राजनीति कई संभावनाओं और त्रासदियों को साथ लिए चलती है.
महाराष्ट्र में कल तक चौथे नंबर पर रही बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और सत्तारूढ़ कांग्रेस सत्ता के पहले पायदान से खिसककर तीसरे स्थान पर पहुँच गई है.
सीनियर पार्टनर होने का दावा भरने वाली शिवसेना की ताकत अपने जूनियर पार्टनर की हैसियत से कहीं पीछे छूट गई है.
लेकिन राजनीति हमेशा ही आंकड़ों का खेल नहीं होती. इस चुनाव में किसी ने बहुत कुछ पाया है तो किसी ने लगभग सब कुछ गंवा भी दिया है.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाग ले रहे हर किसी का कुछ न कुछ दांव पर तो ज़रूर लगा हुआ था.
आकार पटेल का विश्लेषण
महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों ने राज्य में गांधी परिवार के असर को खत्म कर दिया है.
25 सितंबर को जब ये साफ़ हो गया था कि भारतीय जनता पार्टी शिवसेना से अपना गठजोड़ तोड़ रही है तो उस वक्त भी कांग्रेस के पास शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन बनाए रखने के लिए वक्त था.
अगर ये हुआ होता तो रविवार को आए चुनावी नतीजों में कांग्रेस और एनसीपी को बहुमत मिलता. पार्टियों को मिले वोट इसी ओर इशारा करते हैं.
शुरुआती आंकड़ें बताते हैं कि इतनी ज़बर्दस्त कामयाबी के बाद भी बीजेपी को महज 32 फीसदी वोट ही मिल पाए हैं.
इसका मतलब ये हुआ कि त्रिकोणीय मुकाबले में कांग्रेस-एनसीपी दोनों भगवा पार्टियों का सूपड़ा साफ कर गई होती.
राजनीतिक समझदारी
26 सितंबर को जब ये तय हो गया कि इस चुनाव में चौकोना मुकाबला होगा तो उसी के साथ सोनिया गांधी और राहुल गांधी की काबिलियत और उनकी राजनीतिक समझदारी पर सवाल खड़े हो गए.
शरद पवार ने कहा कि सोनिया गांधी गठजोड़ के लिए इच्छुक थीं लेकिन पार्टी की राज्य इकाई ऐसा नहीं चाहती थी.
इससे लगता है कि कांग्रेस और एनसीपी बीजेपी को जितना नापसंद करते थे, उससे कहीं ज्यादा एक दूसरे से नफ़रत.
ये नतीजे बीजेपी के लिए अच्छे हैं लेकिन इसे ज़बर्दस्त जीत नहीं कहा जा सकता है.
बस 20 सीटें और मिल जातीं और उसे शिवसेना से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.
इसमें कोई शक नहीं है कि बीजेपी महाराष्ट्र विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है.
इसके साथ ही यह भी साबित हो गया है कि गठबंधन की सीनियर पार्टनर बने रहने की उद्धव ठाकरे की जिद पूरी तरह से ग़लत थी.
सीनियर पार्टनर
अच्छे उम्मीदवारों को चुनने के लिए बीजेपी को बहुत कम समय मिला. इससे पार्टी के एक तबके को लगेगा कि भविष्य में और बेहतर नतीजे आ सकते हैं.
शिवसेना के लिए भी इन चुनावी नतीजों के कुछ मायने हैं.
गठबंधन में भले ही उसने सीनियर पार्टनर का अपना रुतबा खो दिया हो लेकिन कम से कम फिलहाल के लिए ही सही बीजेपी को उसकी ज़रूरत है.
हालांकि शिवसेना के लिए ये नतीजे कई बुरी खबरें साथ लिए आए हैं. सेना को तकरीबन 16 फीसदी के आस-पास वोट मिले हैं.
पिछले चुनावों में भी शिवसेना की हिस्सेदारी करीब करीब यही रही थी.
लेकिन उसने मुंबई का किला बीजेपी के हाथों गंवा दिया है. यह सेना के भविष्य के लिए खराब संकेत हैं.
अगर दोनों सहयोगी सरकार बनाने के लिए साथ आ भी गए तो उनकी पार्टनरशिप असहज ही होगी. यह कुछ कुछ कांग्रेस एनसीपी के गठजोड़ की याद दिलाएगा.
हिंदू एजेंडा
चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी के खिलाफ शिवसेना ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया था और दोनों पार्टियों की रणनीति के मद्देनज़र देखें तो दोनों के दरम्यां गहरे अंदरूनी मतभेद होंगे.
शिवसेना को हमेशा इस बात का संशय रहेगा कि बीजेपी अपना अलग रास्ता बनाने की जुगत में है.
और महाराष्ट्र की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर साबित कर चुकी बीजेपी खुद को एकलौती हिंदू एजेंडे वाली पार्टी के तौर पर अपना विस्तार करना चाहेगी.
तुलनात्मक रूप से देखें तो एनसीपी बेहतर स्थिति में है, भले ही उसने कुछ सीटें गंवाई है. वह चाहे तो शिवसेना के साथ जा सकती है या फिर बीजेपी के साथ.
वो चाहे तो प्रमुख विपक्षी पार्टी की भूमिका निभा सकती है. वह चाहे तो कांग्रेस के साथ अपना दोस्ताना बरकरार रख सकती है.
हालांकि पवार परिवार देश भर में कांग्रेस के किलों को ढहते देखने के इंतज़ार में होगा. फिलहाल ऐसी स्थिति है कि कांग्रेस के साथ एनसीपी का न तो राज्य में कोई गठजोड़ है और न ही केंद्र में.
सत्ता का विजयपथ
आंकड़ों के लिहाज से देखें तो राज ठाकरे राज्य की राजनीति में कुछ वक्त पहले ही अप्रासंगिक हो चुके हैं.
विधानसभा में मनसे की सीटों के और कम होने का मतलब है कि बेकार की बातों और हिंसक मुद्दों को उठाने के लिए राज ठाकरे पर समर्थकों का दबाव बढ़ेगा. महाराष्ट्र में यह हर किसी के लिए बुरी खबर है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चुनावी नतीजे सत्ता के विजयपथ पर लगातार आगे बढ़ने जैसे हैं.
कुछ लोग ये कह सकते हैं कि महाराष्ट्र में सत्ता से कुछ दूर रह जाने की वजह से हरियाणा में मिली जीत उतनी ज़ायकेदार नहीं हो पाई जितनी की हो सकती थी.
लेकिन मोदी नतीजों को इस तरह से नहीं देख रहे होंगे. शिवसेना से अलग होने का उनका दांव चल गया है.
और इन हालात का फायदा उठाने लायक गांधी परिवार के पास समझदारी नहीं थी. मोदी की अपराजेय छवि को तोड़ने का इस बार कांग्रेस के पास बेजोड़ मौका था लेकिन वे चूक गए.
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