– उत्तराखंड में प्रकृति की विनाशलीला जारी है. बारिश के बाद मची तबाही में मृतकों की संख्या सौ के पार जा चुकी है. आशंका जतायी जा रही है कि पानी के उतरने के बाद इस संख्या में और इजाफा हो सकता है. राज्य के पहाड़ों पर चार धाम की यात्रा के लिए गये हजारों पर्यटक जहां-तहां फंसे हैं. क्या यह महज प्रकृति का प्रकोप है? जानकारों की मानें, तो उत्तराखंड की इस तबाही के पीछे प्राकृतिक वजहों से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभायी है बिन सोचे-समझे किये जानेवाले विकास ने, जिसने वहां के पारिस्थितिकी तंत्र को एक तरह से नष्ट कर दिया है. उत्तराखंड में आये प्रकृति के प्रकोप के कारणों की पड़ताल करता विशेष .. –
।। चंडीप्रसाद भट्ट पर्यावरणविद् ।।
उत्तराखंड की यह तबाही पूरी तरह मानव निर्मित है. यह सही है कि बारिश औसत से ज्यादा हुई है, लेकिन सिर्फ ज्यादा बारिश से मौजूदा कहर नहीं बरपा है. इसके पीछे दशकों से पहाड़ के साथ मानव द्वारा किये जा रहे खिलवाड़ का हाथ है. भारी बरसात ही नहीं हमारी कारगुजारियां भी इस आपदा के लिए कसूरवार हैं. अगर धरती के संतुलन को भंग किया जायेगा, तो वह बौखलायेगी ही. पिछले लंबे समय से पूरे उत्तराखंड में कई प्रकार के अनियोजित निमार्ण हो रहे हैं. इसके दुष्प्रभाव से अलकनंदा और भागीरथी जैसी नदियां ही क्या, छोटे-छोटे नदी-नाले भी विध्वंसकारी रूप में आ गये हैं.
पिछले दिनों जब मैं गंगोत्री गया था, तो मैंने देखा सड़क चौड़ीकरण के नाम पर बड़े पैमाने पर पहाड़ काट कर उसका मलबा भागीरथी में डाला जा रहा है. ऐसी ही कारगुजारियों का परिणाम है कि नदी के किनारे बसे उत्तरकाशी जैसे इलाकों में भारी तबाही हुई. पहले हमारे यहां एक कहावत थी-‘नदी तीर का रोखड़ा जत-कत शोरो पार’ अर्थात नदी के किनारे जो बसावट होती है, वह हमेशा खतरे में रहती है. पहले केदारनाथ और बदरीनाथ की चट्टियां नदी के बहुत ऊपर थीं.
इधर के वर्षों में बिलकुल नदी के किनारे-किनारे लोगों ने मकान बना लिये, होटल बना लिये. इस तरह से लोग स्वयं नदियों की परिधि में बिना नतीजा सोचे दाखिल हो गये. नदी का उफनना अस्वाभाविक नहीं है, उसकी परिधि में घुसे चले जाना अस्वाभाविक है, जिसका खामियाजा आज भुगतना पड़ा है. शासन-प्रशासन ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया.
पीछे मुड़ कर देखें, तो अलकनंदा और भागीरथी आज ही नहीं बौखलायीं, पहले भी इनमें कई बार उफान आया है. इतिहास साक्षी है कि अलकनंदा में 1868, 1880, 1894 और 1970 में प्रलंयकारी बाढ़ आयी थी. इनसे ऊपरी इलाकों में तो नुकसान नहीं हुआ था, लेकिन अलकनंदा के किनारे के क्षेत्रों में बहुत तबाही हुई थी. इसी प्रकार उत्तरकाशी में सन् 1700 में प्रलंयकारी बाढ़ आयी थीं, वहां के स्थानीय गीतों में इसका जिक्र आता है. इसमें 3 गांव डूब गये थे और एक लंबी झील बन गयी थी. एक पहाड़ भी टूटा था.
