वक्त सबकुछ बदल सकता है, लेकिन रिश्तों के एहसास को नहीं. जैसे बर्फ की चादर के नीचे भी पानी की धारा बहती रहती है, उसी तरह दूरियों के कारण पैदा होनेवाले ठंडेपन को भाई-बहन के रिश्ते की गरमाहट पिघला देती है. इस हकीकत को हम रक्षाबंधन के त्योहार के दिन देख सकते हैं. पिछले दो दशकों में चली बदलाव की बयार में बड़े पैमाने पर लोगों का अपने घरों से दूर शहरों में विस्थापन हुआ है. लोग एक-दूसरे से दूर होते गये हैं, ऐसे में राखी के त्योहार पर भाई-बहन के रिश्ते में बची आंच आपको चकित कर सकती है. राखी के त्योहार पर इस दूरी की कसक भले हर बहन के चेहरे पर दिखाई देती हो, लेकिन भाई के साथ उसका स्नेह का रिश्ता आज भी बना हुआ है. प्रवास की पीड़ा के आईने में रक्षा बंधन के त्योहार पर विशेष आवरण कथा..
‘शायद वो सावन भी आये, जो बहना का रंगना लाये, बहन पराये देस बसी हो, अगर वो तुम तक पहुंच न पाये, याद का दीपक जलाना, भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना.’
शैलेंद्र के लिखे इस गीत में सिर्फ भाई-बहन के रिश्ते की भावुक अभिव्यक्ति नहीं हुई है, यह गीत अपने समय की एक बड़ी हकीकत को भी बयान करता है. हकीकत- बेटियों के परदेस ब्याहे जाने की. तभी तो एक बेटी दुख से कातर होकर अमीर खुसरो के शब्दों में गाती है-‘काहे को ब्याहे विदेस/ भैया को दियो महला दुमहला, हमको दियो परदेस..’
बीते जमाने में भाई-बहन की दूरी की वजह बनती थी, बहनों की शादी. बेटी पराये घर ब्याह दी जाती थी और रिश्ते-नाते पीछे छूट जाते थे. यह रीत सदियों से चली आ रही है और आज भी जारी है. लेकिन बदलाव की जो बयार भारत में पिछले दो दशकों से बह रही है, उसने भाई-बहन के संबंधों को भी काफी हद तक प्रभावित किया है. उसमें एक नया आयाम जोड़ा है. बहनें अब भी परदेस ब्याही जाती हैं. भारत की जनसंख्या रजिस्टर में प्रवास के आंकड़ों पर गौर करें, तो आपको हैरानी होगी कि आखिर सबसे ज्यादा प्रवास करनेवालों में स्त्रियों का नाम क्यों दर्ज है! यह आंकड़ा इस सामाजिक सच्चाई से निकलता है कि भारत में लड़कियां शादी के बाद अपने मां-बाप के घर को छोड़ कर अपने पति के घर चली जाती हैं.
लेकिन अब सिर्फ बहनें परदेसी नहीं होतीं. आजादी के बाद से धीरे-धीरे बढ़े शहरीकरण ने, रोजी-रोजगार की तलाश ने घर के लड़कों को शहर की ओर धकेलना शुरू किया. अच्छी शिक्षा के लिए घर के लड़के अपने गांवों, छोटे कस्बों से बड़े शहरों की ओर गये. वह जमाना कोई और था, जब पीढ़ियां एक ही छत के नीचे जिंदगी गुजार दिया करती थीं. संयुक्त परिवारों के टूटने की एक बड़ी वजह यह थी कि लड़कों को अच्छी शिक्षा के लिए शहरों में भेजा जाने लगा. एक बार जब पांव शहरों की ओर बढ़े, तो फिर वापस कहां लौटे! पीछे छूट गया पूरा परिवार. मां-बाप और बहन.
लैंगिक समानता की तमाम कोशिशों के बावजूद एक हकीकत यह है कि भारत में अच्छी शिक्षा पर पहला हक लड़कों का माना जाता है. तर्क सामान्य है- लड़कियों को शादी करके अपना घर बसाना है, लेकिन लड़कों को तो पूरे परिवार की जिम्मेवारी उठानी है. यह चलन भाइयों और बहनों के बीच दूरी की एक बड़ी वजह बना, खासकर बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में जहां बेहतर शिक्षा और नौकरी के मौकों की कमी है. जो बहन ब्याह के बाद अपने भाई से दूर जाती थी, अब शहर ने बहुत पहले उनसे उनका भाई छीनना शुरू कर दिया.
