वक्त-ए-सफर:जसदेव सिंह
महात्मा गांधी की अंतिम यात्र में शायद ही कोई ऐसा रहा हो, जिसकी आंखें नम न हुई हों. दिल्ली की सड़कों में उमड़ा जन- सैलाब हो या दूर-दराज के इलाकों में रेडियो से सट कर बापू के आखिरी प्रयाण का वर्णन सुनते लोग. रेडियो पर आकाशवाणी दिल्ली से मेलविल डीमेलो पल-पल की जानकारी दे रहे थे. दिल्ली से दूर जयपुर में डीमेलो को सुनते हुए 11वीं कक्षा में पढ़ने वाले एक लड़के ने अपनी मां के सामने घोषणा की कि वह भी रेडियो में कमंटेटर बनेगा. वह भी हिंदी का.
उस वक्त इसे भावुकता और बचपने में कही गयी बात से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि लड़के को न तो ठीक से अंगरेजी आती थी, न ही हिंदी. वह उर्दू का छात्र था. उसके शहर जयपुर में कोई रेडियो स्टेशन भी नहीं था तब. लेकिन मेलविल डीमेलो के बोलने के ढंग ने उसे कहीं गहरे तक प्रभावित किया था और उसकी जागती आंखों में कमंटेटर बनने का सपना दे गया था. इस सपने को साकार करना मुश्किल था लेकिन असंभव नहीं. आखिरकार एक दिन वह लड़का रेडियो और टेलीविजन की चिरपरिचित आवाज बन गया.
यह आवाज है मशहूर कंमटेंटर जसदेव सिंह की. वही जसदेव सिंह जिनसे हमने पंद्रह अगस्त और गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम का आंखों देखा हाल ही नहीं सुना, अपने शब्दकोश और ज्ञान को भी दुरुस्त किया. मसलन ‘लालकिले के सामने स्थित जैन मंदिर को लाल मंदिर भी कहा जाता है और अभी भी इसे बड़ी-बूढ़ियां उर्दू मंदिर ही कहती हैं. यहां लश्कर था बादशाह का, उन्हीं में से एक जैन सिपाही ने बादशाह की इजाजत से यहां भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की थी’ जैसी जानकारियां उनकी कमेंट्री में मिलती थीं. ‘मैंने काबा बनाया है अजब अंदाज का, जिसमें नाकूस और अजां की एक ही आवाज है’ शेर का जिक्र करते हुए बड़ी सहजता से वह लालकिले के सामने स्थित गौरीशंकर मंदिर के शंख और जामा मसजिद की अजान की ध्वनि को एकाकार कर देते थे. खेल प्रेमियों के दिल में जसदेव सिंह एक खास जगह रखते हैं. उन्होंने 9 ओलिंपिक, 6 एशियन गेम्स, 8 हॉकी वर्ल्ड कप समेत खेल के कई महत्वपूर्ण आयोजनों की कमेंट्री की है. उनके नाम गणतंत्र दिवस की 49 कमेंट्री और इतनी ही बार स्वतंत्रता दिवस की कमेंट्री करने का रिकॉर्ड है. इस तरह देखें, तो जसदेव सिंह ने अपनी आवाज में आजाद भारत की पूरी दास्तान कही है.
जसदेव सिंह ने 1950 में ऑल इंडिया रेडियो का पहला ऑडिशन दिया था, लेकिन रिजेक्ट कर दिये गये थे. फिर भी रेडियों में काम करने का जुनून उन पर हावी रहा. इस बीच उन्हें दिल्ली में कैजुअल कॉन्ट्रैक्ट पर समाचार पढ़ने का मौका मिला. 1955 में जब जयपुर रेडियो स्टेशन खुला, तो भारतीय प्रसारण संस्थान ने उन्हें जयपुर रेडियो के लिए चुन लिया. पहली कमेंट्री उन्होंने 1960 में की, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चंबल बैराज का उद्घाटन किया था. इसके बाद उन्हें दिल्ली बुलाया गया और 1962 से 15 अगस्त तथा 1963 से 26 जनवरी की कमेंट्री जसदेव सिंह की आवाज में देश के कोने-कोने तक पहुंचने लगी. पहले रेडियो फिर दूरदर्शन से. जसदेव भारत में प्रसारण माध्यमों के विकास के साक्षी रहे और दूरदर्शन के डिप्टी डायरेक्टर जरनल होकर सेवानिवृत हुए.
कमेंट्री को जसदेव सिंह ने हमेशा कला का दर्जा दिया, जो लगन से ही आती है. एक समाचार चैनल से बातचीत में वह कहते हैं,‘कमेंट्री एक कला है, इसमें शब्दों को पिरोया जाता है जैसे कि कविता.’ शायद इसीलिए आज भी वह लोगों के बीच बेहतरीन कमंटेटर के रूप में चर्चित हैं. उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण से नवाजा जा चुका है. हिंदी भाषा की कमेंट्री को अंगेरजी से ज्यादा लोकप्रिय बनाने वालों में जसदेव सिंह का नाम खासतौर पर लिया जाता है. इसलिए उन्हें ‘गुरु ऑफ हिंदी कमेंट्री’ भी कहा जाता है. कमेंट्री को अपनी आत्मा माननेवाले जसदेव सिंह ने अपनी आत्मकथा ‘मैं जसदेव सिंह बोल रहा हूं’ में अपने इस सफर को बखूबी बयान किया है. बेशक अब उनकी कमेंट्री लोगों के जिक्र भर में रह गयी है, लेकिन कमेंट्री के लाजवाब अंदाज, खनक भरी आवाज और उपमाएं गढ़ने के हुनर के चलते जसदेव सिंह आज भी लोगों के दिल में जगह बनाये हुए हैं.
प्रीति सिंह परिहार