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‘जीन’ से निर्धारित होता है इंसान का संपूर्ण जीवन!

किसी इंसान के स्वभाव, उसकी पसंद-नापसंद समेत ज्यादातर गतिविधियों के लिए आप किसे जिम्मेवार मानते हैं? वैज्ञानिकों ने लंबे शोध अध्ययन के आधार पर इसके लिए हमारे ‘जीन्स’ को सर्वाधिक जिम्मेवार ठहराया है. इस शोध में हमशक्ल जुड़वां भाइयों की आदतों और स्वभाव में व्यापक समानता देखी गयी है. क्या कहती है नये अध्ययन की […]

किसी इंसान के स्वभाव, उसकी पसंद-नापसंद समेत ज्यादातर गतिविधियों के लिए आप किसे जिम्मेवार मानते हैं? वैज्ञानिकों ने लंबे शोध अध्ययन के आधार पर इसके लिए हमारे ‘जीन्स’ को सर्वाधिक जिम्मेवार ठहराया है. इस शोध में हमशक्ल जुड़वां भाइयों की आदतों और स्वभाव में व्यापक समानता देखी गयी है. क्या कहती है नये अध्ययन की रिपोर्ट, क्या है जीनोम और मानव जीनोम परियोजना सहित इससे जुड़े जरूरी पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का नॉलेज..
दो जुड़वां भाइयों की कहानी पर आधारित ऐसी कोई फिल्म आपने जरूर देखी होगी या उपन्यास पढ़ा होगा, जिसमें दोनों भाई बचपन में बिछड़ जाते हैं. फिल्म में आपने यह भी देखा होगा कि दोनों जुड़वां भाई जब बड़े होते हैं, तो उनकी आदतें मिलती-जुलती होती हैं. हो सकता है आपने यह सोचा हो कि फिल्म के निर्देशक ने अपने मन से कहानी को कुछ इस तरह से गढ़ा होगा, जिसमें दोनों जुड़वां भाइयों के स्वभाव और आदतों में समानता हो. आपने शायद यह भी सोचा हो कि यह सिर्फ एक काल्पनिक कहानी में संभव है. लेकिन, वैज्ञानिकों ने इसे ‘जीन्स’ से जुड़ा मामला करार देते हुए कहा है कि वास्तविक रूप में यह मुमकिन है. इस नये शोध से जुड़े वैज्ञानिकों ने यह भी कहा है कि कहानियों, उपन्यासों और फिल्मों में जब दो जुड़वां भाई आपस में बिछड़ जाते हैं, तब उनकी आदतों में जिस तरह की समानताएं दर्शायी जाती हैं, वे हकीकत के काफी करीब होती हैं.
‘द गाíडयन’ के एक लेख में ऐसे ही दो भाइयों का जिक्र किया गया है, जो हकीकत में जुड़वां पैदा हुए थे. बिछड़ने के करीब 38 वर्षो के बाद नौ फरवरी, 1979 को ये दोनों जुड़वां भाई- जिम लेविस और जिम स्प्रिंगर- पहली बार जब आपस में मिले, तो दोनों ही बेहद नर्वस थे. दोनों के बीच जब बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा तो कुछ खास जानकारियों से रूबरू होने के बाद दोनों ही हक्का-बक्का रह गये थे.
दरअसल, ओहियो स्थित अपने मूल परिवार से बिछड़ने के बाद दोनों का पालन-पोषण वहां से दूर अलग-अलग दिशाओं में, लेकिन समान दूरी (45 मील) पर एक अन्य परिवार में हुआ था. दोनों ही का पालन-पोषण करनेवाले परिवारों ने उनके नाम के साथ ‘जिम’ शब्द जोड़ा था. उनकी निजी जिंदगी में भी कई समानताएं पायी गयीं. मसलन- दोनों जुड़वा भाइयों की शादी दो बार हुई. उनकी पहली पत्नी का नाम लिंडा था और दूसरी का नाम बेट्टी. इतना ही नहीं, उन दोनों के बच्चों के नामों में भी कुछ हद तक समानता पायी गयी थी. इसके अलावा, रोजमर्रा की आदतों में भी अनेक समानताएं थीं.
