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बाजार की अनिश्चितता ने स्थिति को भयावह बना दिया
डॉ अविरल पोडेय कृषि अर्थशास्त्री, अनुग्रह नारायण सिंह समाज अध्ययन संस्थान, पटना बिहार के ‘किसान और कृषि’ अर्थव्यवस्था के मजबूत आधार हैं. बिहार को विकास के ऊंचे पायदान पर ले जाने के रास्ते इन्हीं खेतों और किसानों के प्रगति से होकर जाते हैं. कृषि से सम्बन्धित एक ‘अभिनव प्रयास’ बिहार को एक नये कीर्तिमान स्थापित […]
डॉ अविरल पोडेय
कृषि अर्थशास्त्री, अनुग्रह नारायण सिंह समाज अध्ययन संस्थान, पटना
बिहार के ‘किसान और कृषि’ अर्थव्यवस्था के मजबूत आधार हैं. बिहार को विकास के ऊंचे पायदान पर ले जाने के रास्ते इन्हीं खेतों और किसानों के प्रगति से होकर जाते हैं.
कृषि से सम्बन्धित एक ‘अभिनव प्रयास’ बिहार को एक नये कीर्तिमान स्थापित करने में मदद कर सकता है.पर आज भी बिहार में ‘अभिनव प्रयास’ के अभाव में एवं मौसम की अनिश्चितता और सिंचाई का पर्याप्त विकास न होने के कारण कृषि एक घाटे का सौदा साबित होती जा रही है. कृषि उत्पादों के बाजार की अनिश्चितता ने स्थिति को और भयावह बना दिया है.
बिहार में कार्यकारी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा (ग्रामीण पुरूष कार्यकारी जनसंख्या का 65 प्रतिशत एवं महिला कार्यकारी जनसंख्या का 83 प्रतिशत) कृषि कार्य में लगा हुआ है.
किन्तु कृषि का बिहार के सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा 15 प्रतिशत के आसपास है. कृषि क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति निम्न आय सृजन क्षमता ने बिहार में कृषि में निजी निवेश को भी प्रभावित किया है. वहीं वर्ष 2015-16 के बजट आबंटन में बिहार में कृषि विभाग को कुल योजना व्यय का लगभग 4.1 प्रतिशत ही है.
सहकारी संस्थाओं की दुर्दशा ने भी बिहार के किसानों एवं कृषि वित्त की दुर्दशा को और भी बढ़ाया है. वहीं निम्न पश्चवर्त्ती सम्बन्ध (औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादन को खेती में इस्तेमाल) एवं अग्रणी सम्बन्ध (कृषि उत्पादन का उद्योगों में प्रयोग) ने कृषि पर निभर जनसंख्या को और प्रभावित किया है.
वर्तमान में कृषि पर कार्यकारी जनसंख्या की बढ़ती निर्भरता बिहार के कृषि क्षेत्र के लिए एक चुनौती है. एक अनुमान के अनुसार वर्त्तमान मे 14,34,2557 कार्यकारी जनसंख्या कृषि क्षेत्र में कार्यरत है, जो कि 2051 तक बढ़कर 28,76,9460 हो जायेगी.
2010-11 के कृषि गणना के अनुसार भारत में बिहार दृसरा सबसे बड़ा परिचालन भूमि ( 16.19 मिलियन) वाला राज्य है.
जहां तक जमीन के जोत आकार का प्रश्न है, वह 2010-11 के कृषि गणना के अनुसार बिहार मे कुल उपलब्ध भूमि का 57 प्रतिशत हिस्से में जोत का आकार एक हेक्टेयर से भी कम है. कुल कृषि भूमि का 57 प्रतिशत भाग ही सिंचित है तथा फसल सघनता 136 प्रतिशत के आस-पास है.जबकि हरियाणा, पंजाब और पश्चिम बंगाल में फसल सघनता 180 प्रतिशत से भी अधिक है.
