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कृषि एवं वन के विकास से बदल सकती है सूरत

राशिद किदवई वरिष्ठ पत्रकार राज्य में वन क्षेत्र काफी है, साथ ही कृषि के विकास की भी अपार संभावनाएं हैं. वन उत्पादों का बेहतर बाजार उपलब्ध करा कर आदिवासियों के जीवन स्तर को सुधारा जा सकता है. राज्य में कृषि क्षेत्र का विकास कर ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आय में बढ़ोतरी की जा सकती […]

राशिद किदवई
वरिष्ठ पत्रकार
राज्य में वन क्षेत्र काफी है, साथ ही कृषि के विकास की भी अपार संभावनाएं हैं. वन उत्पादों का बेहतर बाजार उपलब्ध करा कर आदिवासियों के जीवन स्तर को सुधारा जा सकता है. राज्य में कृषि क्षेत्र का विकास कर ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आय में बढ़ोतरी की जा सकती है.
लंबे संघर्ष के बाद बना झारखंड विकास के मामले में काफी पिछड़ गया है, जबकि साथ में बने उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में इस दौरान काफी विकास हुआ है. सवाल है कि संसाधनों के बावजूद झारखंड विकास की दौड़ में कैसे पीछे छूट गया? इसकी सबसे बड़ी वजह है राजनीतिक अस्थिरता. गठन के बाद से जहां छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में स्थायी सरकारों का गठन हुआ, वहीं झारखंड में अब तक किसी स्थायी सरकार का गठन नहीं हो पाया. सरकारों की अस्थिरता से विकास प्रभावित होता है. जहां भी अस्थिर सरकारें रही हैं, वहां विकास कम और भ्रष्टाचार ज्यादा देखने को मिला है. ऐसा नहीं है कि स्थायी सरकारों के कार्यकाल में भ्रष्टाचार नहीं होते, लेकिन नीतियों में निरंतरता रहती है और विकास के काम भी होते हैं. बेहतर शासन और सोच से किसी भी राज्य का तेजी से विकास किया जा सकता है.
झारखंड में गठन के बाद से ही एक मजबूत और स्वीकार्य नेतृत्व की कमी रही है. शुरू में झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन से उम्मीद थी कि वे राज्य के विकास को एक नयी गति देने में सफल होंगे, लेकिन वे इसमें विफल साबित हुए. विभिन्न दलों के सहयोग से बनी सरकारों में दबाव की राजनीति हावी रही और राज्य में विकास की गति रुक गयी. सरकार में शामिल घटक दलों में राज्य के विकास को लेकर कोई सोच नहीं रही है. उनका मकसद सिर्फ सत्ता पर किसी प्रकार काबिज होना रहा है. इसमें राष्ट्रीय दलों की भूमिका भी कम जिम्मेवार नहीं है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण रहा एक निर्दलीय विधायक का राज्य का मुख्यमंत्री बनना, जिनके कार्यकाल में राज्य में भ्रष्टाचार का रिकॉर्ड बन गया. कानून-व्यवस्था की स्थिति चरमरा गयी. इसके कारण सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों को नहीं मिल पाया.
किसी भी राज्य की तुलना में झारखंड में प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता सर्वाधिक है, लेकिन दुर्भाग्यवश यहां के राजनीतिक दल इन संसाधनों इसका उपयोग राज्य के हित में करने की बजाय अपना स्वार्थ साधने में ही व्यस्त रहे. इसका खामियाजा आज झारखंड उठा रहा है. राज्य में वन क्षेत्र काफी है, साथ ही कृषि के विकास की भी अपार संभावनाएं हैं. वन उत्पादों का बेहतर बाजार उपलब्ध करा कर आदिवासियों के जीवन स्तर को सुधारा जा सकता है. राज्य में कृषि क्षेत्र का विकास कर ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आय में बढ़ोतरी की जा सकती है. इसके साथ ही अगर राज्य में औद्योगिक विकास को तवज्जो दी गयी होती, तो आज यहां नक्सल समस्या भी कम होती और विकास के मामले में झारखंड काफी आगे होता. लेकिन राजनीतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता के कारण राज्य के लोग गरीबी, अशिक्षा और पलायन का दंश ङोलने को मजबूर हैं.
एक ओर नक्सली समस्या और दूसरी ओर लचर शासन एवं भ्रष्टाचार ने राज्य में विकास की गति पूरी तरह से रोक दी. ऐसा नहीं है कि नक्सली समस्या सिर्फ झारखंड में ही है. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में भी नक्सली समस्या है, लेकिन वहां की सरकारों ने लोगों को बुनियादी जरूरतें मुहैया कराने की दिशा में अच्छा काम किया है. उन्होंने बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर करने के लिए कोशिशें की हैं. इससे इन राज्यों में समस्या के बावजूद अच्छा विकास हुआ. दूसरी ओर झारखंड में विकास के लिए कारगर ढंग से कभी कोशिश ही नहीं की गयी.
किसी भी राज्य का विकास सिर्फ निजी पूंजी के सहारे नहीं हो सकता है. सरकारों की जिम्मेवारी होती है कि राज्य में सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति बेहतर हो. जैसे ही ये चीजें बेहतर होती हैं, निजी पूंजी निवेशक भी आकर्षित होते हैं. झारखंड की दिक्कत यही रही कि सरकारों ने सिर्फ निजी पूंजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए सैकड़ों एमओयू पर हस्ताक्षर किये, जबकि कानून-व्यवस्था और बुनियादी जरूरतों को बेहतर करने के लिए कोई काम नहीं किया. सिर्फ कागजी नीतियों के भरोसे विकास और पूंजी निवेश नहीं हो सकता है, सरकार में इसके क्रियान्वयन के लिए सोच और इच्छाशक्ति भी होनी चाहिए.
मेरा मानना है कि एक स्थायी सरकार और दूरदर्शी सोच वाला नेतृत्व ही झारखंड का भला कर सकता है. उम्मीद है कि आगामी विधानसभा चुनावों में राज्य की जनता ऐसी ही सरकार के लिए जनादेश देगी.

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