अलौकिक समानताएं
‘लॉन्गवुड डॉट के12 डॉट एनवाइ डॉट यूस’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इन दोनों की इन्हीं आपसी समानताओं को देखते हुए संबंधित विशेषज्ञों ने ‘बिहेवियोरल रिसर्च’ के लिए इन्हें सर्वाधिक सटीक उम्मीदवार माना. विशेषज्ञों का मानना है कि समान लक्षणों वाले इन जुड़वां भाइयों के रूप में ऐसे पहले मामले को जाना गया, जिससे मानव व्यवहारों से जुड़े आनुवंशिक पहलुओं को समझने में मदद मिली.
दरअसल, इन दोनों में अलौकिक समानताएं थीं. दोनों ही को मैकेनिकल ड्राइंग और कारपेंटरी में दिलचस्पी थी और स्कूल के विषयों के रूप में दोनों को गणित में ज्यादा रुचि थी. यहां तक कि दोनों के धूम्रपान की मात्र और समय में भी गजब की समानता देखी गयी. आपको जानकर हैरानी हो सकती है कि इन दोनों को सिरदर्द भी एक ही समय होता था. वैज्ञानिकों का कहना है कि ये अद्भुत समानताएं उनके ‘जीन्स’ की वजह से हैं.
पसंद-नापसंद जीन्स से प्रभावित
दुनियाभर में जुड़वां और परिवार के संबंध में शोध करनेवाली प्रसिद्ध संस्था ‘मिनिसोटा सेंटर फॉर ट्विन एंड फैमिली रिसर्च’ के हवाले से ‘द गार्डियन’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हमारे लक्षणों में से 50 फीसदी से ज्यादा हमें विरासत में मिली होती हैं. इसमें आज्ञापालन से लेकर अधिकार, तनाव सहने से लेकर जोखिम उठाने की क्षमता तक शामिल हैं. हाल में किये गये संबंधित शोधकार्यो के नतीजों में यह भी पता चला है कि जब हम धर्म और राजनीति जैसी चीजों के बारे में सोचते हैं, तो उस समय हमारी पसंद और नापसंद बहुत हद तक हमारे जीन्स द्वारा ही निर्धारित होती है. यानी इन चीजों के बारे में हमारे सोचने का तरीका बहुत हद तक हमारे जीन्स से प्रभावित होता है.
हर गतिविधि के लिए दोषी जीन
हालांकि, बहुत लोग इन तथ्यों से परेशान हैं. ऐसे विचार जो हमारे जैविक बलों को अचेत करते हैं, हमारी मान्यताओं और क्रियाओं को हमें स्वच्छंदता से कार्य करने की राह में एक वास्तविक चुनौती के रूप में देख सकते हैं. इसलिए यह सोचना होगा कि हम उन चीजों को चुनें, जिनके बारे में हमने खुद पूरे होशो-हवास में विचार-विमर्श किया हो. लेकिन क्या हमारी सभी प्रकार की सोच अप्रासंगिक नहीं हो सकती, यदि हमारे द्वारा लिया जाने वाला आखिरी निर्णय हमारे जेनेटिक कोड में लिखा हो? और यदि हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि ‘मेरे जीन्स ने ही मुङो ऐसा करने को कहा’ तो क्या इसे हमारी अपनी व्यक्तिगत जिम्मेवारी के दायरे का ध्वस्त होना नहीं कहा जायेगा? इसलिए इन चीजों को व्यापक रूप से समझने के लिए हमशक्ल जुड़वां के व्यवहारों को नजदीक से परीक्षण किया गया.
प्रो टिम स्पेक्टर लंदन के किंग्स कॉलेज में पिछले 20 वर्षो से इसी मकसद से हमशक्ल जुड़वां का अध्ययन कर रहे हैं. 1990 के दशक के आरंभिक काल से जारी उनके इस शोध में उन्होंने इस बात के कई प्रमाण देखे हैं, जिस आधार पर उनका कहना है कि जुड़वां भाइयों या बहनों अथवा गैर-हमशक्ल जुड़वां के मुकाबले दो हमशक्ल जुड़वां लोगों के लक्षणों में ज्यादा समानता देखी गयी है.
हालांकि, समाज विज्ञानी इस तरह के विचार को नहीं मानते. दरअसल, समाज विज्ञानियों का मानना है कि जीन इस बात को निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण नहीं है कि हमारा व्यक्तित्व कैसा होगा. खासकर आइक्यू यानी बुद्धिमत्ता, व्यक्तित्व और मान्यता जैसी विवादास्पद चीजों के बारे में. लेकिन स्पेक्टर ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर समाज विज्ञानियों के विचारों को गलत साबित करने की कोशिश की है. इसके लिए स्पेक्टर ने जीन से जुड़ी अनेक चीजों का बेहद बारीकी से अध्ययन किया. हमशक्ल जुड़वां के मामले में उनकी दिलचस्पी ज्यादा थी और इसके अनेक रहस्यों को उन्होंने उजागर भी किया है.
