– डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार कमजोर हो रहा है, निर्यात घटता जा रहा है. इसका असर व्यापार संतुलन पर पड़ रहा है. इसके बावजूद सरकार की नीति समझ में नहीं आ रही है. जिस भारत में कोयले का लगभग 29 हजार करोड़ टन का बड़ा भंडार है, वह लगातार और तेजी से विदेशों से कोयला मंगा रहा है. यह आयात 2011-12 में दस करोड़ टन से ज्यादा रहा. इसके एवज में विदेश को बड़ी रकम चुका रहा है. पढ़िए कोयले के उत्पादन, आयात-निर्यात और नीति की गहरी जानकारी रखनेवाले विशेषज्ञ जेएन सिंह की विशेष रिपोर्ट. –
कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण का सबसे पहला और मुख्य उद्देश्य कोयले के उत्पादन पर आत्मनिर्भरता था. प्रणोता स्व मोहन कुमार मंगलम, तत्कालीन खान एवं इस्पात मंत्री ने स्व इंदिराजी की प्रेरणा से कोल माइंस का राष्ट्रीयकरण दो चरणों (1971 तथा 1973) में करवाया. राष्ट्रीयकरण के और भी कुछ उद्देश्य थे, जिनकी चर्चा आगे की गयी है.कोयले की आपूर्ति विदेशों से हो रही है, इससे अधिक चिंता और निंदनीय बात क्या हो सकती है? ऐसा तब जब भारत में कोयले का अकूत भंडार है.
आयात की मात्रा बहुत तेजी से बढ़ रही है. वर्ष 1900-01 में इसकी मात्रा दो करोड़ टन से कुछ कम थी, जो 2010-11 और 2011-12 में क्रमश: बढ़ कर 6.9 करोड़ और 10.3 करोड़ टन हो गयी. शुरुआत में सिर्फ ‘कोकिंग कोल ’ (जिसका व्यवहार मुख्यत: लौह और इस्पात उत्पादन में होता है और इसका भंडार भारत में कम है) का आयात होता था, लेकिन अब तो अन्य प्रकार के कोयले (जो मुख्यत: बिजली व सीमेंट उत्पादन के लिए उपयोग होते हैं) का आयात कोकिंग कोल से तीन गुना से अधिक हो रहा है. यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि जब कच्च तेल (ज्वलनशील) और सोने का आयात होता है, तो कोयले का क्यों नहीं? उत्तर बहुत साफ है. हमारे पास तेल के भंडार की बेहद कमी है और सोने की सभी खानें (कोलार गोल्डफिल्डस, कर्नाटक राज्य स्थित) अब बंद हो गयी है.
इस प्रसंग पर थोड़ी चर्चा पाठकों के लिए रुचिकर होगी. काले कोयले के जलने से हम सबों के घर में उजाला होता है. उसकी उपलब्धता और विविधता से परिचय आवश्यक होते हुए भी विद्वान जानकारों ने इसे समझने का समुचित प्रयास नहीं किया. कोयले के कालेपन और इससे जुड़े ‘माफिया’ और अब ‘कोलगेट’ घोटाले की जानकारी रखने में उनकी अभिरुचि है. अगर श्री विनोद रायजी निवर्तमान सीएजी को कोयला खनन की थोड़ी भी जानकारी होती, तो शायद वे इस घपले को किसी दूसरे रूप में देखते.
दुर्भाग्यवश उन्होंने किसी जानकार माइनिंग इंजीनियर से सलाह भी नहीं ली और सरकारी घाटे का अनुमान 1.86 लाख करोड़ रुपये तक कर दिया. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा विषय है, जो इस लेख का प्रयोजन नहीं है. सिर्फ इतना निवेदन है कि पाठकगण नीचे के पैराग्राफ को पढ़े और इसे अपने दिल-दिमाग में थोड़ी सी जगह अवश्य दें, क्योंकि कोयला अन्न, जल और हवा के बाद सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु है.
कोयले के पुराने इतिहास में न जाकर 1970 के दशक और उसके बाद के समय में कोयला उद्योग की जानकारी आज की पीढ़ी के लिए रोचक होगा. इस उद्योग के राष्ट्रीयकरण का जिक्र ऊपर किया गया है. कोयला उत्पादन में आत्मनिर्भरता के अलावा भी राष्ट्रीयकरण के कारणों का जिक्र स्व कुमार मंगलमजी ने अपनी एक पुस्तक ‘कोल इंडस्ट्री इन इंडिया’ में किया है तथा संसद के भीतर और बाहर स्पष्ट शब्दों में उन्होंने व्याख्यान दिया है. इसे मैं बहुत ही संक्षेप में लिखने की धृष्टता कर रहा हूं.
राष्ट्रीयकरण के पश्चात सकारात्मक पहल और उपहास की चर्चा बहुत ही रुचिकर है. स्व कुमार मंगलमजी ने राष्ट्रीयकरण का पहला कारण कोयला खदानों के मजदूरों को शोषणमुक्त करना बतलाया. ‘शोषण’ का विवरण उन्होंने अपनी पुस्तक में विस्तार से किया है. मजदूरों को अल्प वेतन, आवासीय एवं चिकित्सा सुविधा के अभाव के साथ-साथ उन्होंने कुछ मजदूरों को बंधुआ बना कर रखने तथा बच्चे के जन्म के बाद उसे मालिकों या मैनेजरों को समर्पण कर देने की बात भी लिखी है. राष्ट्रीयकरण के बाद वेतन और सुविधाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई, उसका विवरण देने में तो अनेक पन्ने लगेंगे. लेकिन सिर्फ एक आंकड़े से यह स्पष्ट हो जायेगा.
भारत में मजदूरी की वृद्धि सबसे अधिक (गोदी कामगारों को छोड़ कर) कोयला उद्योग में हुई. न्यूनतम मासिक मजदूरी पहली जुलाई 1975 को 423 रुपये 80 पैसे थी, जो पहली जुलाई 2011 को बढ़ कर 17,565 रुपये 93 पैसे हो गयी. इसे अगर 1960 के मूल्य आधार पर तय किया जाये, तो वास्तविक न्यूनतम वेतन 131 रुपये 61 पैसे से बढ़ कर 413 रुपये 80 पैसे हो गया, जो तीन गुना से भी अधिक है.
दुर्भाग्यवश इस वृद्धि को उत्पादकता से नहीं जोड़ा गया. मैंने इस संदर्भ में एक वृहत प्रारूप बनाया था. यूनियन के हर प्रतिनिधि अकेले में इसे एक अच्छा उपाय मानते हैं, लेकिन जब एक साथ कमेटी में बैठते तो सभी लोग इसका विरोध करते थे. उत्पादकता से संबंध न रखने के कारण कोल इंडिया को अपने कर्मचारियों से खनन करने में घाटा लगने लगा. यूनियन के प्रतिनिधियों ने इतना दबाव डाला कि नौवें समझौते में तो खदान के मैनेजर का वेतनमान ओभर-मैन (स्टॉफ) से भी कम हो गया.
विश्व के प्रशासनिक इतिहास में इस प्रकार की भूल शायद पहली बार हुई हो. वेतन वृद्धि के साथ-साथ सुख सुविधाओं में भी बहुत अधिक वृद्धि हुई. कोल इंडिया के प्रबंधन ने ठेकेदारों द्वारा कोयले का उत्पादन तथा ओवरवर्डेन (कोयले की परत के ऊपर की मिट्टी, पत्थर इत्यादि) को हटवाना जरूरी समझा.
पाठकों को जानकारी हो कि इस प्रकार का काम ठेकेदारों से करवाना ‘कंट्रेक्ट लेवर (रेगुलेशन एंड एवोलीशन) एक्ट, 1970 ’ की धारा 10(1) के तहत नोटिफिकेशन के प्रकाशन द्वारा वजिर्त है. इससे भी अधिक दर्दनाक बात यह है कि ठेकेदारों द्वारा उनके मजदूरों का शोषण शायद राष्ट्रीयकरण के पहले कार्यरत मजदूरों के शोषण से भी अधिक किया जा रहा है. उन्हें वेतन के नाम पर कोल इंडिया के कर्मचारियों से एक चौथाई से भी कम दिया जाता है और आठ घंटों से बहुत अधिक काम क राया जाता है.
ठेकेदार के मजदूरों को भी कानून के तहत (नियम 25 2-वी-ए ‘कंट्रैक्ट लेवर (रेगुलेशन एंड एबोलीशन) सेंट्रल रूल्स, 1971) वहीं वेतन और सुविधाएं मिलन है, जो कोल इंडिया के मजदूरों को समान काम के लिए दी जाती है. उनमें से बहुत कम लोगों को ही कोल माइंस प्रोविडेंट फंड का सदस्य बनाया गया है. इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि संसद के द्वारा पारित कानूनों के घोर उल्लंघन के कारण ठेकेदार के मजदूरों का, जो कोल इंडिया का 62 प्रतिशत से भी अधिक उत्पादन करता है, घोर शोषण हो रहा है.
इसी शोषण की बदौलत कोल इंडिया एक ‘महारत्न’ कंपनी बन गयी है और देश के पांच बड़ी कंपनियों में उसका नाम शुमार हो गया है. बीच-बीच में इसका स्थान प्रथम भी हो जाता है. यहां तक कि रिलायंस इंडस्ट्रीज तथा ओएनजीसी भी पीछे छूट जाता है. जारी
(लेखक माइनिंग इंजीनियर हैं. कोल इंडिया के सहायक कंपनियों में डायरेक्टर रह चुके हैं)