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उदारीकरण के समय में लोहिया का समाजवाद

आज हम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम सेनानी भगत सिंह का उनके 84वें शहादत दिवस पर और महान समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया का उनके 105वें जन्मदिवस पर स्मरण कर रहे हैं, तो यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि क्या ऐसा करना महज एक रस्म अदायगी भर है या हमारे वर्तमान व भविष्य के लिए […]

आज हम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम सेनानी भगत सिंह का उनके 84वें शहादत दिवस पर और महान समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया का उनके 105वें जन्मदिवस पर स्मरण कर रहे हैं, तो यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि क्या ऐसा करना महज एक रस्म अदायगी भर है या हमारे वर्तमान व भविष्य के लिए ऐसे महापुरुषों के जीवन, संघर्ष और संदेश की प्रासंगिकता को चिह्न्ति करने का भी एक अवसर है. एक ओर जहां सत्ता की विमुखता और उदारीकरण के दौर की मौजूदा विसंगतियों को दूर करने लिए शुचिता, न्याय और समता के व्याख्याकार डॉ राम मनोहर लोहिया के विचारों की आज बहुत जरूरत है, वहीं आर्थिक-सामाजिक विषमता की बढ़ती विकरालता और वंचितों को निरंतर हाशिये पर धकेले जाने की राजनीतिक प्रवृत्ति को चुनौती देने के लिए शहीद भगत सिंह के आदर्शो पर संघर्षो के सिलसिले की बुनियाद खड़ी करनी है.

डॉ राम मनोहर लोहिया के आलोचक कहते हैं कि आज जो कुछ हो रहा है, वही तो लोहिया चाहते थे. यानी लोहिया का समय आ गया है और आप उसे हर तरफ जातिवाद, सांप्रदायिकता और पूंजीवादी शोषण के प्रचार के रूप में देख सकते हैं! दूसरी तरफ, लोहिया के माननेवालों के लिए यह समय उन आदर्शो के ठीक विपरीत है, जिसे लेकर लोहिया जी रहे थे और जिसके आधार पर वे नया भारत और नया विश्व बनाना चाहते थे. लोहिया के आलोचकों में पूंजीवादी चिंतक तो हैं ही, जो कभी लालू प्रसाद तो कभी मुलायम सिंह और नीतीश कुमार का नाम लेकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं, लेकिन उससे कहीं कम उन साम्यवादी साथियों की संख्या नहीं है, जो भारतीय समाज की जातिगत संरचना की लोहिया की व्याख्या से असहमति जताते हुए यह सोचते थे कि वे वर्गीय सिद्धांतों के आधार पर इस समाज की व्याख्या करके वर्ग संघर्ष के माध्यम से सर्वहारा की तानाशाही कायम करके देश और दुनिया की सारी दिक्कतें दूर कर देंगे.

डॉ लोहिया का भारत विषयक सांस्कृतिक चिंतन अपनी जगह है, लेकिन उनके विचारों का असली जोर आर्थिक और सामाजिक सिद्धांतों पर है. आर्थिक सिद्धांतों में वे न सिर्फ पूंजीवाद के राष्ट्रीय शोषक चरित्र को पकड़ते हैं, बल्कि इस बात को विशेष तौर पर रेखांकित करते हैं कि साम्राज्यवाद उसकी जड़ में निहित है. यूरोपीय पूंजीवाद का सारा विकास एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिकी देशों के शोषण पर खड़ा है. यही व्याख्या वे अपने मशहूर लेख ‘इकोनॉमिक्स आफ्टर मार्क्‍स’ में प्रस्तुत करते हैं.

लोहिया की सारी चिंता मानव विकास की यात्र में बढ़ती असमानता है. वे मानते थे कि उसी असमानता से गुलामी और दमन का रास्ता साफ होता है और बाद में उसी से युद्ध की स्थितियां बनती हैं. लेकिन, उनकी खासियत यह थी कि विकास की इन स्थितियों की व्याख्या वे पूंजीवाद और साम्यवाद के प्रभावों से मुक्त होकर करना चाहते थे. इन्हीं अर्थो में वे कहते भी थे कि साम्यवाद तीसरी दुनिया पर यूरोप का आखिरी हमला है.

