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लोहा सिंह अब सिर्फ यादों में !
रामेश्वर सिंह कश्यप शेरशाह की नगरी सासाराम जैसी छोटी जगह से विश्व स्तर पर पहचान बनानेवाले रामेश्वर सिंह ‘कश्यप’ विश्व में अंगुलियों पर गिने जानेवाले लोगों में ऐसे थे, जो अपने रेडियो नाटक ‘लोहा सिंह’ के कारण जासूसी और बहादुरी के प्रतीक ‘शेरलॉक होम्स’ और ‘जेम्स बांड’ की तरह उसी नाम से विख्यात हुए. एक […]
रामेश्वर सिंह कश्यप
शेरशाह की नगरी सासाराम जैसी छोटी जगह से विश्व स्तर पर पहचान बनानेवाले रामेश्वर सिंह ‘कश्यप’ विश्व में अंगुलियों पर गिने जानेवाले लोगों में ऐसे थे, जो अपने रेडियो नाटक ‘लोहा सिंह’ के कारण जासूसी और बहादुरी के प्रतीक ‘शेरलॉक होम्स’ और ‘जेम्स बांड’ की तरह उसी नाम से विख्यात हुए. एक दिन पहले 24 अक्तूबर को उनकी पुण्य तिथि थी. पढ़िए, एक स्मृति-लेख.
सुनील बादल
लोहा सिंह श्रृंखला नाटक की लगभग 350-400 कड़ियों में लोहा सिंह को जीवंत करने वाले कश्यप जी का जन्म सासाराम के निकट सेमरा नामक गांव में 12 अगस्त 1927 को अंगरेजी सरकार के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी (डीएसपी) राय बहादुर जानकी सिंह और रामसखी देवी के पुत्र के रूप में हुआ था. शिक्षा-दीक्षा मुंगेर, नवगछिया और इलाहाबाद में हुई थी.
1948 में आकाशवाणी पटना की शुरु आत हुई, तो चौपाल कार्यक्र म में ‘तपेश्वर भाई’ के रूप में भाग लेने लगे. वार्ताकार, नाटककार, कहानीकार और कवि के रूप में सैकड़ों विविध रचनाओं में इनकी सहभागिता रही. साहित्य, पाटल, ज्योत्सना, नयी धारा, दृष्टिकोण, प्रपंच, भारती, आर्यावर्त, धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली, रंग, कहानी अभिव्यक्ति, नवभारत टाइम्स जैसी पत्रिकाओं में अनेक निबंध, कहानियां, कविताएं, आलोचनाएं और एकांकी प्रकाशित हुईं.
कश्यप जी मूलत: नाटककार थे और रचनाधर्मी लोगों का संसर्ग इन्हें भाता था. रेडियो ने इनके लिखे एक भोजपुरी नाटक का प्रसारण किया जिसका शीर्षक था ‘तसलवा तोर कि मोर’. इसमें लोहा सिंह एक पात्र था जिसे बहुत पसंद किया गया और बहुत से लोगों ने पत्र लिखा कि लोहा सिंह नाटक फिर से सुनवाएं. दरअसल इनके डीएसपी पिता के एक नौकर के भाई रिटायर्ड फौजी थे जो गलत-सलत अंगरेजी, हिंदी और भोजपुरी मिला कर एक नयी भाषा बोलते थे और गांव वालों पर इसका बड़ा रोब पड़ता था.
वही भाषा वह नौकर भी बोलता था जिसे सुन कर कश्यप जी ने अपना टोन और चरित्र ही बना लिया. उस समय कश्यपजी बीए फाइनल इयर में थे.
‘अरे ओ खदेरन को मदर जब हम काबुल का मोरचा में था नु’ लोग यह डायलॉग सुन कर मंत्रमुग्ध हो जाते थे. खदेरन बनती थीं प्रसिद्ध लोक गायिका प्रो विंध्यवासिनी देवी, प्रो शांति जैन, शत्रुघ्न बाबा, प्रो एनएन पांडे और आकाशवाणी के झलक बाबा जैसे लोग उस अमर नाटक श्रृंखला के पात्र थे.
मृदु स्वभाव के भावुक कश्यप जी दिल खोल कर लोगों की सहायता करते. कभी किसी की आलोचना नहीं करते और हास्य तो उनकी सबसे बड़ी पूंजी थी.1950 में बिहार नेशनल कॉलेज पटना में हिंदी विभाग में व्याख्याता के रूप कैरियर शुरू किया, पर पिता के अनुरोध पर 1968 में पटना के साहित्यिक माहौल को छोड़ कर सासाराम आना पड़ा. शांति प्रसाद जैन महाविद्यालय में प्राचार्य बने, पर दु:ख था राधाकृष्ण जैसे चौपाल के प्रभारी को छोड़ कर आने का.
1962 की अचानक हुई चीन की लड़ाई में हार रहे भारत के सैनिकों का मनोबल ऊंचा करने के लिए कड़ी मेहनत की और ‘लोहा सिंह’ नाटक रोजाना प्रसारित होने लगा. इस नाटक की लोकप्रियता ने अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को छू लिया.
यह नाटक श्रृंखला एक साथ महलों से लेकर झोपड़ी तक सामान रूप से लोकप्रिय थी. विद्वानों के के साथ-साथ ग्रामीण और अशिक्षितों ने भी इसे सर आंखों पे बिठाया. आलोचक डॉक्टर निशांतकेतु ने लिखा था- ‘लंदन काउंटी काउंसिल, नेपाल,जोहानिसबर्ग और मॉरीशस की सरकारों की मांग पर भारत सरकार इसके कैसेट्स भेजती रही है .’