वर्ष 1978 में एक जगह भागीरथी रुक गयी थी और भयंकर तबाही हुई थी. यह स्थितियां पूरे उत्तराखंड में रही हैं. लेकिन पहले इन आपदाओं के बीच का जो अंतर था, वह 20 से 40 वर्ष का होता था. लेकिन इधर 2008 से हम देख रहे हैं, 2009, 2010, 2011, 2012 और अब 2013 में भी लगातार इस तरह की छोटी-बड़ी आपदाओं का कहर जारी है. बारिश तो हर साल आयेगी ही, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि हम उसे कैसे लेते हैं. जब तक बारिश की बूंदें आसमान में रहती हैं, तब तक तो ठीक है, लेकिन जैसे ही वो धरती पर जाती हैं, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम उनके लिए किस प्रकार का प्रबंध करते हैं. बारिश हमारा विकास भी कर सकती है और विनाश भी कर सकती है.
प्रकृति से बीते वर्षों के दौरान बहुत भिन्न-भिन्न तरीके से छेड़खानी की गयी है. हम हिमालय को बहुत संवेदनशील मानते हैं. हिमालय के बारे में कहा जाता है कि यह युवा पहाड़ है. यह जानते हुए इसकी अनदेखी की जा रही है.
मैं जब बचपन में केदारनाथ गया था, वहां बसावट न के बराबर थी. मंदिर के अलावा गिनती के ही छोटे-छोटे घर थे. लेकिन अब तो उसका बहुत ज्यादा विस्तार हो गया है. कई होटल और धर्मशालाएं वहां बन गयी थीं. केदारनाथ के साथ ही रामबाड़ा, गौरीकुंड और उससे नीचे रुद्रप्रयाग तक पहले यात्रा मार्ग में चट्टियां होती थीं, वो भी नदी से पर्याप्त दूरी पर. अभी तो नदी से सट कर होटल बना दिये गये हैं. हिमालयन गेजिटयर में 1884 में बदरीनाथ के बारे में लिखा गया था कि वहां सालभर में दस हजार के करीब यात्री जाते थे. कभी जब हरिद्वार में कुंभ होता था, तब उनकी संख्या बहुत हुई तो पचास हजार तक हो जाती थी. लेकिन अब प्रतिदिन दस से बीस हजार यात्री बदरीनाथ और केदारनाथ जा रहे हैं. इसका वहां के पर्यावरण पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा.
– पहले हमारे यहां एक कहावत थी-‘नदी तीर का रोखड़ा जत-कत शोरो पार’ अर्थात नदी के किनारे जो बसावट होती है, वह हमेशा खतरे में रहती है. पहले केदारनाथ और बदरीनाथ की चट्टियां नदी के बहुत ऊपर थीं. इधर के वर्षो में बिलकुल नदी के किनारे-किनारे लोगों ने मकान बना लिये, होटल बना लिये. –
बांध निर्माण भी इस आपदा को बढ़ाने में काफी हद तक जिम्मेदार है. बांध बनाने के लिए धरती को खोद-खोद कर जो मिट्टी निकाली जा रही है, विस्फोट किये जा रहे हैं, उससे पहाड़ों में कंपन हो रहा है. इससे पहाड़ बिल्कुल जजर्र हो गये हैं. हमको यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि ये युवा और संवेदनशील पहाड़ हैं. इस बात को जानते हुए भी पहाड़ों पर जो बांध बना रहे हैं, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि कहीं बिजली के लिए हमारा पूरा अस्तित्व ही न समाप्त हो जाये.
विकास हर किसी की जरूरत है, लेकिन वह ऐसा हो कि पर्यावरण भी बना रहे. मोटर सड़क में अगर हम पत्थर की दीवार बनाएं, तो उससे जिस प्रकार अभी मिट्टी बह कर नदियों में आ रही है, वह कम से कम आयेगी. दूसरा नदियों के किनारे एकदम मुहाने पर न बसने की पहले से चली आ रही परंपरा को मानना होगा.
इधर लगातार नदियों के किनारे नये भवन और होटल बन रहे हैं. नदी की अपनी मर्यादा होती है. यह देखना चाहिए कि नदी का पिछला इतिहास क्या रहा है? बाढ़ का स्तर हर बार कहां तक बढ़ा? उसके तट से सट कर पक्का निर्माण नहीं करना चाहिए. इसके साथ ही धरती को हरितिमा से भरना होगा. चाहे वह छोटी वनस्पति हो या बड़ी वनस्पति, उसमें बारिश की तेज बूंदों को समाहित करने की क्षमता होती है. इससे प्रकृति खुद को खुद में ही समा लेती है.