बिहार और झारखंड से खुलनेवाली ट्रेनों की आरक्षित बोगियों पर लगे आरक्षण चार्ट पर कभी नजर डालिये, यह तथ्य आपके सामने सहज ही प्रकट हो जायेगा. सफर करनेवालों में युवा लड़कों की तादाद काफी नजर आयेगी. यह सही है कि धीरे-धीरे मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियों की शिक्षा के प्रति भी जागरूकता पैदा हुई है, लेकिन आज भी घर की चारदीवारी को लांघ कर खुली दुनिया में, संभावनाओं से भरे आसमान के नीचे अपने सपनों का आशियाना बनाने का मौका लड़कियों को कम ही मिलता है.
दिल्ली के द्वारका इलाके में रहने वाली मालिनी श्रीवास्तव, जो शादी के बाद पिछले दस सालों से दिल्ली में ही रह रही हैं, बताती हैं कि जब वे बच्ची थीं, तब यह ख्याल उनके मन में शायद ही कभी आया था कि ऐसा भी एक दिन आयेगा कि रिश्ते चाहे कितने भी नजदीक के हों, उनसे इतनी दूरी हो जायेगी कि हाथ बढ़ाने की तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें पकड़ पाना मृगमरीचिका जैसा ही नजर आयेगा. बिहार के समस्तीपुर शहर से कोई तीस किलोमीटर दूर है उनका गांव. उनका बचपन गांव में ही बीता. बड़ा सा परिवार. दो बहन, तीन भाई. साथ खाना. लड़ना-झगड़ना. जब मालिनी चार साल की थीं, उनके पिता की नौकरी समस्तीपुर के एक कॉलेज में लग गयी. पूरा परिवार गांव से शहर की ओर चला आया. इस सोच के साथ कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई अच्छी हो जायेगी. गांव बगल में ही था, इसलिए हर पर्व-त्योहार पर वहां आना-जाना बना रहता था. गांव छूट कर भी नहीं छूटा था. पूरा परिवार साथ था. हर दिन गांव से कोई आता-जाता. फल-सब्जी, मछली लिये. मालिनी बताती हैं, ‘हम गांव नहीं भी जाते, लेकिन पिता जी हर सप्ताह गांव जाते थे.’ लेकिन जब पिता के कदम गांव से बाहर निकले थे, तब उनके दिमाग ने काफी कुछ ठान लिया था. उन्होंने तय कर लिया था कि वे बच्चों को अच्छी शिक्षा देंगे. बड़के भैया ने जब बारहवीं किया, तब उन्हें इंजीनियरिंग की तैयारी करने के लिए पटना भेजने का फैसला किया गया. दो साल रहे बड़के भैया पटना में. पढ़ने में अच्छे थे. मेहनती भी. बीआइटी-सिंदरी में दाखिला मिल गया. फिर पीछे से मंझले भैया गये. फिर छोटा भाई. दोनों बहनें, समस्तीपुर में ही रह गयीं. शुरू में तो भाई राखी पर चले आते थे, लेकिन एक बार नौकरी में लग जाने पर राखी पर आना खत्म सा ही हो गया. फिर डाक. फिर कुरियर. मालिनी बताती हैं कि पिछले 18 सालों में ऐसा कई बार हुआ कि उनके तीन भाइयों में से एक भाई भी राखी पर उनके पास नहीं था. तीनों भाई तो कभी भी साथ नहीं रहे. हालांकि शादी के बाद जब वे दिल्ली आयीं, तबसे हर साल दो भाई राखी के दिन उनके साथ अकसर रहते हैं, क्योंकि उनका घर भी दिल्ली में है. बड़के भैया अमेरिका में हैं. उनसे तो अब ऑनलाइन राखी की ही रस्म रह गयी है.
यह किस्सा सिर्फ मालिनी का नहीं है. न ही सभी बहनें मालिनी जैसी ‘खुशकिस्मत’ हैं कि उनकी शादी उस शहर में ही हो, जहां उनके भाई रह रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में यह जरूर हुआ है कि लड़कियां भले पढ़ने के लिए अपने कस्बों-गांवों से दूर न आयी हों, लेकिन शादी के बाद वे भी देश के विभिन्न शहरों में बस गयी हैं. कुछ की किस्मत अच्छी है, उनके भाई भी उसी शहर में हैं. लेकिन जिनके साथ ऐसा नहीं है, उनके लिए राखी का त्योहार पुराने दिनों की यादों में ही बस कर रह गया है.
सवाल है कि जब भाई-बहन इस तरह से दूर होते गये, जब आमने-सामने बैठ कर कलाई पर राखी बांधने की परंपरा खत्म सी होती जा रही है, तब इस दौर में भाई-बहन का रिश्ता कैसा है? क्या प्रवासी भाइयों और उनकी बहनों के लिए रक्षाबंधन के त्योहार का वास्तव में कोई अर्थ रह गया है? या यह महज एक रस्म है, जिसे निभाया जा रहा है, बस एक दिन, जिस दिन की बधाइयां दी जाती हैं, ‘हैप्पी रक्षाबंधन’ कहा जाता है?