लोहा सिंह नाटक की लोकप्रियता से प्रभावित होकर यूनेस्को द्वारा प्रकाशित ‘रूरल ब्रॉडकास्टर’ नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने ‘लोहा सिंह’ नाटक के बारे में लिखने के लिए कश्यपजी से अनुरोध किया. 1960 में उसमें एक लेख प्रकशित हुआ -‘अबाउट लोहा सिंह’. कश्यप जी इप्टा से जुड़े नाटककार, निर्देशक और अभिनेता तीनों थे, ऐसा संयोग बहुत कम होता है. 1984 में सासाराम की धरती पे बिहार इप्टा का आठवां राज्य सम्मेलन आयोजित हुआ. भारतीय जन नाट्य संघ, बिहार के अध्यक्ष के रूप में इन्होंने संगठन को एक नयी ऊर्जा से प्रकाशित किया.
बुलबुले, पंचर (बाद में बेकारी का इलाज संग्रह), बस्तियां जला दो, रॉबर्ट, आखरी रात, कलेंडर का चक्कर, सपना, रात की बात, अंतिम श्रृंगार, बिल्ली, चाणक्य संस्कृति का दफ्तर, स्वर्ण रेखा कायापलट, उलटफेर एवं दर्जनों उत्कृष्ट एकांकियां, कहानियां तथा निबंधों के साथ तथा लोहा सिंह नाटक श्रृंखला प्रमुख थे जिनका पटना, दिल्ली, वाराणसी, मुंबई, लखनऊ जैसे कला मर्मज्ञ नगरों में सफल मंचन हुआ और इन्हें पुरस्कार भी मिले. पंचर और आखिरी रात को अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान भी मिले. ब्रिटिश काल के पुलिस अधिकारी के पुत्र होते हुए भी उन्होंने क्रांतिकारियों की मदद की और एक बार तो पटना छोड़ कर भागना पड़ा, जब पुलिस की गोलियां चुरा कर उन्हें देने का मामला सामने आया. क्रांतिकारी विचारों के शुरू से थे, पर स्वभाव बहुत ही विनम्र था.
वैसे तो पद्मश्री, बिहार गौरव, बिहार रत्न आदि से इन्हें सम्मानित किया गया पर लगभग नौ उपन्यास, काव्य रूपक, नाटक, एकांकी संग्रह जैसी पुस्तकों को छोड़ कर अधिकांश प्रकाशित ही नहीं हो पायीं, बहुत-सी विनष्ट हो गयीं. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था -‘‘मेरी बहुत-सी रचनाएं खो गयीं. काफी संख्या में अप्रकाशित रचनाएं भी हैं. मुझे किताब छपाने की विद्या नहीं आयी.’’ एक बात का मलाल उन्हें हमेशा रहा कि लोहा सिंह की लोकप्रियता के चलते उनका गंभीर साहित्य दब गया.
कश्यप जी अपनी ड्यूटी के प्रति भी समर्पित थे और प्राचार्य होते हुए भी अनुपस्थित प्राध्यापकों की कक्षा बिना शिकायत ले लिया करते थे. उद्दंड छात्रों और राजनीति से ऊब कर दो बार दिया अपना इस्तीफा उन्हें वापस लेना पड़ा क्योंकि वैसा विद्वान और मृदुभाषी प्राचार्य दूसरा कहां था?
उनकी लोकप्रियता मायानगरी मुंबई तक पहुंच गयी थी और ‘लोहा सिंह’ नामक फिल्म भी बनायी पर वहां के रीति-रिवाज में खुद को ढाल नहीं पाये. 2, 3 और 4 अक्तूबर 92 को मशहूर फिल्मकार प्रकाश झा सासाराम आये और फिल्म के लिए उनकी स्क्रि प्ट पर लंबी बातचीत हुई पर कहानी में फिल्म के अनुरूप परिवर्तन के मुद्दे पर बात अटक गयी. डॉक्टर विजय शंकर सिन्हा (मनन बाबू) बताते हैं कि कश्यप जी को अपनी रचनाओं से बच्चों के समान प्यार था और हर रचना एक नयी कलम से लिखते और उसे बक्से में रख देते, बाद में उसमें कांट-छांट करते थे.
लगभग बीस हजार पेन उनके घर में सजा कर रखे हुए थे! एक दिन उन्होंने चर्चा की कि प्रकाश झा को सहमति दे दी जाए कि वह फिल्म या सीरियल में आवश्यक परिवर्तन कर लें पर नियति को शायद यह मंजूर नहीं था और 24 अक्तूबर 1992 को अचानक उनकी मृत्यु हो गयी.
एक अध्याय का अंत हो गया. हास्य, व्यंग्य और ग्रामीण परिवेश से लेकर देश-समाज को झकझोरने वाला कलाकार असमय ही खामोश हो गया. इनके एक बेटे धनबाद में डॉक्टर हैं और एक सासाराम में सेवानिवृत प्राध्यापक, पर साहित्य में किन्हीं की अभिरूचि नहीं है. सासाराम में इनके नाम पर बनी सड़क ‘लोहा सिंह मार्ग’ को जाननेवाले लोग अब कम होते जा रहे हैं और उस सूचनापट्ट पर भी पोस्टर साट दिये जाते हैं. सब कुछ ऐसा ही रहा तो कभी जनमानस को झकझोरनेवाला यह पात्र सिर्फ इतिहास बन कर रह जायेगा. (लेखक इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से जुड़े हैं और लेख उनपर किये शोध पर आधारित है )
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