अजय कुमार
कोई डिग्री नहीं थी उनके पास. किसी संस्थान में उन्होंने फोटो की पढ़ाई नहीं की थी. पर, उनके पास वह नजर थी जो दूसरों के पास नहीं थी.जीवन संघर्ष के जरिये उन्होंने वह खास नजर पायी थी. कैमरे तो बहुत सारे लोगों के पास होते हैं, मगर वह नजर कुछ लोगों के पास ही होती है. कृष्ण मुरारी किशन उन्हीं कुछ लोगों में से एक थे. आज वह हमारे बीच नहीं रहे. कंधे पर बड़ा-सा बैग लटकाये स्कूटर से चलनेवाला एक उम्दा इनसान और लाजवाब फोटोग्राफर अब हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन चुका है.
जब फोटो उतारने वह निकले, तो पास में एक साधारण कैमरा और साइकिल थी. पटना के डाकबंगला चौराहे पर किसी जुलूस का फोटो उतारने पहुंचे, तो किसी ने उनका कैमरा हवा में उछाल दिया. मुरारी को लगा, किसी ने उनकी इज्जत हवा में उछाल दी. उछल कर कैमरे को अपने कब्जे में किया. शायद तब उन्होंने यह भी सोचा होगा-फोटो खींचने को वह नयी पहचान देंगे. यह 1974 की घटना है, जिसे हमने अपने सीनियर से सुनी है. बिहार आंदोलन के दौरान की हजारों तसवीरें उन्होंने उतारीं. लोकनायक जयप्रकाश नारायण की उनकी उतारी कई तसवीरें राजनीतिज्ञों के यहां देखी जा सकती हैं. जीवंत और अद्भुत फोटो. जाबिर साहब के पास एक तसवीर है. उसमें लोकनायक हैं. जाबिर साहब भी हैं. दिवंगत राजनीतिज्ञों कपरूरी ठाकुर, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा की कई चर्चित तसवीरें उन्होंने उतारी थीं.
मुख्यमंत्री रहे डॉ जगन्नाथ मिश्र, रामसुंदर दास, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के राजनैतिक कैरियर के हर मोड़ की तसवीर उनके पास है.वाकई केएम किशन ने फोटो जर्नलिज्म को नयी पहचान दी. उसकी ताकत का एहसास कराया. बिहार की जमीन पर किसी तरह की कोई भी घटना हो और वहां सबसे पहले पहुंचनेवालों में मुरारी न हों, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता था. देश की कोई भी पत्र-पत्रिका हो, वह किशन जी के फोटो के बगैर अधूरी थी. वह छोटी-बड़ी घटनाओं के गवाह रहे. राजनीतिक उथल-पुथल का दौर हो या छात्र आंदोलन. गांवों में किसान आंदोलन हो या नरसंहार, उन पर पहला क्लिक मुरारी जी का ही होता था. वह जनता और समाज की नजर से फोटो उतारते रहे. बाढ़-सुखाड़ में आम आदमी की जिंदगी के दर्द को बाकी दुनिया उनकी ही तसवीरों से महसूस करती थी. उन दिनों कोलकाता से निकलनेवाली ‘रविवार’ पत्रिका की धूम थी. एंटी एस्टैब्लिशमेंट के स्वर ने उस पत्रिका को हिंदीपट्टी में काफी उंचाई दी थी. उन दिनों रविवार के कवर पेज पर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे का फोटो काफी चर्चित हुआ था. वह फोटो राज्य की राजनैतिक समझ पर बड़ी टिप्पणी थी. फोटो छपने के बाद मुरारी जी को कोप भी सहना पड़ा था. दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, संडे मेल, चौथी दुनिया, इंडिया टुडे जैसी नामी पत्रिकाओं में बिहार से मुरारी जी की ही तसवीरें होती थीं. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हो या अटल बिहारी वाजपेयी, बिहार दौरे के ऐतिहासिक क्षण मुरारी जी के कैमरे में कैद हैं.1990 के अक्तूबर महीने में प्रभात खबर में मैंने ट्रेनी जर्नलिस्ट के तौर पर काम शुरू किया था. प्रेस कान्फ्रेंस हो या कोई घटना, हम जहां भी जाते, वहां मुरारी जी हाजिर होते थे. हम उम्र में उनसे काफी छोटे थे, पर मौके पर पहुंचनेवालों में वह सबसे पहले होते थे.
कई बार हम ङोंप भी जाते थे, यह सोच कर कि हमें यहां पहले आना चाहिए था. मुरारी जी को आज तक हमने किसी से नाराज होते नहीं देखा. जब भी मिलते, मुसकुराते हुए पूछते, कैसे हो? कैसा काम चल रहा है? मुरारी जी सबको बॉस कह कर बोलते थे. कितना भी बड़ा कोई नेता हो, वह मुरारी जी को देखते ही ज्यादा चौकस और सतर्क हो जाया करता था. क्या पता किस एंगल से वह फ्लैश चमका दें और वह खबर बन जाये? पुरानी तसवीरों का खजाना तो उनके ही पास है. अस्सी के दशक में नक्सली आंदोलन उफान पर था. आंदोलन और भूमिगत नेताओं के बारे में उन तक खबर पहुंच जाती थी. और उस घटना की तसवीर मुरारी जी के पास.
एक पत्रकार के लिए उसका नेटवर्क ही सब कुछ होता है. मुरारी जी ने अपनी लगन से इसे खड़ा किया था. कुछ साल पहले पैट टूट जाने के बाद ठीक हुए, तो भी उसी तरह सक्रिय रहे. बीते 30-35 सालों के दौरान किस बड़े नेता से उनकी पहचान नहीं थी. लेकिन, हमने कभी नहीं सुना कि किसी के पास कोई पैरवी लेकर पहुंचे हों. पटना की सड़कों पर गुजरते हुए स्कूटर से मुरारी जी को आते-जाते देखा जा सकता था. वह अपने काम के प्रति बेहद जुनूनी थे. सुबह-शाम, रात-बिरात, सब उनके लिए एक जैसे थे. उन्हें किसी घटना की खबर मिलने की देर होती थी, वह निकल पड़ते. अपने काम के प्रति ऐसी निष्ठा, समर्पण, ईमानदारी मुरारी जी में ही हो सकती थी. कोई अहंकार नहीं. किसी बात का घमंड नहीं. वरिष्ठता का गुरूर नहीं. साधारण परिवार में पले-बढ़े मुरारी जी की उस नजर से हम सब वंचित हो गये, जो बिहार की वास्तविकताओं व सच्चाइयों का प्रतीक बन गयी थी.