन्हें अपने दायरे में समेट लेता है.

इस डिवाइस के पूरी तरह से कारगर होने की दशा में शोधकर्ताओं को यह मेटेस्टिक कैंसर कोशिकाओं को डिटेक्ट करने में मददगार होगी. और इस तरह से वे किसी इंसान के शरीर के भीतर पनप रहे कैंसर को समय रहते जान पायेंगे, जिससे समय रहते मुकम्मल इलाज भी किया जा सकता है.

शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि यदि यह स्पंज ऑरिजनल ट्यूमर से कैंसर कोशिकाओं को सोखने में सक्षम हो सका तो ऑरिजनल कैंसर का इलाज करना ज्यादा आसान हो सकता है. आरंभिक प्रयोग के दौरान शोधकर्ताओं ने कैंसर कोशिकाओं को खास तरीके से निर्दिष्ट किया, जिस कारण उन्हें आसानी से तलाशा जा सका. खास इमेजिंग तकनीक की मदद से कैंसर युक्त कोशिकाओं और सामान्य कोशिकाओं के फर्क को समझने लायक इसे विकसित किया गया.

कैंसर कोशिकाओं को कैप्चर करने में मददगार

परीक्षण के दौरान आश्चर्यजनक रूप से यह पाया गया कि डिवाइस इंप्लांट करने की दशा में न केवल इंप्लांट किये गये स्थान के आसपास मौजूद कैंसर कोशिकाओं को कैप्चर किया गया, बल्कि उसके शरीर में अन्य जगहों पर फैल रही कैंसर कोशिकाओं को भी कैप्चर किया गया.

शोधकर्ता पिछले काफी समय से इस शोध में जुटे हैं, ताकि कैंसर को शरीर में फैलने से पहले उसे समय रहते जाना जा सके, लेकिन ब्लडस्ट्रीम में सर्कुलेट होनेवाली कैंसर कोशिकाओं को डिटेक्ट कर पाना आसान नहीं.

इंसान में परीक्षण की तैयारी

इस अध्ययन के मुखिया और यूनिवर्सिटी आॅफ मिशिगन के डिपार्टमेंट ऑफ बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर लोनी शिआ का कहना है कि इंसानों में भी इसके परीक्षण की तैयारी की जा रही है.

उन्होंने कहा कि हम यह देखना चाहते हैं कि जिस तरह से चूहों में इस स्पंज को इंप्लांट करने से मेटेस्टिक सेल्स को समझने में मदद मिली है और नतीजे आये हैं, क्या इंसानों में इंप्लांट करने की दशा में ऐसे ही नतीजे आयेंगे. साथ ही यह भी जानने का प्रयास किया जायेगा कि क्या यह तरीका सुरक्षित साबित हो सकता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इसे समग्रता से समझने के लिए जानवरों पर इसका प्रयोग निरंतर जारी रहेगा.

कैंसर रिसर्च, यूनाइटेड किंगडम के साइंस इन्फोर्मेशन मैनेजर लूसी होम्स का कहना है कि कैंसर को समय रहते जानने की तत्काल जरूरत है, ताकि दुनियाभर में इसके फैल रहे मामलों को रोका जा सके. हालांकि, इस इंप्लांट सिस्टम को फिलहाल चूहों में ही आजमाया गया है, लेकिन इसके नतीजे अच्छे देखे गये हैं, जिससे उम्मीद की जा सकती है कि आनेवाले समय में मरीजों में कैंसर को फैलने से रोकने में कामयाबी हासिल हो सकती है.

ब्रेस्ट कैंसर से बचायेगी वैक्सिन

कैंसर के उपचार के लिए अब तक प्रभावी टीके का इजाद नहीं हो पाया है. लेकिन, हाल में एक अच्छी खबर यह आयी है कि ब्रेस्ट कैंसर के उपचार के लिए वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन द्वारा विकसित की गयी नयी वैक्सिन को मरीजों के लिए सुरक्षित माना जा रहा है. एक चिकित्सकीय शोध में इस बात के संकेत मिले हैं. ‘जर्नल क्लिनिकल कैंसर रिसर्च’ में बताया गया है कि प्राथमिक प्रमाणों के मुताबिक, यह टीका मरीजों के प्रतिरक्षा तंत्र के लिए सुरक्षित और कारगर है और कैंसर ट्यूमर का उपचार कर शरीर में इसके संक्रमण की गति को धीमा करने में सहायक है.

