।। डॉ सीमा उपाध्याय ।।
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हादसे का सबक यही, प्रशासन हो सतर्क और जनता जागरूक
।। डॉ सीमा उपाध्याय ।। (दिल्ली विश्वविद्यालय) भारत में उत्सवों के दौरान दुर्घटनाएं एक सतत चलने वाली प्रक्रिया-सी बन गयी हैं. न उत्सव और इससे जुड़ा उत्साह थमता दिखता है, और न ही दुर्घटनाओं पर किसी भी तरह से विराम लग पा रहा है. त्योहारों के मौके पर, धार्मिक आयोजनों में ऐसी घटनाएं आम हो […]
(दिल्ली विश्वविद्यालय)
भारत में उत्सवों के दौरान दुर्घटनाएं एक सतत चलने वाली प्रक्रिया-सी बन गयी हैं. न उत्सव और इससे जुड़ा उत्साह थमता दिखता है, और न ही दुर्घटनाओं पर किसी भी तरह से विराम लग पा रहा है. त्योहारों के मौके पर, धार्मिक आयोजनों में ऐसी घटनाएं आम हो गयी है. कहीं पुल टूट जाता है, तो कहीं आगजनी हो जाती है तो कहीं भगदड़. जब दुर्घटना घटित हो जाती है, लोग मौत के मुंह में समा जाते है, तो फिर घटना को लेकर चर्चा शुरू होती है. दोषियों की पड़ताल और उन्हें कड़ी सजा देने, और मुआवजे की घोषणा के साथ हम बीती ताहि बिसारिये की तर्ज पर फिर से एक अगले आयोजन और उसमें घटित होने वाली दुर्घटना का इंतजार करते प्रतीत होते हैं.
पटना के गांधी मैदान में रामलीला के आयोजन के दौरान जो हुआ, वह हादसा इसी सिलसिले की एक कड़ी है. ये ऐसी घटना है, जिन्हें प्रशासनिक अमला स्थानीय स्तर पर थोड़ी सजगता बरतते हुए और इंतजाम को दुरुस्त करते हुए रोक सकता था. इस घटना में प्राथमिक जिम्मेवारी स्थानीय प्रशासन की बनती है, प्रशासन को अंदाजा होना चाहिए था कि पिछले वर्ष इस आयोजन के दौरान कितने लोग एकत्रित हुए थे, और इस वर्ष कितने लोग होंगे. भीड़ की संख्या के अनुरूप जरूरी इंतजाम किये जाने चाहिए थे.
यह हादसा कोई प्राकृतिक विपत्ति नहीं है, बल्कि मानव-निर्मित आपदा है. इस घटना में कहा जा रहा है कि बिजली के तार गिरने की अफवाह फैली, और भगदड़ मची. खबरों के अनुसार भगदड़ के बाद पुलिस प्रशासन, जिसकी जिम्मेवारी लोगों को सुरक्षित रखना है, के द्वारा लाठीचार्ज से स्थिति और बिगड़ गयी. जिस स्थानीय प्रशासन को लोगों को सुरक्षित निकालते हुए घायल लोगों के मदद का इंतजाम करना चाहिए था, उसने स्थिति को और खराब कर दिया. यह प्रशासन की अपरिपक्वता और संवेदनहीनता को परिलक्षित करता है. जब भी कोई ऐसा आयोजन होता है, तो आयोजन स्थल पर कंट्रोल टावर लगाया जाना चाहिए अर्थात संचार की ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि अफवाह की स्थिति को नियंत्रित किया जा सके.
रामलीला जैसे आयोजन में आयोजक और स्थानीय प्रशासन का सारा ध्यान इस बात पर होता है कि लोग बड़ी संख्या में आयोजन स्थल पर पहुंचे. इसके लिए कई प्रवेश द्वार बनाये जाते हैं, लेकिन निकासी का पर्याप्त इंतजाम नहीं होता. अगर आयोजन स्थल पर जगह का अभाव है तो प्रशासन को यह ध्यान रखना चाहिए था कि जहां प्रवेश द्वार है, वहीं स्क्रीनिंग की व्यवस्था हो, ताकी लोग बैरिकेड के बाहर से ही कार्यक्रम देख-सुन सकें. बड़े पैमाने पर ऐसे आयोजनों में क्लोज सर्किट कैमरे और टीवी लगाकर हम न सिर्फ शरारती तत्वों पर नजर रख सकते हैं, बल्कि सुरक्षा को भी चाक-चौबंद बना सकते हैं.
