।। मुंबईसेअनुप्रिया ।।
– आजादी के 66 साल बाद भी सपने वही हैं, जो 66 साल पहले थे. कुछ सपने पूरे हुए, बहुत से बाकी हैं. भ्रष्टाचार हमारी रग–रग में बसा है. इसे मिटाने की बहस जारी है. शनिवार खास में युवा लेखक और गीतकार प्रसून जोशी कहते हैं कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बहस जरूरी है. –
अक्सर हमसे पूछा जाता है कि अपनी इंडस्ट्री सिनेमा और विज्ञापन की खूबियों और कमियों के बारे में बताएं. ऐसे में मेरे मन में हमेशा सवाल उठता है कि क्यों हमें सिर्फ सिनेमा या किसी इंडस्ट्री तक बांध दिया जाता है. जब देश की बात हो, तो पूरे देश की बात हो. मैं खुद को देश से अलग नहीं मानता. मैं देश का अहम हिस्सा हूं और उसके विकास से ही मेरा भी विकास होगा, ऐसा मेरा मानना है. देश का हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है. हमें किसी न किसी रूप में अपना योगदान देना चाहिए.
देश की सारी बुराइयों को खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन हमारी सबसे बड़ी कामयाबी है कि अब मुद्दे उजागर हो रहे हैं. आम लोग इसे देख और समझ रहे हैं. इससे निजात पाने की ललक उनमें जगी है. यह भागीदारी जरूरी है. सिर्फ वोट देकर आप अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो जाते. जहां आपको लगे कि कुछ करना चाहिए, दूसरों का इंतजार किये बगैर करें. अपनी बात आप रखें.
निस्संदेह पिछले कुछ सालों में सोशल नेटवर्किग साइट्स अभिव्यक्ति की आजादी के सबसे सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है. लेकिन, मुझे एक बात खलती है कि हम जब सोशल साइट्स पर आंदोलन शुरू करते हैं, तो वह ‘लाइक बटन’ तक सीमित रह जाता है. ऐसे आंदोलन बाद में ठंडे पड़ जाते हैं. जरूरी यह है कि सोशल नेटवर्किग जरिया बने और लोगों तक बातें पहुंचें. आंदोलन का उद्देश्य जब तक पूरा न हो जाये, इसे जारी रखना चाहिए. पहले सिर्फ संविधान में आवाज उठाने की आजादी थी. अब लोग गलती के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं. पूरा देश एक साथ बोलता है. यह भी कम बड़ी कामयाबी है.
* नये टैलेंट को मिले मौका
मैं छोटे से शहर से आया था. सिनेमा में कोई भी अपना नहीं था. न विज्ञापन जगत में. मैंने मेहनत की, पहचान बनायी. और लोग गांव और शहर से आ रहे हैं. खुद को साबित करने के लिए जी–तोड़ मेहनत कर रहे हैं. स्पष्ट है, दौर बदल रहा है. लोगों को मौके मिल रहे हैं. हमारी इंडस्ट्री को हर दिन नये टैलेंट मिल रहे हैं. उनका काम अद्भुत है. भाषा की जो एक सीमा थी, टूट रही है.
लोग कैरियर तक सीमित नहीं रहे. प्रांत या भाषा बाधा नहीं रही. जहां मौका मिला, काम कर रहे हैं. खासतौर से अगर आप स्टार्स की जमात को छोड़ दें, तो देखें कि फिल्मों में काम करनेवाले तकनीशियनों की आधी आबादी छोटे शहरों की है. हिंदी सिने जगत उन पर निर्भर है. परदे के पीछे के मेहनती लोग छोटे शहरों से आते हैं.
* काम चालू आहे
मैं नहीं कहता कि लॉ एंड ऑर्डर में परेशानी नहीं, वे दुरुस्त हो चुके हैं. भ्रष्टाचार मिट गया. नारी सशक्तीकरण की सारी जिम्मेदारी पूरी हो चुकी है. पर, लोग सजग हुए हैं. जागरूक हुए हैं. ऐसा नहीं कि आज से आठ साल या फिर उससे भी पहले महिला पूरी तरह सुरक्षित थी. तब भी ऐसी ही स्थिति थी. अब स्त्रियों को आवाज उठाने की आजादी है. वे इस पर सक्रियता से सोच रही हैं. मुझे लगता है कि महिलाएं सशक्त हुई हैं. वे समझने लगी हैं कि चुप बैठने से कुछ नहीं होगा. आवाज उठानी होगी. अब बहस का हिस्सा भी बन रही हैं. यानी कह सकते हैं कि काम चालू आहे.
* सिनेमा की जिम्मेदारी
अक्सर सिनेमा पर आरोप लगता है कि वे देश या दुनिया को बदलने के लिए फिल्म नहीं बना रहे. मेरा कहना है कि अचानक से कुछ नहीं बदलेगा. सिनेमा पूरी तरह से समाज को नहीं बदल सकता. सिनेमा समाज का ही हिस्सा है. हां, ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी फिल्में आती हैं, तो लोगों का भरपूर प्यार मिलता है. ऐसी फिल्में बननी चाहिए.
* युवा हैं जागरूक
मुझे खुशी है कि अब युवा राजनीति को हीन दृष्टि से नहीं देखता. राजनीति के हर मुद्दे पर सजग है. अपना विचार रखता है. राजनीतिक मुद्दों पर बहस करता है. एक विजन तय करता है. अपनी समझदारी से निर्णय लेता है. इसलिए अब यह कहना गलत होगा कि केवल युवाओं को मौज–मस्ती में मजा आता है. वे समझदार हुए हैं. राजनीति को जिंदगी का अहम हिस्सा मानने लगे हैं.
– सोशल नेटवर्किंग अहम लेकिन लाइक बटन दबाने से ही नहीं होगा काम