लोहिया की उन बातों को आज थॉमस पिकेटी की चर्चित पुस्तक ‘कैपिटल इन द ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी’ के माध्यम से देखेंगे, तो वे ज्यादा प्रासंगिक होंगी. थॉमस पिकेटी कहते हैं कि पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच 1917 से 1989 तक चले द्वंद्व बहुत सारी सच्चाइयां ढक गये थे, क्योंकि उन्हें पक्षपाती ढंग से देखा जाता था. अब जबकि दुनिया एक ही खेमे में सिमट गयी है, तो बहुत कुछ साफ होता जा रहा है. पिकेटी कहते हैं कि उदारीकरण के दौरान दुनिया में असमानता तेजी से बढ़ी है. भारत में इसका रिकॉर्ड अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज अपनी किताब ‘द अनसर्टेन ग्लोरी’ में पेश करते हैं. पिकेटी ने धन के इतिहास का विस्तृत तौर पर विवेचन करके बताया है कि धन का भंडार जितनी तेजी से बढ़ता है, उतनी तेजी से काम करनेवालों की आय नहीं बढ़ती. इसलिए दुनिया में आज जो आर्थिक ढांचा चल रहा है, उसमें असमानता बढ़नी ही है.

हालांकि, वे इस दावे को खारिज करते हैं कि दुनिया चीन की मुट्ठी में आनेवाली है और तमाम अमीर देश चीन के बुरी तरह कर्जदार हैं, लेकिन वे अमीर देशों के भीतर निजी पूंजी के विस्तार को बड़ा खतरा बताते हैं. पिकेटी कहते हैं कि निजी धन बहुत तेजी से बढ़ा है, विशेषकर अमीर देशों में इतनी तेजी से, जितनी तेजी से हमने सोचा था. इसी आधार पर वे चीन के खतरे को खारिज करते हैं. इसके बावजूद यह खतरा कोई छोटा नहीं है कि बड़ी मात्र में बेहिसाब वित्तीय परिसंपत्तियां कर मुक्त देशों में जमा हैं. इसकी मात्र वैश्विक जीडीपी के दस प्रतिशत से ज्यादा बतायी जाती है. पिकेटी यह भी कहते हैं कि इक्कीसवीं सदी के वैश्वीकृत पूंजीवाद में परिसंपत्तियों का पता लगाना बेहद मुश्किल हो गया है. इस तरह परिसंपत्तियों का बुनियादी भूगोल पता कर पाना कठिन हो गया है. ऐसे में गरीबों के लिए यह जानना जरूरी हो गया है कि परिसंपत्तियों का इतिहास और उनका भूगोल क्या है.

उदारीकरण के इस दौर में दुनिया के तमाम देशों पर करोड़पतियों और अरबपतियों के कब्जे का खतरा पैदा हो गया है. लोहिया की सारी चिंता इसी खतरे को लेकर थी. लोहिया साठ के जिस दशक में बेहद सक्रिय होकर जिये, वहां उनके सपने थे कि अगर देश में समाजवादी सरकार बनी तो देश का जो 27 करोड़ आदमी रोजाना तीन आने पर गुजर करता है, उसकी आमदनी हम आठ आने पर ले आयेंगे. आज अगर वे होते तो उसकी आमदनी को दो डॉलर यानी सवा सौ से डेढ़ सौ रुपये करने की बात करते.

परिसंपत्ति और आय की वृद्धि के फर्क को मिटाने के लिए डॉ लोहिया कहते थे कि कारखाने के नौकर और अफसर के वेतन में ज्यादा से ज्यादा दो या तीन गुने का फर्क होना चाहिए. अपने वक्त में ही उन्हें इस फर्क के दो हजार से तीन हजार गुना होने का अनुमान था और इसे वे बेहद अन्यायपूर्ण मानते थे. आज वह फर्क हजार नहीं, बल्कि लाखों गुने का है और जाहिर है वह अन्याय किस स्तर का है.

वे अपनी समाजवादी हुकूमत के एजेंडे का वर्णन इस प्रकार करते हैं- ‘यह याद रखना कि जो सरकार बनेगी, वह मजदूरों की, किसानों की, मध्यम वर्ग की या कलम घिसियों की सरकार होगी. उसमें नियंत्रण खाली यह रखना है कि जो मजदूर की और अफसर की तनख्वाह का अनुपात हो, वह न्याय वाला हो. इस बात पर ज्यादा ध्यान मत देना कि हमारी तनख्वाह बढ़ाओ, ध्यान इस बात पर देना कि जो बड़े हैं उनकी घटाओ.. आज जो कुछ मन में आ जाये करो, लेकिन जब समाजवादी हुकूमत आ जाये, तो उस वक्त मेहरबानी करके ध्यान रखना कि जो बड़े लोग हैं, उनकी सुविधा को हम घटाएं, ताकि इस रुपये को नये कारखाने और खेती वगैरह में लगा कर दौलत को बढ़ाएं और तब मजदूरों की तनख्वाह बढ़ाएं.’