हम किसी भी आपदा की स्थिति में केंद्र की ओर देखने लगते हैं, जबकि स्थानीय स्तर पर भी आपदा प्रबंधन समिति है. जरूरत उसे मजबूत और सक्षम करने की है ताकि ऐसे हादसों से बचा जा सके. आस्था के नाम पर लोग एकत्रित होंगे, यह जानते हुए भी इसकी तैयारी, देखरेख और प्रबंधन के लिए कोई मॉक ड्रिल नहीं होती. हम दिल्ली मेट्रो में समय-समय पर देखते हैं कि कैसे मॉक ड्रिल कराकर लोगों के सुरक्षा की इंतजामों और संभावित खतरों को लेकर तैयारी की जाती है. पूर्वाभ्यास के जरिये इस तरह के हादसों को रोका जा सकता है. लेकिन धार्मिक आयोजनों में इस तरह की कोई तैयारी नहीं कहीं दिखायी नहीं पड़ती.
देश में पुलिस बल का बहुत अभाव है. आबादी के हिसाब से पुलिसकर्मियों की संख्या पर्याप्त नहीं है. जो पुलिस-व्यवस्था है भी, तो उसकी प्राथमिकता में आम जन की सुरक्षा के बजाय अतिविशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा है. इसके साथ ही वर्तमान पुलिस बल को भीड़ नियंत्रण का पुख्ता प्रशिक्षण नही है. प्रशिक्षण के नाम पर भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सिर्फ बल-प्रयोग से काम नहीं चल सकता है, बल्कि पुलिस-तंत्र को विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है.
इसके साथ ही जन-भागीदारी को सुनिश्चित करते हुए स्थानीय स्तर पर स्वयंसेवी संस्थाओं और सामाजिक संगठनों को साथ लेकर ऐसे मौकों के लिए विशेष कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए. इन कार्यशालाओं में लोगों को स्व-रक्षा के उपायों की जानकारी दी जाये, ताकि हादसे की स्थिति में लोग अपने स्तर पर भी बचाव का उपाय करें.
स्कूली शिक्षा कहीं-कहीं आपदा नियंत्रण का प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन हम आपदा को आम तौर पर प्राकृतिक आपदा के रूप में ही देखते हैं. इस प्रशिक्षण में भगदड़ की स्थिति में बचाव को भी शामिल किया जाना चाहिए. अगर छात्र प्रशिक्षित होंगे, तो वे खुद का बचाव तो करेंगे ही, साथ ही ऐसे आयोजनों के समय वोलंटियर बन कर समाज का सहयोग भी कर सकेंगे.
आमतौर पर हादसों के बाद मुआवजे की बात होती है. मुआवजा किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता. व्यक्ति के जान की कीमत मुआवजे से नहीं आंकी जा सकती. अगर सही मायने में लोगों को मुआवजा देना है, तो सरकार पूरे तंत्र को पुख्ता करें, ताकि जीवन-रक्षा हो सके. यही उचित मुआवजा है.
