!!संजय कुमार सिन्हा!!
नेल्सन मंडेला की पहचान एक ऐसी शख्सियत के रूप में है, जिसने दुनियाभर में रंगभेद के विरोध में आवाज को बुलंद किया. हालांकि मंडेला एक सम्मानित कबीले ‘थेंबू’ से आते थे, पर उन्होंने बचपन से ही देखा था कि कैसे अश्वेतों के साथ अन्याय किया जाता है. अपने ही देश में श्वेतों-अश्वेतों के अपने-अपने इलाके (स्पेशल रिजव्र्स). शहरी क्षेत्रों में भी अश्वेत समुदाय श्वेतों से अलग रहते थे. वह जब युवा हुए, तो यह फर्क कुछ और समझ में आने लगा. अलग बसें, अलग कोच, ट्रेन, कैफे, टॉयलेट, पार्क में लगने वाली बेंचे, अस्पताल आदि सब अलग थीं. यहां तक कि समुद्री किनारा, और पिकनिक वाले क्षेत्र भी अलग थे. अश्वेत समुदाय के बच्चे श्वेतों के स्कूल में नहीं पढ़ सकते थे. उनके लिए अलग स्कूल थे. हर व्यक्ति को प्रजातीय वर्गीकरण में बांटा गया था. उन्हें विशेष पहचान पत्र दिये जाते थे. अश्वेत लोग जब श्वेतों के इलाके में जाते, तो उन्हें पास लेना पड़ता. अश्वेतों और श्वेतों के बीच विवाह नहीं हो सकता था. पुलिस सख्त निगाह रखती कि कोई नियम तोड़ तो नहीं रहा. इन सब चीजों को मंडेला ने देखा-भुगता था.
जब अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाई लड़नी शुरू की, तो मंडेला भी उससे जुड़ गये. एएनसी के नेता अल्बर्ट लुथूली के साथ मंडेला ने आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया. उनका विरोध शांतिपूर्ण था, पर श्वेत शासन ने इसे भी कुचल दिया. 1960 में जोहांसबर्ग के नजदीक शार्पविले में एक शांत भीड़ पर पुलिस ने गोलियां चलायी और 69 अश्वेत आंदोलनकारी मारे गये. मंडेला मजबूर होकर सैन्य संघर्ष तलाशने लगे. इस घटना के बाद अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और पैन अफ्रीकानिस्ट कांग्रेस को प्रतिबंधित किया गया. 1964 में राजद्रोह के मामले में मंडेला को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी. जेल में रहने पर मंडेला रंगभेद की नीति के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बन कर उभरे. आगे आने वाले दशकों में दक्षिण अफ्रीका में श्वेत शासन के विरोध में आंदोलन जोर पकड़ता गया. विद्रोह का स्वरूप हिंसक भी होता गया. अब यह साफ हो गया था कि अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के बिना श्वेत शासन लंबे समय तक नहीं रह पायेगा. खासकर नेल्सन मंडेला को केंद्र में रखना होगा. 1980 के दशक में नेल्सन मंडेला ने जेल में रहते हुए ही रंगभेदी सरकार और एएनसी के बीच वार्ताएं शुरू कर दी थीं. वह बिना किसी शर्त के 1990 में जेल से रिहा कर दिये गये. इसके कुछ दिन पहले ही अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और पैन अफ्रीकी कांग्रेस से प्रतिबंध भी हटा लिया गया था. जेल में 27 साल गुजारने के बाद, मंडेला ने श्वेत और अश्वेत के बीच भाईचारे की नीति पर बल दिया. आज जो दक्षिण अफ्रीका दिखता है, वह इसी नीति का परिणाम है.
