समुद्र में अंधेरा था. किनारे से कुछ दूर समुद्र में लहरें उठ रही थीं, जो समुद्र के गर्भ से अपना सफेद, फेनिल चेहरा लिये ऊचीं उठतीं, फिर किनारे की ओर सरपट दौड़तीं और रेत को छूकर लौट जातीं. जहां वे उठती थीं, वहां उनका फेनिल चेहरा खिलखिलाता हुआ लगता था. फिर वे धीरज की तरह हहराती हुई किनारे की ओर ढह जातीं. समुद्र का अंधेरा उनके परे था. समुद्र दूर कहीं रात के आसमान में डूब रहा था. मगर क्षितिज नजर नहीं आता था, जो समुद्र और आसमान को बांट दे. ऐसा लगता था जैसे समुद्र ही दूरियों में कहीं उलट कर सिर पर टंग गया है.
आकाश में तारे नहीं थे. न चांद था. कुछ बादल थे.
मैंने तीन दशक पूर्व पहली बार समुद्र देखा था. धरती इतनी विराट है, यह मैंने समुद्र देखकर जाना. तभी मुझे नौकरी मिली और मेरी कस्बाई उदासी का दौर खत्म हुआ. एक महानगर मेरे सामने किसी क्रूर चमत्कार की तरह खुला जैसे समुद्र खुल रहा हो. फिर दोनों जैसे मेरे मन में गड्डमड्ड होने लगे. शायद यही कारण था कि मैंने अपनी प्रेमिका को पहली बार जुहू-तट पर चूमा था. ऐसा ही अंधेरे का मौसम था. बूंदें पड़ रही थीं.
जो इस वक्त मेरे साथ रेत पर चल रहा था, वह मेरा उन्हीं दिनों का दोस्त है- रजनीश. कुछ दिन हम अंधेरी में एक गेस्ट-हाउस के एक कमरे में एक साथ रहे थे. फिर मैंने विवाह किया था और अलग रहने लगा. जब मैंने नौकरी बदली, उसने अपनी नौकरी छोड़ दी थी. मैं नयी नौकरी और बीवी को लेकर कोलकाता चला गया था. ‘तुम क्या करोगे?’ मैंने उससे नौकरी छोड़ने पर पूछा था.
‘स्ट्रगल,’ उसने ठंडी जबान से कहा था.
‘कहां?’
‘फिल्म इंडस्ट्री में.’
मुझे मालूम था, वह लिखता है. उसकी कहानियां मैंने पत्रिकाओं में देखी थीं.
लेकिन फिल्मों में लिखने के लिए नौकरी छोड़ने का मतलब एक सट्टा था. जिसके पीछे दौलत का लालच था. उसका कहना था कि नौकरी से दस बरस में एक कमरे का फ्लैट भी मुश्किल होगा, जबकि फिल्मी सफलता का मतलब जुहू में बंगला होगा. कोलकाता से मुंबई मैं कभी-कभार काम से आता था और वह कभी चर्चगेट, कभी अंधेरी, कभी चौपाटी पर मिलता. मैं पूछता ‘क्या कर रहे हो?’
‘स्ट्रगल’.. वह हंसता.
पिछली बार जब उसने मुझे फिर यही जवाब दिया तो मैं फट पड़ा था. मैंने उसे बताने की कोशिश की थी कि सट्टा जीवन जीने का कोई शऊर नहीं है.
‘यह सट्टा नहीं है,’ उसने कहा,‘यह मेरा जीवन है.’
जब मैंने जिद की तो उसने फिर कहा ‘तुम क्या समझते हो कि एक अदद टुटपुंजिया नौकरी और बीवी-बच्चों के साथ उम्र गुजारना ही जीवन है?’
संकेत मेरी ओर था. उसने न नौकरी की थी, न शादी. यह भी सच है कि मुझे पहली बार अपनी जीवन-शैली पर संदेह हुआ था. मैंने अपनी नौकरी और परिवार को ही जहान समझ लिया था. मुझे लगता था कि अपनी प्रेमिका पाने और पिता होने और धरती देखने का सुख किसी शंहशाह के सुख से कम नहीं है!
मैंने सोचा नहीं था कि वह इस तरह मिल जायेगा. मैं कल मुंबई आया था और आज शाम जुहू-तट चला आया था. मैं उसके साथ रेत पर चलते हुए उसके बारे में सोच रहा था. हमारे चारों ओर नम समुद्री हवा थी. कुछ रोशनियां थीं. रेत पर दौड़ते घोड़े थे और बहुत-से जोड़े थे, जो हाथ-में-हाथ डाले चुप थे या खिलखिला रहे थे.
‘क्या सोच रहे हो?’ उसने पूछा.
‘तुम्हारे बारे में.’