महाराष्ट्र के नागपुर में रहनेवाली अपराजिता दुबे बताती हैं, ‘भाइयों के साथ दिल का रिश्ता कभी समाप्त नहीं हो सकता. लेकिन फिजिकल डिस्टेंस (दूरी) बढ़ने और आपस में मिलने के अवसर कम होने से यह पहले जैसा भी नहीं रह जाता. अकसर न मैं भाइयों के पास जा पाती हूं, न भाई मेरे पास आ पाते हैं. राखी में साथ रहने का संयोग काफी कम बन पाता है. अपराजिता बिहार से हैं और पिछले छह साल से नागपुर में रह रही हैं. वे घर में सबसे बड़ी हैं. उनके दो छोटे भाई दिल्ली और मुंबई में रहते हैं. अपराजिता कहती हैं कि रक्षा बंधन का त्योहार अब कुरियर सेवा, इंटरनेट और फोन के भरोसे है. अगर कभी कुरियरवाले ने धोखा दे दिया, तो भाइयों को राखी बाजार से खरीद कर पहननी पड़ती है.
तो क्या फोन, इंटरनेट, कुरियर से रक्षा बंधन का त्योहार मनाया जा सकता है? जब भाई ही पास न हो, तो राखी के त्योहार का उत्साह क्या संभव है? प्रवास की मार ङोल रहे आज का समाज, जिसे अपने कनेक्टिविटी और पल में पास ले आनेवाली तकनीक पर पूरा भरोसा है, क्या वास्तव में पर्व-त्योहारों से दूर तो नहीं होता जा रहा है?
वास्तव में आज राखी के त्योहार में बहुत गहरे तक प्रवास की कसक भी शामिल है. यह हमारे समाज में स्त्री-पुरुष असमानता के बिंदुओं को भी सामने लाता है. राखी के त्योहार पर भाई-बहन की दूरी महज किस्मत का मामला नहीं है, यह हमारे समय का चुनाव है. यह नतीजा है उस सामाजिक सोच का, जिसमें अच्छी शिक्षा पर लड़कों का हक माना जाता है. यह देन है बिहार और झारखंड जैसे राज्यों के पिछड़ेपन की, राज्य में उच्च शिक्षा की सुविधा और नौकरी के मौके न होने की. राखी के त्योहार के दिन विस्थापन की टीस जिस मात्र में इन राज्यों के भाई-बहनों को भोगना पड़ता है, दूसरे राज्यों को नहीं. क्योंकि वहां सुविधाएं अपेक्षाकृत ज्यादा हैं, तरक्की ज्यादा है. यानी भाई-बहन के बिछोह के असल खलनायक की तलाश करें, तो कई नाम जेहन में दर्ज होते हैं. पुरुष प्रधान समाज, शहरीकरण, विकास की कमी. नौकरियों का अभाव.
आज इस दूरी को पाटने के लिए बाजार में कई तरह के दावे हैं. कई विकल्प हैं. ऑनलाइन शॉपिंग से राखी खरीदी जा सकती हैं. एक क्लिक कीजिए और राखी भाई तक पहुंच जायेगी. साथ में मिठाई का डिब्बा भी. बहनों तक उपहार पहुंच जायेंगे. बाजार को किसी त्योहार से इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहिए. भाई-बहन दूर हों, तो उसे फर्क नहीं पड़ता, बल्कि वह इस दूरी को ही भुनाने की कोशिश करता है. वह यह सबक देने की कोशिश करता है कि बहन अगर दूर है, तो कोई बात नहीं, आप उसे कीमती तोहफे देकर अपनी गैरहाजिरी की भरपाई कर सकते हैं. ऐसा करते वक्त बाजार बस यह भूल जाता है कि रक्षा बंधन के त्योहार का मर्म लेन-देन नहीं है. बल्कि एक-दूसरे के पास होने का एहसास है.
खुशकिस्मती की बात यह है कि इन तर्क-वितर्को के बावजूद, तमाम दूरियों के बावजूद राखी का त्योहार आज भी तमाम बदलावों और दूरियों को ङोलते हुए भाई-बहन के प्रेम का त्योहार बना हुआ है. जैसा कि कथाकार मधु कांकरिया कहती हैं, ‘दूरियों के बावजूद रेशम की डोर में बंधा भाई-बहन के रिश्ते की गरमाहट बनी हुई है और यह गरमाहट इतनी आसानी से ठंडी नहीं पड़ सकती. रक्षाबंधन को लेकर एक उमंग हमने अब भी अपनी जिंदगी में बचा कर रखी है- विनोद कुमार शुक्ल की कविता की तरह- जाते जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब/ तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा..