।। गोपालभट्टाचार्य ।।
(अंतरराष्ट्रीयसचिव,श्रीअरविंदसोसाइटी,पुडुचेरी)
मनुष्य एक संक्रमणशील सत्ता है, वह विकास की अंतिम सत्ता नहीं है
महर्षि श्रीअरविंद ने इस समस्या का सामाधान बताया है. उनका कहना है कि जिस संकट से मनुष्य गुजर रहा है वह केवल सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, पर्यावरणीय या नाभिकीय नहीं है, बल्कि यह संकट है मानव के क्रम–विकास का.
आज प्रचंड वेग से एक अबोधगम्य हवा विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक बह रही है. जो बात कभी नि: संदिग्ध प्रतीत होती थी, वह संशय के धुंधलकों से ढकी प्रतीत हो रही है. मानवता व्यग्रता की ऐसी अवस्था में पहुंच गयी है, जहां प्रयासों में तनाव तथा दैनिक गतिविधियों में तनाव है.
सरगरमी इतनी बढ़ गयी है, बेचैनी इतनी है कि लगता है पूरी मानव जाति या तो इस प्रबल अवरोध को तोड़ कर एक नयी चेतना में आरोहण करेगी अथवा जड़ता एवं दुबरेधता की अथाह गर्त में गिर जायेगी.
विश्व में चारों ओर व्याप्त अव्यवस्था, भ्रष्टाचार एवं बिगड़ती अर्थव्यवस्था के आलम में यह प्रश्न सहज ही सभी के मन में उठता रहता है कि क्या हम वास्तव में सर्वनाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं? इस मुद्दे पर यथेष्ट वाद–विवाद होता आया है. घटनाओं से अत्यंत निकटता से जुड़े लोगों के लिए यह सोचना स्वाभाविक है.
1980 के उत्तराघ्र में यूरोप के लोग नाभिकीय विध्वंस के भय से निरंतर आक्रांत रहते थे. जापान के लोग तो उनसे भी बदतर महसूस करते थे. अभी अधिकतर लोगों का कहना है कि वर्तमान में जीवन–मूल्यों में अत्यधिक गिरावट आ गयी है. हाल ही में उत्तराखंड में आया महाविप्लव, जिसमें हजारों की जान गयी.
आगामी विध्वंस का एक नमूना है.
लंदन में रह रहे एक सज्जन ने फोन पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला सुनाई पड़ रहा है. टू जी स्पेक्ट्रम की नीलामी, कॉमनवेल्थ खेल के आयोजन में घोटाला व कोयला खनन के लीज के आवंटन में गड़बड़ी इत्यादि कई उदाहरण उभरते ही जा रहे हैं. मैंने उन्हें बताया कि अभी भी भारत में अच्छे लोगों की कमी नहीं है तथा यहां हर चीज बिकाऊ नहीं है.
श्रीमां ने कहा भी है कि जब तुम सचेतन होकर विश्व में घट रही सभी घटनाओं को एक ही समय में देखने लगोगे, तभी भागवत चेतना में रहते हुए घटनाओं को देखने–समझने में सक्षम होगे.
इन असाधारण तनावों का मूल कारण आधुनिक मानवता की अपनी चेतना में निहित है. सभी कटुतापूर्ण उक्तियों के स्वर, जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में उभर रहे हैं. पूर्णतया हमारी आध्यात्मिक दिवालियेपन का द्योतक है, जिसके फलस्वरूप हम अपनी अंतर्चेतना में पीड़ित हो रहे हैं.