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अविश्वसनीय है बाबा आमटे की स्मृति
– हरिवंश – अमेरिका के न्यूजर्सी में एक स्वजन के घर बैठा, भारत की खबरें देख रहा था कि बाबा आमटे के निधन की सूचना मिली. जानता तो उन्हें धर्मयुग में काम करने के दिनों से था. पर उनका स्नेह मिला, रविवार में काम करते हुए.आनंदवन (चंद्रपुर, महाराष्ट्र) में उनके साथ रहना हुआ. फिर जब […]
– हरिवंश –
अमेरिका के न्यूजर्सी में एक स्वजन के घर बैठा, भारत की खबरें देख रहा था कि बाबा आमटे के निधन की सूचना मिली. जानता तो उन्हें धर्मयुग में काम करने के दिनों से था. पर उनका स्नेह मिला, रविवार में काम करते हुए.आनंदवन (चंद्रपुर, महाराष्ट्र) में उनके साथ रहना हुआ. फिर जब पूरब-पश्चिम (अरुणाचल से द्वारका) भारत-जोड़ो यात्रा उन्होंने (ईटानगर-द्वारिका) शुरू की तो कलकत्ते से बुलाया. डिब्रूगढ़ से गुवाहाटी तक की यात्रा में साथ रहा. मनुष्य के संकल्प, पवित्रता और ऊंचाई के प्रतीक थे, बाबा.
यह लेख आनंदवन से लौट कर 1985 के आसपास रविवार में लिखा था. पुन: उनकी स्मृति में इसे छाप रहे हैं, ताकि लोग जानें कि मनुष्य की ऊंचाई और महानता क्या है?
जब राष्ट्रीय जीवन पाखंड, पराजय, पाशविकता का पर्याय बन जाये, छल, कपट और ओछापन विश्वास को खंडित कर दें, मनुष्य की सृजनतात्मक क्षमता पर संहार-विनाश के बादल मंडराने लगें, मानवीय संवेदना कुंठित, खंडित और विगलित हो जाये, साहस और संकल्प का क्षय हो जाये, तब भी क्या इस ओर नैराश्य की आंधी में कोई दीप टिमटिमाता रह सकता है? साहस और संकल्प के बल उस अंधेरे की चुनौती को सहजता से स्वीकार कर सकता है?
सामाजिक रुग्णता-अपसंस्कृति के खिलाफ तन कर खड़ा हो सकता है? अपने अखंड आत्मविश्वास की लौ से अंधकार के लिए चुनौती बन सकता है? भय, अविवेक, संकल्पहीनता और निरुद्देश्य हिंसा को अकेले अपने पौरुष से ललकार सकता है? देश पर छाये घटाटोप अंधेरे के विरुद्ध अकेले जिहाद छेड़ सकता है? पिछले कुछ वर्षों से ये यक्ष प्रश्न राष्ट्रीय मानस में तैर रहे हैं, लेकिन राजनीति के गलियारे से किसी युधिष्ठिर की आवाज नहीं गूंज रही है, किसी गांधी, लोहिया, जेपी, साने गुरुजी जैसे विराट व्यक्तित्वों की आहट नहीं मिल रही, फिर भी इस बियाबान में सृजनशील (समाज सेवा) क्षेत्र से, संकल्प की प्रतिमूर्ति बाबा आमटे की अकेली आवाज और अंधेरे से निकलने का उनका आवाहन एकमात्र आशा व विश्वास का चिराग है.
बाबा, जिनमें हजारों वर्ष की भारतीय मनीषा, करुणा, मैत्री, संकल्प और साहस का समागम है. गांधी, लोहिया, जेपी और साने गुरु जी की सौम्यता, कल्पनाशीलता, जिजीविषा और देवत्व मुखर हैं बाबा के संकल्प-पुष्ट व्यक्तित्व में.
अविश्वसनीय है, बाबा आमटे की कहानी
तकरीबन 40 वर्षों पूर्व की बात है. चंद्रपुर (महाराष्ट्र) के वरोडा तहसील से कुछ दूर पथरीली, ऊबड़-खाबड़ जमीन में निचाट जंगल था, पानी उपलब्ध नहीं था. बाघ, तेंदुए और खतरनाक जंगली जानवर स्वच्छंद विचरते थे.
अनुपजाऊ जमीन थी. खतरनाक सांप फुफकारते थे. बिच्छुओं की भरमार थी. इसी जंगल में कुछ कुष्ठ रोगियों, एक लंगड़ी गाय, और 14 रुपये की कुल जमा पूंजी लेकर बाबा आमटे ने ‘आनंदवन’ की स्थापना की थी.
वही आनंदवन! आज स्वर्ग बन गया है. हरा-भरा, लहलहाते खेत, करीने से तराशे गये फूल-पौधे, पेड़ों पर अद्भुत हरीतिमा और हर तरफ खिले हुए फूल. बाबा कहते हैं ‘आनंदवन में आउटकास्टलैंड पर आउटकास्ट लोग’ (बहिष्कृत जमीन पर बहिष्कृत लोग) रहते हैं.
अजेय संकल्प और दृढ़ इच्छाशक्ति के धनी बाबा आनंदवन बसाने से पहले ही अपने जीवन में अनेक अविश्वसनीय प्रयोग कर चुके थे. बचपन से ही विलक्षण और लीक से हट कर सोचने-करनेवाले बाबा का जन्म 1915 में एक धनाढ्य जमींदार परिवार में हुआ. लाखों की जागीरदारी और घर-बार. उन दिनों नागपुर में वह फिटन गाड़ी से कॉलेज जाया करते थे. पढ़ाई के बाद वकालत आरंभ की.
मन नहीं रमा. उन्हें बार-बार यह बात खटकती थी कि एक व्यक्ति पांच मिनट परामर्श के लिए सैकड़ों रुपये लेता है, दूसरा हाड़तोड़ परिश्रम के बाद भी भरपेट रोटी नहीं पाता. उन्हीं दिनों वरोडा नगरपालिका के बाबा उपाध्यक्ष हुए. मैला ढोनेवाले अपनी पीड़ा लेकर उनके पास पहुंचे. भंगियों ने बाबा से कहा कि हमें रात में संडास साफ करने का हुक्म मिला है. लेकिन हमें इसके लिए कुछ भी अतिरिक्त भुगतान नहीं हो रहा.
हम मुकदमा लड़ना चाहते हैं. बाबा ने कहा कि वे खुद एक साल मैला ढोयेंगे, बाद में मुकदमा लड़ेंगे. हड्डियों को भेदनेवाली सर्दी हो या मध्य भारत की भयानक गरमी, बाबा बिना नागा हुए मैला ढोते रहे. यह उन दिनों की बात है, जब बाबा कथित भद्र लोगों की बस्ती छोड़ कर कब्रिस्तान में चले गये थे, सपरिवार कब्रिस्तान में ही रहने लगे थे.
आरंभ में ही उन्होंने जीवन को चिर नवीन और जीवंत बनाने का संकल्प लिया. हर क्षण को बाबा नित नूतन मानते हैं, आज भी वह कहते हैं, ‘संसार के हर क्षण को, एक दिन और हर दिन को उम्र जान कर जीना चाहिए’.
उनका जीवन अदभुत प्रयोगों की कहानी है. शराब छक कर पी, फिर हमेशा के लिए मुंह मोड़ लिया. लगातार बारह वर्षों तक मांसाहार किया. फिर ईश्वर की तलाश में हिमालय की गुफाओं में दर-दर की ठोकरें खायीं. ‘गीतांजलि’ का मर्म समझने के लिए बांग्ला सीखी. गुरुदेव के शांतिनिकेतन भी गये. गायिका मुमताज को सुनने के लिए 15 वर्ष की उम्र में कलकत्ता भाग गये. हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री गे्रटागार्बो से पत्राचार हुआ, फिर हमेशा के लिए दोनों मित्र बन गये.
एक शादी में शरीक हुए तो एक बूढ़ी कामगार दाई की सेवा करते हुए एक युवती को देख कर उस पर रीझ गये. फिर प्रेम विवाह किया. गुंडों के छुरे भी खाये. विवाह के दिन पूरे शरीर पर पियां बंधी हुई थीं. जबलपुर में गोरे सिपाहियों ने एक युवती को बलात् अपने डिब्बे में खींच लिया, बदतमीजी की. गाड़ी स्टेशन से सरक रही थी. दौड़ कर बाबा उस डिब्बे में लटक गये. गोरे सिपाहियों ने बंदूक के कुंदों और लात-हाथ से बाबा की जम कर धुनाई की, लेकिन बाबा ने गाड़ी आगे बढ़ने नहीं दी.
चेन खींच कर उस युवती की रक्षा की. हैदराबाद में दंगाई जान कर पुलिस ने बाबा की इतनी पिटाई की कि वे बेहोश हो गये. 1933 में क्वेटा (अब पाकिस्तान में) बड़ा भूकंप आया. लोगों की पीड़ा और विनाश से सिहर कर बाबा वहां भी राहत कार्य करने पहुंच गये. परतंत्र भारत में क्रांतिकारियों से भी जुड़े. उन्हें शस्त्र उपलब्ध कराने का जोखिम लिया और जेल भी गये.
अंगरेज सिपाहियों से युवती को अकेले बचाने की घटना गांधी जी तक पहुंची. बाबा के अद्भुत साहस-पराक्रम से गांधी जी अवाक् रह गये. उन्होंने बाबा को ‘अभय साधक’ की संज्ञा दी. बाबा मूलत: श्रमर्षि हैं. श्रमर्षि बाबा आमटे के जीवन में अनेक ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उनके जीवन को नया मोड़-अर्थ दिया है.
जब वह वरोडा नगरपालिका के उपाध्यक्ष रहते हुए भी मैला ढोते थे, उन दिनों की बात है. बरसात की एक अंधेरी रात थी. सुनसान सड़क के किनारे से वह गुजर रहे थे. अचानक रिरियाने-मेमियाने की आवाज सुन कर बाबा ठहर गये. भय तो उन्हें छू भी नहीं पाया है. वहां विकृत आकृति के मुंह से अस्फुट स्वर निकल रहे थे. गौर से निहारा तो वह सन्न रह गये. रोंगटे खड़े हो गये. उस आकृति के पास कुछ भी साबुत नहीं था. न हाथ, न पांव, न नाक और न आंख. वह मांस का लोथड़ा भर था. संपन्न ब्राह्मण कुल में जनम कर भी बाबा भंगियों के साथ मैला ढोने में नहीं हिचके. बचपन में ही अछूतों के साथ खाना खाया. हल गलित वर्जना को चुनौती के रूप में स्वीकार किया.
अनेक जानलेवा कठिनाइयों से वह रू-ब-रू हुए, लेकिन इस जीवित लाश को देख कर ‘अभय साधक’ बाबा सिहर गये. आत्म विवेचन किया. उनके मन ने धिक्कारा कि महात्मा जी ने तो तुम्हें ‘अभय साधक’ की उपाधि दी है, पर तुम भी उस मामूली मिट्टी के ही हो ना? लेकिन बाबा कहां झुकनेवाले.
उस रात के नये अनुभव ने बाबा का जीवन-दर्शन ही बदल दिया. उन्होंने नया संकल्प लिया. अपनी पत्नी और ममता की साक्षात प्रतिरूप साधना ताई से परामर्श कर दोनों कुष्ठ रोगियों की सेवा-सुश्रुषा में लग गये.
(जारी)
दिनांक : 02-03-08
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