हमारे यहां नुकसान का आकलन इनसानों की मृत्यु के आंकड़े के आधार पर किया जाता है. लेकिन इस तरह की आपदा में प्राकृतिक संपदा की भी बड़े पैमाने पर क्षति होती है. लोगों के खेत, मकान, मवेशी तबाह होते हैं. केदारनाथ के रास्ते में गंगा किनारे सोनप्रयाग और चंद्रपुरी में बहुत से होटल बना लिये गये थे. वह सब धराशायी हो गये. असल में यहां पर पिछले दस बीस वर्षो से तथाकथित विकास के लिए धरती को खोदा जा रहा है. इससे आगे चलकर मौजूदा तबाही से बड़ी तबाही झेलनी पड़ सकती है. इस आपदा से सबक लेकर प्रकृति और पारिस्थितिकी के साथ सामंजस्य ओर साहचर्य का विकास करना ही एक मात्र रास्ता है.
(बातचीत : प्रीति सिंह परिहार)
* विकास के मौजूदा पैटर्न की देन है यह तबाही
।। सुंदरलाल बहुगुणा ।।
(पर्यावरणविद्)
यह प्रकृति का प्रकोप नहीं यह इनसान की बनायी हुई तबाही ज्यादा है. विकास का जो पैटर्न हमने अपनाया है, कंक्रीट का जिस तरह जाल बिछा दिया गया है जगह-जगह, उससे मिट्टी में पानी को जज्ब करने की शक्ति कम हो गयी है. इससे सारा पानी बह कर नीचे आ जाता है और अपने साथ तबाही का मलबा भी लाता है. पूरे उत्तराखंड को पानी रोकने वाले पेड़ों से ढका रहना चाहिए, तब जाकर इस तरह की आपदाओं को विकराल होने से रोका जा सकता है.
दूसरा, अंगरेजों ने जो पूरे पहाड़ में चीड़ के पेड़ की नींव डाल दी थी, उनमें पानी रोकने की क्षमता नहीं होती. ये पेड़ मिट्टी को भी नहीं बांध पाते. इसलिए इस तरह की आपदा का मुख्य कारण चीड़ के साथ नदियों के किनारे हो रहा निर्माण और बड़े बांध हैं. पूरे उत्तराखंड में प्राकृतिक बांध बनाये जाने चाहिए, मित्र डैम. चीड़ की जगह पानी को रोकने वाले पेड़े जैसे बांज-बुरांश लगाये जाने चाहिए. ये जो कृत्रिम बांध बनाये गये हैं, इनके टूटने से एक तो बाढ़ का खतरा है, दूसरी बात यह है कि ये तात्कालिक समाधान हैं पानी की समस्या से निपटने के लिए. ऐसी आपदाओं के लिए सरकार जिम्मेवार है, जो विकास की गलत नीतियों को आगे बढ़ा रही है. इस आपदा से स्थानीय लोग सबसे ज्यादा नुकसान उठाते हैं. पानी जो उनके लिए वरदान होना चाहिए, उन्हें तबाही दे रहा है. यह उत्तराखंड की तबाही तो है, लेकिन विभिन्न रूपों में इसका नुकसान पूरे देश को उठाना होगा.
– अंगरेजों ने जो पूरे पहाड़ में चीड़ के पेड़ की नींव डाल दी थी, उनमें पानी रोकने की क्षमता नहीं होती. ये पेड़ मिट्टी को भी नहीं बांध पाते. इसलिए इस तरह की आपदा का मुख्य कारण चीड़ के साथ नदियों के किनारे हो रहा निर्माण और बड़े बांध हैं. –
ऐसी आपदाओं से होनेवाली तबाही से पर्यावरण के संरक्षण से ही बचा जा सकता है. हमारी सरकारें ऐसी आपदाओं से भी सबक नहीं लेतीं. उन्हें समझना होगा कि प्रकृति को बचाने के अलावा अपने अस्तित्व को बचाने का और कोई रास्ता नहीं. उत्तराखंड में तत्काल पेड़ों की कटाई और खनन को रोकने की जरूरत है.
विकास के नाम पर जो कुछ पिछले चंद दशकों से हो रहा है, वह पहाड़ की प्रकृति के विपरीत है. ऐसी आपदाओं को रोकने के लिए पहाड़ी ढालों को पेड़ों से भरना होगा. लेकिन विकास की मौजूदा दौर में पहाड़ की पारिस्थितिकी को बेतरह नुकसान पहुंचाया गया है. एक ऐसी व्यवस्था विकसित करनी होगी, जिसमें लोग मजबूत जड़ों वाले पेड़ लगाएं और इसे रोजगार से भी जोड़ें. पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई को भी रोकने की जरूरत है. अगर अब भी हमने अपने को बचाने के ये रास्ते नहीं अपनाए, तो इस तरह की तबाही होती रहेगी.
(बातचीत : प्रीति सिंह परिहार)
* माफियाओं ने खोखला कर दिया पहाड़ों को
।। मंगलेश डबराल ।।
(वरिष्ठ कवि)
उत्तराखंड में मची प्राकृतिक तबाही को प्रकृति का प्रकोप कहना वास्तव में अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ने जैसा है. पिछले पांच वर्षों से उत्तराखंड में लगातार प्राकृतिक आपदाओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. बादल फटने और भीषण बारिश जैसे प्राकृतिक प्रकोप आम हो गये हैं. बदलते हुए मौसम के हिसाब से राज्य के नेताओं और नौकरशाहों को जिस तरह की तैयारी करनी चाहिए, वैसी कोई तैयारी वहां नहीं दिखाई देती.
पिछले साल अगस्त में उत्तरकाशी में भागीरथी के उस पार बसे जोशियाड़ा में भीषण बाढ़ आयी थी. इस बाढ़ में लोगों के घरों की नींव में पानी भर आया था. हिंदी के प्रमुख कवि और पद्मभूषण लीलाधर जगूड़ी का घर भी इससे प्रभावित हुआ था. नींव में पानी आने से लोगों के घरों की बुनियाद कमजोर हो गयी. लेकिन इसको ठीक करने की ओर प्रशासन का कोई ध्यान नहीं गया. यहां लोगों के घर पानी की धार की दिशा में बने हैं. यानी तेज पानी की धार उस ओर की मिट्टी को काटती है, जिस ओर मानव बसाव है. इस दिशा में इस साल अप्रैल में जाकर काम शुरू हुआ. जाहिर है यह देरी प्रशासनिक नाकामी के कारण हुई. आज बाढ़ के खतरे से पूरा जोशियाड़ा कस्बा खतरे में है. लोग यहां अपने घरों में सोते तक नहीं हैं.
– उत्तराखंड में विकास के स्थानीय मॉडल को दरकिनार किया जा रहा है. जबकि पहाड़ों को इसी मॉडल से बचाया जा सकता है. यह मॉडल प्रकृति को जीवन के बीच ही संरक्षित करने पर जोर देता है –
उत्तराखंड में जो हो रहा है, उसे किसी भी तरह सिर्फ प्राकृतिक आपदा नहीं माना जा सकता. इसके लिए एक बड़ा कारण यहां हो रहा अंधाधुंध निर्माण है. यहां बड़े पैमाने पर भवनों का निर्माण किया जा रहा है. हिमालय जैसे कच्चे पहाड़ पर अगर आठ-नौ मंजिले मकान बनाये जायेंगे, तो स्वाभाविक है कि यह नुकसानदेह साबित होगा.
मैदान के लोग चाहे धार्मिक पर्यटन के कारण आ रहे हों, या सैर-सपाटे के लिए उन्हें पहाड़ों में भी फाइव स्टार सुविधाएं चाहिए. पहाड़ के लोगों ने ऐसी सुविधाओं की मांग नहीं की थी. उनका जीवन अपने पर्यावरण के साहचर्य में रहा है. लेकिन आज उन्हें भी इस विकास का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. राज्य में भवन माफियाओं के साथ ही खनन माफियाओं ने भी हालात को इस स्थिति में पहुंचाने में अपनी भूमिका निभायी है. पहाड़ी नदियों से सारे बड़े पत्थर निकाल लिये गये हैं.
स्थानीय पारिस्थितिकी का ख्याल रखे बिना राज्य में बड़े पैमाने पर जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण का काम चल रहा है. विकास के स्थानीय मॉडल को दरकिनार किया जा रहा है. जबकि पहाड़ों को इसी मॉडल से बचाया जा सकता है. यह मॉडल प्रकृति को जीवन के बीच ही संरक्षित करने पर जोर देता है. उत्तराखंड में अभयारण्यों में तो जंगलों का संरक्षण किया जा रहा है, लेकिन बाकी पेड़-पौधों को नष्ट किया जा रहा है. उत्तराखंड की मौजूदा तबाही इन वजहों की ही देन है.
* नदियों की धारा मोड़ने का परिणाम है यह विनाशलीला
।। विवेक शुक्ला ।। (वरिष्ठ पत्रकार)
उत्तराखंड में जिस विनाशलीला को देश देख रहा है, उसके मूल में हमारा वहां पर प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना है. यहां की सरकारों ने केंद्र के साथ मिलकर राज्य में अनगिनत विद्युत परियोजनाएं शुरू की हैं. सरकार गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करती है, पर भागीरथी नदी अब पहाड़ी घाटियों में ही खत्म होती जा रही है. अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोड़ा आगे बढ़ कर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रवाह में देखना अब मुश्किल हो गया है.
गंगोत्री के कुछ करीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व खत्म सा हो गया है. उस इलाके में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाकी प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखायी देगा या वह नाले की शक्ल में दिखाई देगी. यही हालत अलकनंदा की भी है.
ध्यान रहे कि इस तरह के हालात तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है, बाकी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है. एक अनुमान के मुताबिक राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई करीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी. जोशीमठ जैसा पौराणिक महत्व का नगर पर्यावरण से हो रहे इस मनमाने खिलवाड़ की वजह से खतरे में है. उसके ठीक नीचे पांच सौ बीस मेगावाट की विष्णुगाड़-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है.
डरे हुए जोशीमठ के लोग कई मर्तबा आंदोलन कर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर चुके हैं. लेकिन उनकी मांग सुनने के लिए सरकार के पास समय नहीं है. कुमाऊं के बागेश्वर जिले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना पर अमल शुरू हो चुका है.
हैरत की बात है कि उत्तराखंड जैसे छोटे भूगोल में 558 छोटी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. इन सभी पर काम शुरू होने पर वहां के लोग कहां जाएंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं है. राज्य और केंद्र सरकार इस हिमालयी राज्य की पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता को नहीं समझ रही है. सरकारी जिद की वजह से टिहरी में बड़ा बांध बन कर तैयार हो गया है. दुनियाभर के भूगर्ववैज्ञानिक इस को कई बार कह चुके हैं कि हिमालयी पर्यावरण ज्यादा दबाव नहीं झेल सकता इसलिए उसके साथ ज्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं. लेकिन इस बात को समझने के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल तैयार नहीं हैं.
आज पहाड़ी इलाकों में विकास के लिए एक ठोस वैकल्पिक नीति की जरूरत है. जो वहां की पारिस्थितिकी के अनुकूल हो. ऐसा करते हुए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक और भूगर्भीय स्थितियों का ध्यान रखा जाना जरूरी है. इस बात के लिए जब तक हमारी सरकारों पर चौतरफा दबाव नहीं पड़ेगा तब तक वे विकास के नाम पर अपनी मनमानी करती रहेंगी और तात्कालिक स्वार्थों के लिए कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने पक्ष में खड़ा कर विकास का भ्रम खड़ा करती रहेंगी. लेकिन एक दिन इस सब की कीमत आने वाली पीढ़ियों को चुकानी होगी.
आज उत्तराखंड में अनगिनत बांध ही नहीं बन रहे हैं बल्कि कई जगहों पर अवैज्ञानिक तरीके से खड़िया और मैग्नेसाइट का खनन भी चल रहा है. इसका सबसे ज्यादा बुरा असर अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिलों में पड़ा है. इस वजह से वहां भूस्खलन लगातार बढ़ रहे हैं. नैनीताल में भी बड़े पैमाने पर जंगलों को काट कर देशभर के अमीर लोग अपनी ऐशगाह बना रहे हैं. अपने रसूख का इस्तेमाल कर वे सरकार को पहले से ही अपनी मुट्ठी में रखे हुए हैं.
पर्यारण से हो रही इस छेड़छाड़ की वजह से ग्लोबल वार्मिग का असर उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहा है. वहां का तापमान आश्चर्यजनक तरीके से घट-बढ़ रहा है. ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं. इस तरह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गया है.
– उत्तराखंड में तबाही के पांच मुख्य कारण
1. 24 घंटे में 220 मिली, यानी सामान्य से 300 फीसदी ज्यादा बरसात
इस साल मानसून की रफ्तार काफी तेज रही और यह अपने निर्धारित समय से कम से कम पंद्रह दिन पहले पूरे भारत में छा गया. समय से पहले और औसत से ज्यादा बारिश ने उत्तराखंड में इस विनाशलीला को रचने में अपनी अहम भूमिका निभायी. उत्तराखंड में 16 जून को ही 24 घंटे के भीतर 220 मिलीलीटर से ज्यादा बारिश हुई, जो सामान्य से 300 फीसदी ज्यादा है. लेकिन मौजूदा तबाही की वजह सिर्फ ज्यादा बारिश नहीं है.
2. पहाड़ पर पारिस्थितिकी तंत्र को पहुंचाया गया नुकसान
विकास के मौजूदा पैटर्न ने पहाड़ के पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुंचाया है और उसे एक हद तक खोखला किया है. पेड़ों को काटकर, ढलान पर मकान और होटलों के निर्माण ने पहाड़ पर प्रकृति के संतुलन को नष्ट कर दिया है.
3. सड़क निर्माण के कारण अस्थिर हो रही पहाड़ियां
डाउन टू अर्थ में प्रकाशित ज्योत्सना सिंह के लेख के मुताबिक सड़कों के विस्तार ने हिमालय में एक नयी किस्म की परिघटना को जन्म दिया है, जो पहाड़ के विघटन का व्यापक कारक बनते जा रहे हैं. उत्तराखंड राज्य परिवहन विभाग के आंकड़ों से इस बात की पुष्टि होती है. वर्ष 2005-06 में राज्य में पंजीकृत वाहनों की संख्या 83,000 थी, जो 2012-13 में बढ़ कर एक लाख अस्सी हजार तक पहुंच चुकी है. इसमें वैसे कार, जीप एवं टैक्सी आदि शामिल हैं जो बाहर से आनेवाले पर्यटकों के लिए यातायात के साधन का प्रमुख जरिया हैं. वर्ष 2005-06 में ऐसे पंजीकृत वाहनों की संख्या तकरीबन चार हजार थी, जो 2012-13 में एकदम से 40 हजार के आंकड़े पर पहुंच गयी- यानी इसमें दस गुना बढ़ोतरी हो गयी. यह सर्वविदित तथ्य है कि पर्यटन में वृद्धि का भूस्खलनों की बढ़ती संख्या से सीधा संबंध है.
4. पर्यटन का विकास और होटलों व घरों का निर्माण
चाहे धार्मिक हो या सैर-सपाटे वाला, उत्तराखंड में पर्यटन काफी जोर पकड़ चुका है. उत्तराखंड में हर साल पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इनके लिए नये-नये होटलों का निर्माण किया जा रहा है. पहाड़ों की भंगुर संरचना का ख्याल किये बगैर कई-कई मंजिलों की इमारतों का निर्माण किया जा रहा है, जबकि पहाड़ों पर अधिक से अधिक दो मंजिले घर ही बनाये जा सकते हैं.
5. बड़ी संख्या में हो रहा बांधों का निर्माण
उत्तराखंड में बड़ी संख्या में हो रहे बांधों के निर्माण ने भी वहां की पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाया है. आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में इस समय भी 500 से ज्यादा बांध निर्माण परियोजनाएं कार्यरत हैं. इन परियोजनाओं के द्वारा नदी की धारा को कृत्रिम तरीके से बांधने का काम किया जा रहा है. इसने भी वहां की पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाया है.