आपदा प्रबंधन की भूमिका तो प्राकृतिक संकट के समय अहम होती है, लेकिन केंद्र सरकार अपने स्तर पर जो पैसा खर्च करती है, उसमें अधिक ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए कि अधिक-से-अधिक संख्या में वोलंटियर और पुलिस को प्रशिक्षण दिया जाए. इस व्यवस्था की व्यापक पैमाने पर निगरानी होगी, तभी हम आगे से जान-माल की क्षति को कम कर सकते हैं. अगर ये उपाय नहीं ठीक से नहीं किये गये, तो ऐसे दुखद हादसे होते रहेंगे, और सरकारें मुआवजा बांटती रहेंगी. दोषियों को कड़ी सजा के नाम पर सिर्फ निलंबित किया जाता रहेगा और लोगों की जान जाती रहेगी. हमें इस हादसे से सीखते हुए गंभीर सोच-समझ के साथ भविष्य की तैयारी करनी होगी. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो फिर यही सब बातें दुहराते रहेंगे.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
* भीड़ में विवेकहीन व्यवहार काम करता है
।। योगेंद्र सिंह ।।
(समाजशास्त्री)
बिहार की राजधानी पटना में दशहरे के मौके पर हुई भगदड़ के पीछे सामान्य सामाजिक व्यवहार नहीं, भीड़ का व्यवहार (क्राउड विहेवियर) काम कर रहा था. व्यवहार के मूलभूत आधार होते हैं, जैसे विवेक या ये करना है, ये नहीं करना है की समझ. ये आधार भीड़ में लुप्त हो जाते हैं. इसके स्थान पर विवेकहीन व्यवहार जगह बना लेता है. यही हुआ है वहां. इसको हम भीड़ के व्यवहार से ही जोड़कर देख सकते हैं.
भीड़ का बहुत अध्ययन हुआ है कि भीड़ आखिर है कैसी प्रक्रिया? लेकिन, भीड़ का अपना कोई विवेक नहीं होता. वह त्वरित घटनाओं से ही संचालित होती है. यही इस तरह की घटनाओं में होता है. सवाल उठता है कि इसको कैसे ठीक किया जा सकता था. ऐसे कार्यक्रमों में पूर्वानुमान लगाना चाहिए था कि वहां कितनी भीड़ जमा हो सकती है, क्योंकि जहां इतने ज्यादा लोग जमा हों वहां ऐसी दुर्घनाएं संभावित होती हैं. इसलिए पूरी जिम्मेदारी व्यवस्था की है.
घटनास्थल पर अफवाह फैलने की बात भी सामने आयी है. अफवाह थी कि तार गिर गया है. यह देखना होगा कि अफवाह फैलाने वाले कौन लोग थे, इसके पीछे उनकी क्या मंशा थी. यहां व्यवहार तो भीड़ का ही हुआ, लेकिन भीड़ के व्यवहार को सक्रिय करने का काम अफवाह ने किया. यानी अफवाह हमेशा तथ्य पर नहीं होती है. या तो जानबूझ कर कुछ लोगों ने अफवाह फैलायी या फिर लोगों को कुछ ऐसा दिखा, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा. लेकिन अफवाह हमेशा बहुत ही विवेकहीन ढंग से फैलती है. इसके पीछे एक तरह की एंजायटी काम करती है, लोगों के अंदर एक डर होता है, एक चिंता होती है कि कोई दुर्घटना हो जायेगी और हमारी जान चली जायेगी.
भीड़ का व्यवहार हर जगह एक जैसा ही होता है, जब तक कि व्यवस्था ठीक न हो. मेरे विचार में तो व्यवस्था में गड़बड़ी ही इस तरह की घटनाओं के लिए जिम्मेदार होती है. आयोजकों की जिम्मेदारी थी कि वो पूर्वानुमान के आधार पर भीड़ को नियंत्रित करने की पूरी व्यवस्था पहले से तैयाररखते. अगर ऐसा हुआ होता, तो यह घटना नहीं होती. कुछ एक घटनाओं को छोड़ दें, तो इस देश में पूर्वानुमान के आधार पर तैयार की गयी व्यवस्था से बड़े-बड़े कुंभ मेले सफलता पूर्वक आयोजित होते हैं.
इस तरह की घटना में सामाजिक व्यवहार का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है. सामाजिक व्यवहार वहां काम करता है जहां चाहें तो करें, चाहें तो न करेंह्ण का विकल्प हो. लेकिन भीड़ जब सक्रिय हो जाती है, तो कोई और विकल्प नहीं बचता, सिवाय जहां और जिस ढंग से मौका मिले, जान बचा कर भागने का. ऐसे में पूरी जिम्मेदारी व्यवस्था की होती है कि वो ऐसी किसी घटना को रोकने के पूरे इंतजाम रखे.