हिंसा के लिए प्रेरित करनेवाला जीन!
कुछ दशक पहले तक जीन्स को हमारे स्वास्थ्य के बारे में समझने के लिए प्रमुख कारक नहीं माना जाता था. लेकिन, वैज्ञानिक प्रगति के मौजूदा दौर में इंसान के जीवन के आयाम से जुड़ी प्रमुख चीजों, मसलन- अपराधकर्म, निष्ठा, राजनीतिक अनुनय, धार्मिक विश्वास आदि- के लिए कोई न कोई जीन कारक माना जा रहा है. वर्ष 2005 में एक आपराधिक कारण में जीन को दोषी ठहराये जाने जैसी अनोखी घटना सामने आयी. वर्ष 2005 में हॉल काउंटी, जॉजिर्या के स्टीफन मोबले पर डोमिनोज पिज्ज के एक मैनेजर की हत्या का आरोप था. स्टीफन ने कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह तर्क दिया था कि इस हत्या का जिम्मेवार ‘मोनोआमाइन ऑक्सीडाज ए जीन’ में होनेवाला उत्परिवर्तन यानी बदलाव है. हालांकि, कोर्ट ने उसके इस साक्ष्य को नकारते हुए उसकी इस दलील को खारिज कर दिया था. लेकिन, अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि हिंसा को प्रेरित करने में ‘मोनोआमाइन ऑक्साइड ए जीन’ में होनेवाला बदलाव प्रमुख कारण है और शायद इसीलिए इसे ‘वारियर जीन’ कहा जाने लगा है.
क्या है जीनोम परियोजना
जीनोम परियोजना एक वैज्ञानिक परियोजना है. इसका मकसद किसी जीव के शरीर में मौजूद पूरे जीनोम अनुक्रम का पता लगाने से संबंधित है. दरअसल, जीन हमारे जीवन की एक अहम कड़ी हैं. हम वैसे ही दिखते या करते हैं, जो काफी हद तक हमारे शरीर में छिपे सूक्ष्म जीन तय करते हैं. इतना ही नहीं, जीन मानव इतिहास और भविष्य की ओर भी संकेत करते हैं. जीन वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि एक बार मानव जाति के समस्त जीनों की संरचना का पता लग जये, तो इंसान की जीन कुंडली के आधार पर उसके जीवन की समग्र जैविक घटनाओं और दैहिक लक्षणों की भविष्यवाणी करना मुमकिन हो पायेगा. हालांकि, यह आसान काम नहीं है, क्योंकि इंसान के शरीर में लाखों जीवित कोशिकाएं होती हैं. जीनों के इस विशाल समूह को ही जीनोम कहा जाता है.
‘ह्यूमेन जीनोम प्रोजेक्ट’
वर्ष 1990 में ‘ह्यूमेन जीनोम प्रोजेक्ट’ की शुरुआत की गयी. इसका मकसद मानव डीएनए के पूरे सिक्वेंस का नक्शा तैयार करना था. यह वह दौर था, जब लोग इस बारे में बेहद आशान्वित थे कि कैसे हमारे जीन्स हमारे बारे में पूरी जानकारी मुहैया कराते हैं. उस समय एक प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका के संपादक डेनियल कोसलैंड ने इस बात को समझने की कोशिश की थी कि जब वे लिखते हैं, तो उस समय उनका ‘मूड’ किस तरह का होता है. जीनोम प्रोजेक्ट के विज्ञान का लाभ बेहद स्पष्ट है. गहन अवसाद, अलजाइमर, सिजोफ्रेनिया और हार्ट डिजिज जैसी बीमारियां संभवत: मल्टीजेनिक हैं और इस प्रक्रिया को समझने पर इन बीमारियों के बारे में गहनता से जानना आसान हो सकता है. ये बीमारियां अब भी बहुत सी सामाजिक समस्याओं का कारण बनी हुई हैं. इस रिपोर्ट में इस बारे में यह उम्मीद जतायी गयी है कि जीन्स के माध्यम से सभी प्रकार की बीमारियों (मनोवैज्ञानिक बीमारी से लेकर शारीरिक बीमारी तक) के रहस्यों को उजागर किया जा सकेगा.
