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मिसाल: इंसाफ और जिंदगी के लिए एक लड़की की जद्दोजहद,कोई मुश्किल उसे तोड़ न सकी
महज 20 साल की उम्र में अपहरण, सामूहिक दुष्कर्म, विकलांगता का शिकार होना और फिर अपनों द्वारा ठुकराया जाना. ऐसे हालात में कोई भी जीने की आस छोड़ सकता है. लेकिन राजस्थान के चित्ताैड़गढ़ जिले के फतेहपुरा गांव की साधारण सी दिखने वाली सीता ने असाधारण साहस दिखाते हुए तमाम दुश्वारियों को धता बताया. आज […]
महज 20 साल की उम्र में अपहरण, सामूहिक दुष्कर्म, विकलांगता का शिकार होना और फिर अपनों द्वारा ठुकराया जाना. ऐसे हालात में कोई भी जीने की आस छोड़ सकता है. लेकिन राजस्थान के चित्ताैड़गढ़ जिले के फतेहपुरा गांव की साधारण सी दिखने वाली सीता ने असाधारण साहस दिखाते हुए तमाम दुश्वारियों को धता बताया. आज वह शिक्षा को औजार बना कर अपनी जिंदगी को नये सिरे से गढ़ रही है.
सेंट्रल डेस्क
सीता (बदला हुआ नाम) का पहले अपहरण किया गया, फिर सामूहिक दुष्कर्म और फिर उसे रेल की पटरी पर मरने के लिए छोड़ दिया गया. इसके बाद उसे उसकी अपनी ही मां ने ठुकरा दिया. 20 साल की छोटी सी उम्र में सीता ने इन सारी भयानक स्थितियों का बड़े हिम्मत से मुकाबला किया है. उसने न केवल अपने दुष्कर्मियों को सजा दिलवायी, बल्कि आज वह अपने जीवन को नये सिरे से गढ़ने की कोशिश कर रही है.
अपने साथ यह सब होने से पहले सीता अपनी विधवा मां की आर्थिक मदद के लिए एक दिहाड़ी मजदूर का काम करती थी. एक बार किसी सहकर्मी के साथ किसी बात को लेकर उसकी झड़प हो गयी. इस पर उसने अपने कुछ साथियों के साथ, जिनमें से एक फतेहपुरा गांव का सरपंच भी था, काम से लौट रही सीता को अगवा कर लिया और चलती गाड़ी में उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया. बाद में उन्होंने बेहोश सीता को रेल की पटरियों पर मरने के लिए फेंक दिया. संजोग से सीता के केवल पैर ही कटे और जान बच गयी.
अब मजदूर मां के लिए सीता एक बोझ से ज्यादा कुछ नहीं थी. बहरहाल, उसने अपने साथ ज्यादती करनेवालों पर मुकदमा किया और जेल तक पहुंचाने में सफल रही. लेकिन सीता की मां पैसों के लालच में पड़ कर दोषियों पर से आरोप वापस लेने के लिए उस पर दबाव बनाने लगी. सीता के नहीं मानने पर उसने बेटी को अपनी जिंदगी से अलग कर लिया. उसके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था. ऐसे में पुलिस उसे ‘प्रयास’ नामक एक गैर सरकारी संस्था मे ले आयी. यह संस्था इस इलाके में गरीबों को उनके स्वास्थ से जुड़े अधिकार दिलाने मे मदद करती थी. और इस तरह सीता आधारशिला आवासीय विद्यालय पहुंची जो गरीब, आदिवासी महिलाओं के लिए ‘प्रयास’ द्वारा चलाया जा रहा था.
आधारशिला में आना सीता के जीवन का सबसे खूबसूरत पड़ाव साबित हुआ. यहां उसका परिचय किताबों से हुआ जो उसके जीवनभर के साथी बन गये. यही नहीं, सीता ने अपनी प्रवेश परीक्षा भी पास की और उसे पास ही के सरकारी स्कूल, कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में आठवीं कक्षा में दाखिला भी मिल गया. इसी बीच सीता के साहस से प्रभावित होकर एक जर्मन पत्रकार ने उसे कृत्रिम पैर उपलब्ध कराये, जिससे सीता को अब चलने में आसानी होती है.
बहरहाल, आधारशिला में रह कर इन लड़कियों को एक उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद मिलती है. पिछड़ी जाति की लड़कियों में शिक्षा स्तर को बढ़ाने के लिए इस विद्यालय की शुरुआत हुई. लेकिन आज यहां कई ऐसी लड़कियां हैं जो शहर में रहनेवाली लड़कियों से कम से कम शिक्षा के मामले में तो पीछे नहीं ही हैं. यहां से पढ़ाई पूरी कर लड़कियों को कस्तूरबा विद्यालय में दाखिला मिलता है, जहां वे 12वीं कक्षा तक पढ़ सकती हैं.
इस विद्यालय में पढ़नेवाली रीना, ममता, विजया, शीला की भी कहानी कमोबेश सीता से मिलती-जुलती है. किसी के मां-बाप नहीं हैं, तो किसी को बेटी होने की ‘सजा’ मिल रही है. लेकिन ये सभी लड़कियां आज अपने अतीत को भूल कर भविष्य के सपने गढ़ने में जुटी हैं. इनमें से कोई शिक्षिका बनना चाहती है तो कोई नर्स. किसी की तमन्ना डॉक्टर बनने की है तो किसी की पुलिस अफसर बनने की. सही मायने में यह एक ऐसा स्कूल है जहां उम्मीदें जन्म लेती हैं और सपने पूरे होते हैं.
(इनपुट : दवीकेंडलीडर.कॉम)
मैं जब स्कूल में होती हूं, बेहद खुश होती हूं. मेरी वहां कई सहेलियां हैं. हर दिन मेरी किताबें मुङो कुछ ना कुछ नया सिखाती हैं. इसके साथ ही मैं कपड़े सीना भी सीख रही हूं, ताकि मैं आत्मनिर्भर बन सकूं. जब छुट्टियां होती हैं और बाकी की लड़कियां अपने-अपने घर जाती हैं, तो भी मैं हॉस्टल में ही रहती हूं. अपने घर की याद आती है, पर मुङो किसी भी बात का मलाल नहीं है.’
सीता (बदला नाम)
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