अमरीका में 11 सितंबर 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद, साल 2002 में मैं अफ़ग़ानिस्तान गया. मैं वहां हो रहे अमरीकी ड्रोन हमलों से परेशान था और स्थानीय लोगों की मदद के लिए जा रहा था.
मैं ये सोचकर गया था कि वहां जाकर मुझे लड़ना पड़ सकता है, हथियार उठाने पड़ सकते हैं, जिहाद का हिस्सा बनना पड़ सकता है.
पर रास्ते में ही मुझे एक छोटा बच्चा दिखा जो तालिबान से भाग रहा था. उसके सिर से ख़ून निकल रहा था. उसने कहा, "ये ज़ालिम हैं, ये क़साई हैं".
बस मेरा दिल बदल गया, मैंने न सिर्फ़ उस बच्चे को वहां से निकाला, मैं ख़ुद भी वहां से वापस ब्रिटेन लौट आया.
वापस आकर मैंने तय किया कि मुझे युवा ब्रितानी मुसलमानों से जुड़ना है. धर्म के नाम पर चरमपंथ की ओर उन्हें गुमराह करने वाले संदेशों के ख़िलाफ़ बोलना है.
कर्तव्य
मैं अपनी संस्था ‘ऐक्टिव चेंज फ़ाउंडेशन’ के ज़रिए कई नौजवानों से मिलता हूं और अपने उदाहरण के ज़रिए उन्हें समझाने की कोशिश करता हूं.
ये ग़लत संदेश उन नौजवानों को ज़्यादा लुभाते हैं जो शिक्षा के बावजूद अपनी ज़िंदगी में रोज़गार या कोई और मौके नहीं तलाश पाए हैं.
उन्हें ये भी लगता है कि वो समय आ गया है जब दुनिया में एक ‘इस्लामिक स्टेट’ बने और इसका बीड़ा जिन लोगों ने उठाया है, उनसे जुड़ना इनका धार्मिक कर्तव्य है.
ये उन लड़कियों को भी आकर्षित कर रहा है जो इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों से शादी करके उनकी सेवा करना अपना फ़र्ज़ मानती हैं.
नाराज़गी
युवा ब्रितानी मुसलमानों में एक अहसास ये भी है कि इस्लाम और मुसलमानों को समझा नहीं जा रहा, उनके देशों में दख़लंदाज़ी की जा रही है.
वो मुझसे ये भी कहते हैं कि इराक़, फ़लस्तीनी क्षेत्र और अफ़ग़ानिस्तान जैसे इलाकों में जब पश्चिमी देशों के हमलों में आम लोग मारे जाते हैं तो वो भी हिंसा है पर उसकी उतनी निंदा नहीं की जाती जितनी इस्लामिक स्टेट की हो रही है.
इस्लामिक स्टेट अपने संदेश सोशल मीडिया के ज़रिए ऐसे युवाओं तक ही पहुंचाना चाहता है. उन्हें उलझाकर बरगलाना चाहता है, ठीक वैसे ही जैसे 13 साल पहले मैं भटक गया था.
मेरा धर्म चरमपंथ और हिंसा के एकदम ख़िलाफ़ है, यही वजह है कि हम भी सोशल मीडिया का रास्ता अपनाकर अलग संदेश वाले वीडियो प्रकाशित कर रहे हैं.
(बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य से बातचीत पर आधारित)
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