बिल क्लिंटन और टोनी ब्लेयर के बतौर अतिथि एक मंच पर मौजूदगी में ह्यूमैन बुक ऑफ लाइफ के पहले प्रारूप का विमोचन किया गया था, जिसमें इन चीजों के बारे में चर्चा की गयी थी. ह्यूमेन जीनोम प्रोजेक्ट के निदेशक फ्रांसिस कॉलिन्स के हवाले से इस रिपोर्ट में बताया गया है कि उन दिनों वे इन चीजों को लेकर ज्यादा सतर्क थे.
एक कार्यक्रम के दौरान ‘एबीसी’ को उन्होंने बताया था कि जीन्स की मैपिंग से एक नये युग की खोज होगी, जो प्रत्येक इंसान के जीवन को प्रभावित करेगा. इंसानों में विज्ञान, इतिहास, कारोबार, इथिक्स, धर्म और यहां तक कि चिकित्सा के संबंध में इसका असर देखा जायेगा.
जीन्स और लाइफस्टाइल से तय होती है जीवन संभाव्यता
क्या आपने कभी इस बारे में विचार किया या सोचा है कि दुनियाभर में बुजुर्गो यानी अत्यंत वृद्धों शामिल लोगों में ज्यादा संख्या महिलाओं की है? ऐसा पाया गया है कि सौ वर्ष से ज्यादा जीनेवाले लोगों में प्रत्येक आठ में से केवल एक ही पुरुष होते हैं, जबकि महिलाओं की संख्या सात होती है. हालांकि, कुल मिलाकर महिलाओं के मुकाबले पुरुषों की आबादी ज्यादा है, इसके बावजूद यह स्थिति है. सवाल यह पैदा होता है कि महिलाएं ज्यादा दिनों तक क्यों जीवित रहती हैं?
हालांकि, इसका कोई एक सटीक जवाब नहीं है, लेकिन ‘स्टार न्यूज ऑनलाइन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक विशेषज्ञों का मानना है कि जोखिम उठाने के तरीकों, जीन्स और लाइफ-स्टाइल के संयुक्त मिश्रण से यह जाना गया है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं ज्यादा अवधि तक कैसे जिंदा रहती हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि इस मामले में सबसे बड़ी भूमिका पुरुषों में 15 से 24 वर्ष के दौरान होनेवाली टेस्टोस्टोरेन की प्रक्रिया की है. महिलाओं में मौजूद एस्ट्रोजन उन्हें कई प्रकार की बीमारियों से बचाता है.
महिलाओं को कम बीमारियां
हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डॉ थॉमस पल्र्स और सी फ्रेट्स का कहना है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में करीब 10 वर्षो के बाद कार्डियोवैस्कुलर संबंधी बीमारियां विकसित होती हैं. इस मामले में जेनेटिक एक्स फैक्टर को भी प्रभावी समझा जाता है. महिलाओं में किसी प्रकार की जोखिम पैदा होने की स्थिति में एक अतिरिक्त एक्स क्रोमोजोम्स उन्हें बैकअप मुहैया कराता है. जबकि पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं होता है.
रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता महिलाओं में ज्यादा
बेल्जियम के शोधकर्ता क्लाउड लिबर्ट के हवाले से इस रिपोर्ट में बताया गया है कि अतिरिक्त जीन्स के माध्यम से महिलाओं को अतिरिक्त क्रोमोजोम्स मुहैया हो पाती है. इस कारण से रोगाणुओं और संक्रमण जैसे इम्यून सिस्टम पर होनेवाले हमलों को महिलाएं ज्यादा कारगर तरीके से ङोलने में सफल होती हैं.
वहीं दूसरी ओर, यूएनसीडब्ल्यू के प्रोफेसर स्टेकी कोलोमर्स का मानना है कि महिलाएं पुरुषों के मुकाबले इसलिए ज्यादा समय जीवित रहती हैं, क्योंकि वे अपना ख्याल पुरुषों से ज्यादा बेहतर तरीके से रखती हैं. उनका कहना है कि किसी तरह की शारीरिक अनियमितता यानी बीमारी जैसे हालात पैदा होने पर महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा तेजी से मेडिकल केयर करती हैं.

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