मुझे लगा कि उसकी आर्थिक स्थिति पहले की तरह अनिश्चित थी. यह उसके कपड़ों से जाहिर था. उसकी घिसी और फटी और गंदी जींस के लिए तो फैशन का बहाना था, मगर बदरंग कमीज के लिए कोई बहाना नहीं था. इससे भी ज्यादा हैरत की बात यह थी कि ये जवानों का लिबास उसे फब रहा था. न मेरी तरह उसके तोंद थी, न चेहरे पर झुर्रियां और न बाल सफेद थे. खैर, बालों पर तो खिजाब लग सकता था, लेकिन तोंद और झुर्रियां? मेरा हमउम्र होने के बावजूद वह मुझसे दस साल छोटा लगता था.
हम रेत पर चल रहे थे. गरजता हुआ सागर हर कदम पर साथ चल रहा था. उसने दूसरी बार मुझसे पूछा था, ‘क्या? क्या सोच रहे हो मेरे बारे में?’ वह मुझे बता चुका था कि वह एक रात्रि-पाठशाला में पढ़ाता है और उसी से दाल-रोटी चलती है. दिन में वह ‘संघर्ष’ करता था. मैं मध्यवर्गीय नौकरी और परिवार चलानेवाला आदमी कला का संघर्ष क्या जानूं? वह जब संघर्ष का जिक्र करता, तो उसका मतलब यही होता था.
‘कुछ काम बना?’ मैंने पूछा.
‘बस डियर, अगले माह पक्का हो जायेगा. एक जगह संवाद की और दूसरी जगह पूरी फिल्म की बात चल रही है. ’ यही बात सुनते-सुनते मैं अब बूढ़ा हो गया था. मगर वह यही बात बरसों से हर बार मुझे कह रहा था और बूढ़ा नहीं हो रहा था. उसकी आवाज में वही उम्मीद और रोशनी थी.
सागर का अंधेरा फिर गरजा
हल्की-हल्की बूंदें आकाश में गिरीं. हम चलते रहे. हम सागर के इतने नजदीक थे कि वहां किनारे की दुकानों या ठेलों का प्रकाश नहीं आ पाता था, अलबत्ता सागर का अंधेरा जरूर था. हम रेत पर चुपचाप चल रहे थे . एकाएक मैंने देखा कि समुद्र की ओर लौटती लहर के पास मैं खड़ा हुआ एक लड़की को चूम रहा था! जब रजनीश ने मेरी बांह पर हाथ रखा तो मैंने जाना कि मेरे और सागर-चुंबन के बीच एक जमाना गुजर गया था.
एक युवा युगल बरसते मेह में सागर की अंधेरी आवाजों के बीच एक -दूसरे को चूमता मौन रेत पर खड़ा था.
जैसे हम सागर-चुंबन का सम्मान कर रहे हों, हम कुछ दूर हट कर दूसरी ओर निकल गये. मेह बरस रहा था. समुद्र चीत्कार रहा था. बादल गरजा जैसे समुद्र के गर्भ से आवाज उठी हो. बिजली की तड़पती रेखा अचानक आकाश को चीर कर सृष्टि के आरपार निकल गयी. मुझसे एक बार पलटे बिना रहा न गया. मैंने देखा कि रेत जहां चूमता जोड़ा खड़ा था, एक बार चमकी. युगल अविचल खड़ा रहा. जिस क्षण बिजली चमकी थी, पगलाया समुद्र और चुंबन-रत युगल और आकाश और रेत-सब दीप्त हो गये थे. फिर एकाएक अंधेरे का परदा दृश्य पर झिलमिलाया.‘जब बादल गरजा,’ रजनीश ने कहा ‘तो मुझे लगा जैसे समुद्र गरजा हो.’‘मुझे भी यही लगा.’ मैंने कहा ‘ हालांकि फर्क क्या है? बादल समुद्र की छाया है.’ चुप्पी छा गयी. आकाश और समुद्र मौन हो गये. केवल रेत पर हमारे कदमों की आवाजें थीं. सर्र सर्र . मैंने वर्षा की बूदों की ओर कान लगाये. तभी सागर उछलता हुआ किनारे की रेत पर आ गया. जहां हमारे पैर चल रहे थे. रजनीश अपने भीगते पैरों की ओर देखते हुए हंसने लगा. फिर वह एकाएक चुप हो गया. उसकी नजरें अब समुद्र की ओर थीं.
‘कितना अंधेरा है’ उसने कहा, ‘जैसे अंधेर का समुद्र हो.’ ‘यह समुद्र का अंधेरा है’ मैंने कहा. शायद बूंदे कुछ बड़ी हो रही थीं, हमारे कदम कुछ तेज हो गये थे. ऐसा लगा जैसे अचानक समुद्र का सुर ही कुछ तेज हो गया है. लहरें कुछ और ऊंची हो गयी थीं. उनकी उज्जवल हंसी कुछ तीखी थी. यदि इस क्षण कोई समुद्र को भीतर से न थामे हो, तो समुद्र उछल कर कहीं और जा सकता था. ‘समुद्र को कौन थामेगा?’ मैंने पूछा, ‘अंधेरा’, रजनीश हंसा, ‘जो हमें थामे है.’
हम अंधेरे के बारे में क्या बातें करते? जब हम विदा हुए , मैंने उसकी सफलता की कामना की.
(‘पचास बरस का बेकार आदमी’ संग्रह से साभार)