श्वेत-अश्वेत का फर्क नहीं
बिल केलर
केप टाउन: सत्ता जो श्वेतों के हाथ में थी (342 वर्ष पहले जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की धरती पर कदम रखा था, तब से), उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला को चुन कर एक नये युग का सूत्रपात कर दिया. बिना किसी असंतोष और क्षोभ के मंडेला को राष्ट्रपति बनाने की घोषणा की गयी. 90 मिनट के बाद वह पुराने केप टाउन सिटी हॉल में आये और समुद्र की ओर इशारा किया, जहां एक द्वीप पर उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा गुजारा था. उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में अपना पहला भाषण दिया. ‘हम एक विजेता के रूप में दक्षिण अफ्रीका को एक नये संवैधानिक सूत्र में नहीं बांध रहे. हमें अतीत के जख्मों पर मरहम लगाना होगा और आगे आने वाले समय में एक व्यवस्था बनानी होगी, जिसमें सभी को न्याय मिलेगा.’ उनके इस संबोधन के बाद आर्कबिशप डेसमंड टुटू ने माइक्रोफोन संभाला और उत्साह से चिल्लाया,‘आज हम आजाद हैं!’ ‘आज हम आजाद हैं!’
मंडेला ने संसदीय चैंबर में प्रवेश किया, जहां पहले अश्वेतों के प्रवेश पर प्रतिबंध था. मंडेला की स्वागत में कतारबद्ध होकर लोग गीत-संगीत बजा रहे थे. मंडेला अपने पूर्ववर्त्ती एफ डब्लू डे क्लार्क के कंधे पर हाथ रखते हुए चैंबर में दाखिल हुए. वह उस सीट पर बैठे, जहां से पिछले चार साल से क्लार्क रंगभेद के खिलाफ मुहिम छेड़े हुए थे. संसद में लोगों का जमावड़ा था. 75 प्रतिशत अश्वेत, 15 प्रतिशत श्वेत और 10 प्रतिशत भारतीय और मिश्रित प्रजाति के लोग थे.
9 मई 1994 को न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित
अपने विजन के कारण मंडेला लीजेंड बने
रामचंद्र गुहा
इतिहासकार और विचारक
कभी बॉक्सर रहे नेल्सन मंडेला को इस धरती का सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जा सकता है. रंगभेद के खिलाफ लड़ते हुए तीन दशकों तक जेल में गुजारना और तब पूरे देश को एक बहुप्रजातीय लोकतंत्र में बदलना, यह एक ऐसी व्यक्तिगत उपलब्धि है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उन्हें सर्वाधिक महान लोगों की सूची में खड़ा करता है. उनके महान विजन और उदारता के कारण कभी-कभी उनकी तुलना महात्मा गांधी से की जाती है. गांधी की ही तरह, मंडेला की छवि सर्व स्वीकार्य की रही है, जिन्होंने विवादों के बीच सामंजस्य बिठाया. केवल दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में उनकी यही छवि रही है. गांधी के साथ जब मंडेला को रखते हैं, तब और भी कई बातों में समानता दिखती है. ये सभी व्यक्तिगत ब्योरे हैं. जैसे-मंडेला गांधी के दूसरे बेटे मणिलाल के मित्र थे, मंडेला और गांधी दोनों वकील थे, मंडेला और गांधी दोनों जोहांसबर्ग में रहते थे और मंडेला और गांधी दोनों कभी फोर्ट प्रिजन में बंद रहे थे. अब यह जेल दक्षिण अफ्रीका का कंस्टीटय़ूशनल कोर्ट है, जिसके परिसर में मंडेला और गांधी के जीवन से जुड़ी प्रदर्शनी है.
रॉबेन द्वीप जेल में मंडेला के साथ कैद उनके सहयोगी अहमद कथराडा ने उनसे पूछा कि वह गांधी के प्रशंसक क्यों हैं? तब मंडेला ने उत्तर दिया कि हां, वह गांधी के प्रशंसक हैं, पर मेरे हीरो तो नेहरू हैं. उन्होंने अपनी जीवनी लिखने वाले एंथनी सैंपसन को बताया कि ऐसा क्यों है. जब कोई महाराजा भी उनकी राह में रोड़ा अटकाता, तो वे उससे भी निबटने का उपाय जानते थे. वह ऐसे आदमी थे जो जानते थे कि अराजक तत्वों से कैसे निबटना है. नेहरू का यह गुण मंडेला को भाता था. जबकि गांधी तो स्टील के बने थे, लेकिन उनके काम में यह गुण भी बड़े सरल तरीके से दिखता था.
1940 के दशक में मंडेला ने जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा के साथ उनकी सारी पुस्तकें पढ़ी. मंडेला के भाषणों को देखें, तो उनमें अधिकांश नेहरू की पुस्तकों से लिये गये हैं. नेहरू ने कभी लिखा था कि ‘देयर इज नो इजी वाक ओवर टू फ्रीडम’. आगे नेल्सन मंडेला ने सितंबर 1953 में अपने पहले बड़े भाषण में इसी मुहावरा का प्रयोग किया था-‘देयर इज नो इजी वाक टू फ्रीडम एनी वेयर’. दशकों बाद नेहरू दौर का वही मुहावरा मंडेला की आत्मकथा का शीर्षक बनी- ‘लांग वाक टू फ्रीडम’. 1980 में नेल्सन मंडेला को ‘जवाहरलाल नेहरू अवार्ड फॉर इंटरनेशनल अंडरस्टैंडिंग’ से सम्मानित किया गया. चूंकि नेल्सन मंडेला जेल में थे, इसलिए उनके कॉमरेड सहयोगी ओलिवर टैंबो उनके बदले दिल्ली आये और पुरस्कार ग्रहण किया. टैंबो ने अपने एक भाषण में जिक्र किया कि जवाहरलाल के लिए जेल की कोठरियां कोई नयी नहीं थी और यह भी सच है कि कैद करने से उनके विचारों को नष्ट नहीं किया जा सकता था. एक राजनीतिक कैदी के रूप में भी उन्होंने विश्व समुदाय की सेवा की (अंगरेजों की भी), एक स्वतंत्र व्यक्ति से भी बेहतर. नेल्सन मंडेला को अभी 18 साल जेल में बिताते हो गये हैं, पर उनकी आवाज को किसी भी रूप में दबाया नहीं जा सकता और न ही वे दबा पायेंगे. जवाहरलाल नेहरू के विचारों ने मंडेला और टैंबो को प्रेरित किया.
सही मायनों में समाजवादी और आधुनिक विचारों से लैश नेहरू गांधी के मुकाबले इन दक्षिण अफ्रीकी क्रांतिकारियों के अधिक करीब थे. लेकिन एक और पक्ष है, जिस पर चर्चा की जानी चाहिए, जो संभवत: व्यावहारिक भी है. प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू ने रंगभेद के खिलाफ एक विश्व जनमत तैयार करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया. इसलिए टैंबो ने नयी दिल्ली में (1980 में ) अपने भाषण में कहा था कि यदि महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका और भारत में एक नायक की तरह संघर्ष किया, तो नेहरू ने इस संघर्ष को एशिया, अफ्रीका और पूरी दुनिया में कायम रखा. यह आपको जानना चाहिए कि भारत पहला देश था, जिसने 1946 में दक्षिण अफ्रीका से अपने व्यापारिक संबंध तोड़ लिये थे. अप्रैल 1955 में नेहरू ने बांदुंग सम्मेलन में कहा था कि पिछले कुछ सैकड़ों वर्षो में अफ्रीका में जो अनवरत त्रसदी देखने को मिली, उससे बड़ा दुख क्या हो सकता है. मंडेला के ही समकालीन गोर्बाचोव रहे हैं. इन दोनों महान हस्तियों पर नेहरू का प्रभाव देखा जा सकता है.
मंडेला से मिलकर कलाम ने कहा था
एक महान आत्मा
भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी अफ्रीका यात्र के दौरान नेल्सन मंडेला से मुलाकात की थी. मिसाइल मैन के नाम से विख्यात कलाम ने मंडेला को ‘ए माइटी सोल’ कहा था. 16 सितंबर 2004 को कलाम और मंडेला के बीच आमने-सामने 15 मिनट तक बात हुई. फिर दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े मीडिया से मुखातिब हुए. कलाम ने तब बताया था कि कैसे मंडेला जेल में रात में बैठकर अपनी आत्मकथा ‘लांग वॉक टू फ्रीडम’ लिखा करते थे और जेल वार्डन वार्ड में बत्ती जली रहने दे, इसके लिए उसे चाय भी पिलाते थे. कलाम ने अपनी सभी यात्रओं में दक्षिण अफ्रीका की यात्रा को यादगार बताया था.
खेलों से ही होगा राष्ट्र निर्माण-मंडेला
मंडेला का बचपन एक स्पोर्टिग नेशन में ही बीता. पर 27 साल जेल में गुजारने के बाद भी मंडेला उस स्पिरिट को फिर से जिंदा करना चाहते थे, ताकि राष्ट्र का निर्माण किया जा सके. मंडेला के लिए खेल धर्म था. यह स्पष्ट था कि मंडेला खेलों से लोगों को एक करना चाहते थे. खेल ही वह माध्यम था, जिससे लोग अपनी सारी कटुता भूल सकते थे. तभी रंगभेद मिट सकता था.
रॉब हुगेज
इस्तानबुल: दुनिया में ऐसे असंख्य राजनीतिज्ञ हुए हैं, जिन्होंने खेलों की लोकप्रियता को भुनाया है. लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा राजनेता नहीं होगा, जिसका खेलों के प्रति दिल से लगाव रहा हो और जिसने खेलों के जरिये राष्ट्र निर्माण का सपना पाला. नेल्सन मंडेला को बचपन के दिनों से ही दौड़ना पसंद था. जब वह युवा हुए, तो उन्होंने मुक्केबाजी सीखी. जब उन्हें रॉबन द्वीप पर कैद किया गया था, तब वह और उनके साथी खुद को फिट रखने के लिए फुटबॉल खेलते थे. और जब वह आजाद कर दिये गये, तब रंगभेद से कराह रहे दक्षिण अफ्रीका को एकताबद्ध करने के लिए उनके सामने खेलों की शक्ति दिख रही थी, जिसकी सहायता से लोगों को एकजुट किया जा सकता था.
श्वेत-अश्वेत का भेद मिटाकर एक साथ खेलना, एक जैसे टी-शर्ट पहनना, यही तो वास्तविक ताकत थी, जिसके सहारे दक्षिण अफ्रीका को एक ‘इंद्रधनुषी राष्ट्र’(रेंबो नेशन) में तब्दील किया जा सकता था. यही तो नेल्सन मंडेला का सपना था. हम सभी भाग्यशाली हैं कि हम उनसे मिल सके और देख सके कि कैसे एक बच्चे की उत्साह की भांति वह खेलों के जरिये समाज में फैले भयानक प्रजातीय विभाजन को प्रेम और सहृदयता से पाटना चाहते थे. 1995 का रग्बी विश्व कप, 1996 में फुटबॉल का अफ्रीकन कप, 2003 का क्रिकेट वर्ल्ड कप और फिर 2010 का फीफा वर्ल्ड फुटबॉल कप, यह सब दक्षिण अफ्रीका की धरती पर खेले गये. इन खेलों के आयोजन से इस सिद्धांत को बल मिला और एक मायने में स्थापित भी हुआ कि एक साथ खेलने, जश्न मनाने और जीत-हार की भावना का अहसास करने से दूरियां मिट जाती हैं. फिर तो त्वचा के रंग के आधार पर पुरुषों, महिलाओं और बच्चों में भेद करना बिल्कुल वाहियात लगने लगता है. नेल्सन मंडेला के इस अटूट विश्वास ने दक्षिण अफ्रीका में रंग भरा. इसमें कोई शक नहीं कि यह केवल एक आदमी का विजन नहीं था.
उन्होंने हमेशा कहा कि खेलों में दुनिया को बदलने की शक्ति है. इसमें किसी अन्य के मुकाबले लोगों को एकताबद्ध करने की शक्ति है. यह युवाओं की समझ में आने वाली भाषा में बात करता है. जहां कहीं घोर निराशा हो, वहां भी खेल आशा की किरणों बिखेरता है. वह दक्षिण अफ्रीका से प्रजातीय रंगभेद और सभी तरह की सामाजिक कटुता को खत्म करने के लिए कटिबद्ध रहे. अपने सभी भाषणों में उन्होंने खेल की महत्ता को रेखांकित किया. ऐसा कहते हुए एक महान राजनेता का विजन झलकता था. मंडेला के राष्ट्रपति चुने जाने के एक साल बाद 1995 में जब दक्षिण अफ्रीका ने अपनी ही धरती पर रग्बी विश्व कप जीता, तो एक बार में ही खेल ने रंगभेद को ढक कर रख दिया.
जब मंडेला ने हरे रंग की जर्सी पहनी और सिर पर स्प्रिंगबॉक्स की टोपी पहनी, तो जैसे पूरा दक्षिण अफ्रीका खेल में सराबोर हो गया. उन्होंने फ्रांकोइस पिनार को ट्रॉफी दी, जो एकता का प्रतीक (सिंबल ऑफ यूनिफिकेशन) बन गया. तब एक अश्वते राजनेता, स्वतंत्रता सेनानी और अब देश के राष्ट्रपति ने रग्बी के श्वेत कप्तान की प्रशंसा की. यह वह समय था, जब रग्बी को श्वेत खिलाड़ियों का खेल माना जाता था. केवल यही नहीं हुआ, बल्कि फाइनल से पहले राष्ट्रपति ने पिनार को चाय पर आमंत्रित किया. पिनार उस क्षण को अपने जीवन का सबसे ऐतिहासिक क्षण मानते हैं. यह जनता के दिखावे के लिए नहीं था. 1996 के अफ्रीका कप के लिए भी मंडेला ने उसी उत्साह के साथ खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाया. जब फुटबॉल की बात आयी तो मंडेला ने तय कर लिया कि यही राष्ट्र का मुख्य खेल होगा. केपटाउन ने 2004 ओलिंपिक खेलों की मेजबानी का दावा प्रस्तुत किया, पर यह एथेंस को मिल गया. दक्षिण अफ्रीका ने एक बार फिर 2006 वर्ल्ड कप के लिए दावेदारी प्रस्तुत की, पर यह जर्मनी को मिल गया. मंडेला फिर भी रुके नहीं, उन्होंने फीफा की एक्जीक्यूटिव कमिटी से व्यक्तिगत अपील की. मंडेला ने रंगभेद के खिलाफ लड़ने वाले डैनी जोर्दन को जिम्मेदारी सौंपी, ताकि 2010 का विश्व कप दक्षिण अफ्रीका में लाया जा सके. जहां भी मंडेला की जरूरत होती, वह वहां मौजूद रहते. जब 2010 आयोजन से छह साल पहले निर्णय ले लिया गया, तब मंडेला ने कहा कि उन्हें ऐसा लग रहा है कि एक 15 वर्षीय किशोर का सपना पूरा होना वाला है.
अफ्रीका के समक्ष चुनौती थी दुनिया में साबित करने की वह ऐसे बड़े आयोजन कर सकता है. दुनिया के 32 देश इसमें भाग ले रहे थे. मंडेला ने कहा ‘कि नेको’ यानी यही समय है. चूकना नहीं है. आयोजन को सफल बनाने के लिए बड़े स्तर पर होटल, एयरपोर्ट, सड़कें, स्टेडियम बनाने थे, इन सबको दक्षिण अफ्रीका ने पूरा करके दिखाया. विश्व कप की ओपनिंग की पूर्व संध्या पर एक दुर्घटना में उनकी 13 वर्षीय परपोती चल बसी. खुशी का माहौल गम में बदल गया. मंडेला उद्घाटन समारोह की रात में नहीं आये, लेकिन फाइनल में वह स्टेडियम में दिखे. तब मंडेला की कही वही बात याद रही थी कि ‘हमने कर दिखाया’. सचमुच मंडेला ने कर दिखाया. एक व्यक्ति का विजन साकार हो उठा था. खेल तो साधारण होते हैं, खेले जाते हैं, पर खेलों की दीवानगी वाले ऐसे असाधारण व्यक्तित्व खेल और राष्ट्र की गरिमा को बहुत ऊपर उठा देते हैं.
न्यूयॉर्क टाइम्स