इसके अलावा डॉ लोहिया कहते हैं कि महंगाई भत्ता वगैरह बढ़ाने के बजाय, चीजों के दाम स्थिर करने की कोशिश करनी चाहिए. अगर चीजों के दाम स्थिर करने की कोशिश हो, तो वह सारे राष्ट्र की चीज हो जायेगी. आज की वैश्विक आर्थिक स्थितियों को अगर हम देखें, तो दुनिया की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के पीछे बढ़ती महंगाई, गरीबों-मजदूरों की तनख्वाह में कटौती और अमीरों की आय में बढ़ोतरी बड़ा कारण है. हर तरफ इस विसंगति को दूर करने की बेचैनी है, लेकिन निजी धन इतना बढ़ गया है और बड़े पूंजीपतियों का राजनीतिक रसूख इतना बड़ा हो गया है कि इसे दूर किया नहीं जा रहा है.

लोहिया को इस दौर में समझने की एक और भूल की जा रही है उन्हें जातिवादी बना कर. वे वैसे नहीं थे. पिछले बीस वर्षो के उदारीकरण के दौर को एक तरफ पिछड़ों और दलितों का स्वर्ण युग बताया जा रहा है, तो दूसरी तरफ समाज में इन ताकतों के विखंडन की प्रक्रिया भी देखी जा रही है. वे ताकतें महज अस्मिता या परिवारवाद की राजनीति में उलझ गयी हैं, उनसे कोई व्यवस्थागत बदलाव प्रकट होता नहीं दिख रहा है. और तो और, वे ताकतें भ्रष्टाचार में भी उसी तरह से लिप्त हो गयी हैं, जिस तरह सवर्ण जातियां थीं.

शुचिता, न्याय और समता के व्याख्याकार एवं योद्धा डॉ राम मनोहर लोहिया की जरूरत आज इसलिए ज्यादा है कि वे उदारीकरण के दौर में उपजी विसंगतियों को दूर करें. लोहिया के सपने में एक समाजवादी राष्ट्रीय सरकार ही नहीं, बड़े मूल्यों पर आधारित एक वैश्विक सरकार भी थी. यह दौर लोहिया और उनके जैसे चिंतकों को सबसे ज्यादा याद करने और उनसे प्रेरणा लेने का है, तभी हमारा भविष्य संवरेगा और हम उदारीकरण की अनुदारता से मुक्त होंगे.

अरुण कुमार त्रिपाठी

‘समाजवाद, लोहिया और धर्मनिरपेक्षता’ पुस्तक के लेखक

उनके विचार आज ज्यादा प्रासंगिक हैं

आजादी के बाद देशी शासक भी भगत सिंह के विचारों से उतना ही भयभीत थे जितना अंगरेज. उन्होंने इन विचारों को जनता से दूर रखने की भरपूर कोशिश की. लेकिन आज भी जन-जन के मन-मस्तिष्क में उन बलिदानियों की यादें जिंदा हैं.

जाति और धर्म के तंग दायरे से ऊपर उठ कर देश और समाज के लिए सर्वस्व न्यौछावर करनेवाले भगत सिंह को आज फिर उन्हीं सीमाओं में बंद करने की साजिश हो रही है. कोई उन्हें पगड़ी पहना कर सिख बनाने का प्रयास कर रहा है, तो कोई उन्हें जाट जाति का गौरव बनाने पर तुला है. कोई उन्हें आर्य समाजी बता रहा है, तो कोई हिंदू. उनके क्रांतिकारी विचारों पर परदा डालते हुए उन्हें एक ऐसे बलिदानी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जैसे शमा पर जलनेवाला देशभक्त परवाना, जिसे यह बोध न हो कि वह क्यों अपने प्राण दे रहा है और जिसमें बस मरने का जज्बा और साहस-भर हो. ये प्रयास सामाजिक जड़ता को बनाये रखनेवाले, प्रगति और परिवर्तन के विरोधियों की साजिश नहीं, तो भला क्या है?

