भारत का पता नहीं लेकिन पाकिस्तान में हर वो शख़्स जो घरेलू चखचख, लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर होने वाली टकटक, राजनीति की पकपक और मीडिया की बकबक से परेशान है कुछ देर के लिए सही मगर दिमाग़ ठंडा रखने के लिए और कुछ नहीं तो इन दिनों ‘बजरंगी भाईजान’ देखने के लिए सिनेमा हॉल में घुस जाता है.
अंदाजा लगाएं कि कराची प्रेस क्लब में ये पहली भारतीय फ़िल्म थी जो दिखाई गई और देखने वालों में असली चाँद नवाब भी थे.
सिनेमा जाओ तो तीसरा हफ़्ता शुरू होने के बावजूद टिकट बाबू कहता है कि कहो तो पाँच दिन बाद का दे दूँ. लिहाज़ा हम सात दोस्तों को शनिवार रात के शो की टिकट मिली और रात एक बजे भी हाल खचाखच भरा हुआ था.
आदमी से मुखातिब आदमी
फ़िल्म देखने के बाद हममें से एक ने पंडित बनने की कोशिश की, ‘अरे यार इन हिन्दुस्तानियों को कुछ पता ही नहीं…भला बताओ समझौता एक्सप्रेस के डिब्बों पर तो ताला लगाया जाता है ताकि कोई यात्री नीचे न उतर सके फिर मुन्नी ट्रेन से नीचे कैसे उतर गई.’
हम सबने उसे घूरते हुए कहा कि चुप, ख़ुद तो बना नहीं सकते, दूसरे बनाते हैं तो कीड़े निकालते हो.
दिल्ली हो या इस्लामाबाद, सब ढिंढोरा पीटते हैं कि ‘पिपल टू पिपल कान्टैक्ट’ होना चाहिए, वीज़ा आसान होना चाहिए, जितने लोग आपस में मिलेंगे उतनी ही ग़लतफ़हमियाँ कम होंगी.
मगर जिनके पास इंटरनेट की सुविधा नहीं, उन करोड़ों लोगों को ना तो पुस्तक, अख़बार और न्यूज़ चैनल यहाँ देखने को मिलता है, ना वहाँ पर. पीपल टू पील कॉन्टैक्ट का जरिया सिर्फ़ फ़िल्म ही रह जाती है.
शायर जॉन एलिया ने कहा है, "एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक बात कही नहीं गई, बात सुनी नहीं गई."
कल्पना से फूटेगी असलियत
बजरंगी भाईजान की कहानी आज के दिन में तो एक कल्पना ही लगती है लेकिन कल्पना ही तो वो बीज है जिससे असलियत फूटती है.
इसीलिए तो दोनों तरफ़ की जनता तीसरे हफ़्ते सिनेमा हॉल की ओर उमड़ रही है. कोई आशा, उम्मीद तो है जो पब्लिक को यूँ खींच रही है.
शायर फ़ैज अहमद फ़ैज ने कहा है, "बला से हम ने देखा तो और देखेंगे, फरोगे-गुलशनो-सौते-हज़ार का मौसम"
पहले आमिर ख़ान की पीके और अब बजरंगी भाईजान. थैक्यू कबीर ख़ान, सलमान ख़ान, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और प्यारी सी मुन्नी हर्षाली मल्होत्रा.
मेरी दुआ है कि ये टीम अपनी अगली टीम अपनी असली लोकेशन पर शूट कर सकें…अस्सलाम वलेकुम, जय बजरंग बली.
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