प्रति व्यक्ति उत्पादन के दृष्टिकोण से 2013-14 में बिहार का स्थान चावल में 22वां, गेहूं में 11वां, मोटे अनाजों में 17वां, दाल में 22वां, तिलहन में 20वां एवं गन्ना में 12वां है. बिहार में चावल, गेहूं, बाजरा की उत्पादकता भारत के औसत से भी कम है. वहीं मक्का, दाल, तिलहन की उत्पादकता भारत के औसत से अधिक है. इसके बावजूद बिहार में 90 प्रतिशत से अधिक कृषि भूमि का उपयोग केवल खाद्यान्नों के उत्पादन में प्रयोगरत है.
वही स्टेट ऑफ इंडियन एग्रीकल्चर रिपोर्ट 2012-13 के अनुसार अभी भी बिहार में एपीएमसी एक्ट (2003) को लागू न करने के कारण विपणन में सुधार वांछित है.
बिहार की कृषि को लाभदायक बनाने के लिए उत्पादकता में सुधार के साथ-साथ, विपणन, अनाजों का भंडारण एवं वितरण में और अधिक सुधार करने की आवश्यकता है.
लेकिन उत्पादकता को बढ़ाने के चक्कर में हमें प्राकृतिक संसाधनों के दुरूपयोग को भी प्रेरित नहीं करना है. इसके लिए हमें अनुकुलतम उत्पादन के स्तर को चुनना होगा जो न केवल ‘खाद्य सुरक्षा’ को सुनिश्चित करने योग्य हो बल्कि उद्योगों की मांग के अनुसार भी हो.
साथ ही कृषि के ‘श्रम प्रधान’ प्रकृति को भी बचाये रखने योग्य प्रयास करनी होगी अन्यथा एक बड़ी कार्यकारी जनसंख्या बेरोजगारी के विवशता में प्रवास को बाध्य होगी.
बिहार में कृषि विकास को सुनिश्चित करने में पांच कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी- बीज, पोषण (मृदा), सिंचाई, वित्त और विपणन. इसके बगैर कृषि क्षेत्र की सूरत तेजी से नहीं बदलेगी, जिसके बिहार को आज जरूरत है.
सूखे सहनीय एवं कम सिंचाई वाले बीजों की उपलब्धता एवं जैविक खाद का उपयोग कृषि के सतत् विकास के लिए आवश्यक है.
इसके लिए कृषि अनुसंधान पर और अधिक बल दिये जाने की आवश्यकता है. गाँवों मे बिजली की उपलब्धता एवं सिंचाई उपकरणों पर सब्सिडी की उपलब्धता बिहार की कृषि एवं बिहार को आत्मनिर्भर बना सकती है.
वहीं वर्षा सिंचित क्षेत्रों में ‘वाटरशेड कार्यक्रम’ को सही रूप में जनचेतना के साथ विकसित करना होगा. साथ ही साथ शुष्क क्षेत्रों में ‘दाल’ एवं ‘पशुचारे’ के उत्पादन को प्रेरित करना होगा एवं अन्य क्षेत्रों में कृषि विविधता को भी प्रेरित करने की आवश्यकता है.
सिंचाई की सुविधा बढ़ाकर निवल एवं कुल बोया क्षेत्रों में महत्वपूर्ण वृद्घि संभव है क्योंकि आज भी बिहार में निवल बोया क्षेत्र 60 प्रतिशत से नीचे है.
कृषि को श्रम प्रधान बनाये रखने हेतु पोस्ट हार्वेस्ट यंत्रीकरण को बढ़ावा देना होगा. कोल्डस्टोरेज, यातायात एवं खाद्य प्रसंकरण उद्योगों को बढ़ावा देकर कृषि के अग्रणी संबंधों को मजबूत करने की आवश्यकता है.
इन संबंधों के द्वारा कृषकों की आय को सुनिश्चित किया जा सकता है. कॉपरेटिव सोसायटी के सुदृढ़िकरण एवं कृषि बीमा की उपलब्धता बढ़ाकर कृषि वित्त की समस्या का समाधान किया जाना चाहिए.
अनाज भण्डारण के नये तकनीक जैसे- ‘स्टील सीलो’ एवं ‘जनवितरण प्रणाली’ में सुधार लाकर कृषि विपणन में सुधार किया जा सकता है. भू-सुधार जो कि अभी भी मील का पत्थर है को सुनिश्चित करके ही बिहार में कृषि एवं संपूर्ण बिहार को सुखमय बनाया जा सकता है.
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