भगत सिंह और उनके साथियों का हमारे लिए सबसे बड़ा महत्व यह है कि वे महान क्रांतिकारी और विचारक थे. हमारे देश, समाज और मेहनती गरीब जनता के लिए उन क्रांतिकारियों के विचार आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं. अफसोस की बात यह है कि उनके विचारों के बारे में आज भी देश के ज्यादातर लोगों को कुछ खास पता नहीं है. भगत सिंह को याद करने का सबसे सही तरीका यही हो सकता है कि उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाया जाये. यही सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है.

वैसे तो जिंदगी के हर पहलू पर हमारे क्रांतिकारियों के विचार हमारे लिए प्रेरणास्पद हैं, यहां हम भारतीय समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता के बारे में भगत सिंह के दौर की स्थिति और उसे लेकर उनकी राय पर गौर करेंगे. जालियांवाला बाग कांड के बाद अंगरेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर तेजी से अमल शुरू किया और सांप्रदायिक हिंदू-मुसलिम नेता उनके हाथों का खिलौना बन गये. तब ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ नामक लेख में क्रांतिकारियों ने इस समस्या पर अपनी राय रखी- ‘भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है.. ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य अंधकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मो’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम किया है. और इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं.’

आजादी के बाद सांप्रदायिक राजनीति का उभार अंगरेजों के शासनकाल से भी तेज हुआ है. धर्मनिरपेक्षता केवल संविधान में ही सीमित है. वास्तविक राजनीति में धार्मिक उन्माद भड़का कर वोट बटोरने की नीति ही चल रही है. बहुसंख्यक हिंदू सांप्रदायिकता आज बेरोक-टोक अपने विषैले तने फैलाती जा रही है. असली समस्याओं- महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से हिंदुओं व मुसलमानों का ध्यान भटका कर, उनके बीच आतंक व असुरक्षा का माहौल बना कर, उनके हितैषी होने का भ्रम फैला कर वोट बटोरना ही कुछ पार्टियों का काम रह गया है.

भगत सिंह और साथियों ने अपने उक्त लेख में सांप्रदायिक नेताओं को निशाना बनाते हुए कहा था- ‘वही नेता, जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो समान राष्ट्रीयता और स्वराज के दमगजे मारते नहीं थकते थे, या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं, या धर्माधता के बहाव में बहे चले जा रहे हैं. लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.’

अगर मुजफ्फरनगर और देश के विभिन्न इलाकों में हाल के दिनों में करवाये गये दंगों पर निगाह डालें तो ये बातें आज पहले से कहीं ज्यादा सही लगती हैं. हिंदू-मुसलिम जनता को भड़काने और खून-खराबा करवाने के लिए जिन नेताओं की भूमिका को भगत सिंह और उनके साथियों ने रेखांकित किया था, वे आज पहले से कहीं अधिक खुल कर खेल रहे हैं.

दंगों का कारण और समाधान प्रस्तुत करते हुए उसी लेख में उन्होंने कहा था- ‘यदि सभी दंगों का कोई इलाज हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार है, क्योंकि भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा बेहद खराब है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांत ताक पर रख देता है. मरता क्या न करता.. लेकिन, वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना कठिन है, क्योंकि सरकार विदेशी है, जो लोगों की स्थिति सुधरने नहीं देती. इसलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए.

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है. गरीब मेहनतकशों और किसानों को समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बच कर रहना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता के भेदभाव मिटा कर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो. इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, लेकिन इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी.’

के सी त्यागी

राज्यसभा सांसद

दुनिया का सबसे युवा विचारक

दुनिया के इतिहास में 24 वर्ष की उम्र भी जिसको नसीब नहीं हो, भगतसिंह से बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है? भगतसिंह का यह चेहरा, जिसमें उनके हाथ में एक किताब हो- चाहे कार्ल मार्क्‍स की दास कैपिटल, तुर्गनेव या गोर्की या चाल्र्स डिकेन्स का कोई उपन्यास, अप्टान सिन्क्लेयर या टैगोर की कोई किताब- ऐसा उनका चित्र नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कर्म हिंदुस्तान में सरकारी -गैर सरकारी संस्थानों या भगतसिंह के प्रशंसक-परिवार ने नहीं किया, जबकि भगतसिंह की यही असली पहचान है.