सर्जरी विभाग के प्रोफेसर और वरिष्ठ लेखक विलियम इ गिलैंडर्स के मुताबिक, स्तर कैंसर के 80 फीसदी मामलों में मैमाग्लोबीन नामक प्रोटीन की मौजूदगी का पता चला है, लेकिन यह दूसरे ऊतकों में इतना प्रभावी नहीं है. बताया गया है कि ब्रेस्ट कैंसर के इस नये टीके का कोई दुष्प्रभाव मरीजों में नहीं देखा गया है.

गिलैंडर्स ने उम्मीद जतायी है कि अब हम ब्रेस्ट कैंसर के ज्यादा से ज्यादा मरीजों का उपचार कर सकते हैं और वह भी संभावित रूप से दवा के दुष्प्रभाव के बिना. गिलैंडर्स और उनके साथी अध्ययन के नतीजों को देखते हुए बड़े पैमाने पर टीके के परीक्षण की योजना बना रहे हैं और ब्रेस्ट कैंसर के नये मरीजों पर टीके के प्रयोग पर भी विचार कर रहे हैं.

कैंसर ट्यूमर की भविष्याणी होगी 80 फीसदी सटीक

शरीर में पनप रहा कैंसर ट्यूमर सौम्य है या घातक, इसकी सटीकता को 80 फीसदी तक समझा जा सकता है. लखनऊ स्थित संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज के विशेषज्ञों ने इस दिशा में उम्मीद जतायी है.

‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस सिस्टम को ज्यादा से ज्यादा कारगर बनाने के लिए संस्थान के विशेषज्ञों ने मेडिकल इमेजिंग और डायग्नोसिस को एकीकृत करते हुए इलेस्टोग्राफी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया है. उल्लेखनीय है कि इलेस्टोग्राफी मुलायम ऊतकों की इलास्टिक प्रोपर्टीज यानी प्रत्यास्थ गुणों का नक्शा बनाती है और भारत में मेडिसिन के क्षेत्र में करीब यह एक दशक पहले आ चुकी है.

इंस्टीट्यूट की ओर से कहा गया है कि इसके लिए वह देशभर के डॉक्टरों को प्रशिक्षित करेगा, ताकि थायरॉयड और ब्रेस्ट ट्यूमर के इलाज में इसके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सके.

संस्थान में हाल ही में आयोजित सेकेंड एंडोक्राइन समिट के दौरान इस संबंध में व्यापक जानकारी देते हुए ऑर्गेनाइजिंग सेक्रेटरी प्रोफेसर्स सुशील गुप्ता और अमित अग्रवाल ने कहा कि यह तकनीक इस बात को समझने में मददगार साबित होगी कि ये ऊतक कठोर हैं या सॉफ्ट.

इससे शरीर में बीमारी की मौजूदगी या उसके लक्षणों को समझने के लिए डायग्नोस्टिक सूचनाएं मिलेंगी. उनका कहना है कि पाये गये तथ्यों से यह आकलन किया गया है कि मृदु ट्यूमर सॉफ्ट होते हैं, जबकि बीमारग्रस्त ट्यूमर्स अपने आसपास मौजूद उतकों से ज्यादा हार्ड होते हैं.

फिलहाल इस तकनीक से थॉयरायड और ब्रेस्ट कैंसर का इलाज मुमकिन हो सकता है. इतना ही नहीं, महज संदेह के आधार पर ट्यूमर हटाने का जो चलन है, उसमें भी कमी आयेगी. डॉक्टरों का कहना है कि सर्जरी करने के साथ बहुत से जोखिम और अनेक साइड इफेक्ट होते हैं. ऐसे में यह तकनीक कारगर साबित हो सकती है.

लखनऊ स्थित संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज की ओर से यह दावा किया गया है कि यह संस्थान इस तकनीक को लागू करनेवाला देश का पब्लिक सेक्टर का पहला मेडिकल सेंटर हो सकता है.

लखनऊ स्थित संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज के न्यूक्लियर मेडिसिन के एडिशनल प्रोफेसर डॉक्टर पीके प्रधान का कहना है कि भारत में प्रत्येक वर्ष थॉयरायड कैंसर के एक लाख नये मामले सामने आते हैं, जिनका इलाज किया जाता है. उनका कहना है कि एंडोक्राइन कैंसर के तहत आनेवाले थॉयरायड कैंसर के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं और इनके समय रहते पता चलने की हालत में बेहतर इलाज किया जा सकता है.

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