भगतसिंह की उम्र का कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन पाया? महात्मा गांधी भी नहीं, विवेकानंद भी नहीं. औरों की तो बात ही छोड़ दें. पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम उम्र में किताबें पढ़ कर अपने मौलिक विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश किसी ने नहीं की. लेकिन, भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अप्रचारित है.

लोग गांधीजी को अहिंसा का पुतला कहते हैं और भगतसिंह को हिंसक कह देते हैं. भगतसिंह हिंसक नहीं थे. जो आदमी खुद किताबें पढ़ता था, उसको समझने के लिए अफवाहें गढ़ने की जरूरत नहीं है. उसको समझने के लिए अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, ब्याज स्तुति और ब्याज निंदा की जरूरत नहीं है. भगतसिंह ने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ लेख लिखा है. भगतसिंह ने नौजवान सभा का घोषणापत्र लिखा, जो कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के समानांतर है. भगतसिंह ने अपनी जेल डायरी लिखी है, जो आधी-अधूरी हमारे पास आयी है. भगतसिंह ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन का घोषणापत्र, उसका संविधान बनाया.

पहली बार भगतसिंह ने कुछ ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग हिंदुस्तान की राजनीतिक प्रयोगशाला में किये हैं, जिसकी जानकारी तक लोगों को नहीं है.. जिस आदमी को कुछ हफ्ता पहले, कुछ दिनों पहले, यह मालूम पड़े कि उसको फांसी होनेवाली है, उसके बाद भी रोज किताबें पढ़ रहा है, वह भगतसिंह मृत्युंजय था. हिंदुस्तान के इतिहास में इने गिने ही मृत्युंजय हुए हैं.
कनक तिवारी

(रविवार में पूर्व प्रकाशित एक लंबे लेख का अंश/साभार)

देश को दिशा देनेवाला चिंतक

डॉ राम मनोहर लोहिया देश के उन गिने-चुने नेताओं में हैं, जिनकी सक्रियता और विचार-दृष्टि का असर आज भी देश के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में है. यूपी में फैजाबाद जिले के अकबरपुर में जन्मे डॉ लोहिया ने अपने कस्बे, बनारस और कोलकाता में शुरुआती पढ़ाई के बाद बर्लिन से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की. उनके पीएचडी शोध का विषय था ‘भारत में नमक पर कर’, जिसमें उन्होंने गांधीजी के नमक सत्याग्रह की पृष्ठभूमि का विेषण किया था. जर्मनी में उन्होंने मार्क्‍स व हेगेल के विचारों के अध्ययन के साथ पश्चिम की लोकतांत्रिक परंपराओं को समझा. 1933 में भारत लौटने तक डॉ लोहिया देश और यूरोप में अपनी राजनीतिक गतिविधियों से एक पहचान बना चुके थे. उन्होंने कांग्रेस के भीतर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन में बड़ी भूमिका निभायी. 1936 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद पंडित नेहरू ने पार्टी में एक विदेश विभाग की स्थापना की थी और डॉ लोहिया को इसका सचिव बनाया. कांग्रेस की विदेश नीति को आकार देने में उनका अहम योगदान रहा. स्वतंत्रता-संघर्ष में डॉ लोहिया ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इन गतिविधियों के कारण अंगरेजों ने उन्हें 25 बार गिरफ्तार किया था.

आजादी के बाद उनकी कोशिश थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन ग्रामीणों और गरीबों के हित में हो. 1947 के बाद भी उनके जुझारू तेवर बने रहे और वे नेहरू की नीतियों के सबसे बड़े आलोचक बन कर उभरे. गांधी के दर्शन के अनुगामी रहे डॉ लोहिया ने 1963 में संसद में प्रवेश किया. सदन के पटल पर विभिन्न मुद्दों पर उनके सारगर्भित और विद्वतापूर्ण भाषण भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण संदर्भ-ग्रंथ हैं. व्यस्तताओं के बावजूद उन्होंने कई उल्लेखनीय किताबें लिखीं, जिनमें ‘द कास्ट सिस्टम’, ‘फॉरेन पॉलिसी’, ‘द इंडियन एग्रीकल्चर’, ‘गिल्टी माइंड्स ऑफ इंडियाज पार्टिशन’, ‘मार्क्‍स, गांधी एंड सोशियलिज्म’ आदि शामिल हैं. लोहिया का जीवन, उनके काम और लेखन अपने देश को समझने की कुंजी तो हैं ही, भारत के बेहतर भविष्य का सूत्र भी प्रदान करते हैं.

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