(बातचीत पर आधारित)
* क्या हम इसे भी भुला दें और चुप बैठ जाएं?
।। अनिता गौतम ।।
(नौकरशाही डॉट इन)
विजयादशमी के दिन पटना के गांधी मैदान के पास मची भगदड़ में 33 लोगों की असमय मौत होने से पूरा शहर सदमे में है. इसके पहले छठ पर्व के मौके पर भी ऐसी ही भगदड़ मची थी, जिसमें अनेक लोग मारे गये थे. उस समय भी काफी अफरातफरी मची थी, जांच करने की बात हुई थी, दोषियों को सजा दिलाने की बात हुई थी. फिर समय के साथ उस घटना पर धुंध पड़ गयी. आने वाले समय में इस घटना पर भी धुंध पड़ जायेगी.
इस सवाल के सिरे से तह तक जाने के लिए कोई तैयार नहीं है कि भीड़ वाली जगहों पर बार-बार इस तरह की घटनाएं क्यों घट रही है? पुलिस प्रशासन भीड़ प्रबंधन को लेकर पेशेवर क्यों नहीं है? वर्ष दर वर्ष एक-एक करके इस तरह की घटनाएं घट रही हैं, लेकिन इसे सामूहिक रूप में लेकर किसी निष्कर्ष पर क्यों नहीं पहुंचा जा रहा है?
पूरी दुनिया में भीड़ प्रबंधन को लेकर एक विशेष नजरिया अपनाया जा रहा है. सार्वजनिक स्थलों पर किसी कार्यक्रम विशेष को लेकर जुटनेवाली भीड़ को कैसे सुरक्षित रखा जाये यह एक अहम सवाल है और दूसरे मुल्कों में इस पर वैज्ञानिक तरीके से काम हो रहा है. बिहार में इस ढर्रे पर किसी भी तरह की सोच उभरती हुई नहीं दिख रही है. आज भी भीड़ को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए पारंपरिक तौर-तरीकों का ही इस्तेमाल किया जा रहा है.प्रशासनिक हलकों में भी भीड़ को लेकर पारंपरिक सोच ही हावी है.
विजयादशमी के मौके पर गांधी मैदान में लाखों लोग जुटते हैं, जिनमें महिलाओं और बच्चों की संख्या अधिक होती है. अधिकतर लोग पटना से सटे ग्रामीण इलाकों के होते हैं. ग्रामीण इलाके के लोग वैसे भी शहरी तौर-तरीकों से ज्यादा वाकिफ नहीं होते हैं. ऐसे में उन्हें कुशलता से शहर में लाने और निकालने की प्रशासन की जिम्मेदारी थोड़ी और बढ़ जाती है. किसी भी तरह की अनहोनी के मद्देनजर प्रशासन को और भी अधिक चौकस रहने की जरूरत होती है.
दुर्भाग्य से पटना का पुलिस प्रशासन इसके लिए न तो कभी मानसिक और न ही यांत्रिक रूप से तैयार दिखता है. चंद अप्रशिक्षित लाठीधारी सिपाहियों के सहारे ही इस तरह की भीड़ से प्रशासन दो-चार होता है. पटना के गांधी मैदान के पास जो कुछ भी हुआ, उसे महज थोड़ी सी सावधानी और सतर्कता से टाला जा सकता था. जो लोग विजयादशमी के मौके पर अपने घर से रावण दहन देखने निकले थे, वे सकुशल अपने घर को लौट सकते थे. लेकिन, प्रशासन भीड़ प्रबंध को लेकर छोटी-छोटी बातों का भी ख्याल नहीं रख सका.
प्रत्यक्षदर्शियों की मानें, तो गांधी मैदान के आसपास व्यापक लाइट का भी प्रबंध नहीं था, जबकि यह हर किसी को पता है कि रावण दहन होते-होते अंधेरा छा जाता है और अंधेरा भीड़ के लिए खतरा बन सकता है. जिस द्वार से लोगों को गांधी मैदान से निकालने की व्यवस्था की गयी थी, उसके करीब ही एक बिजली का तार गिरा हुआ था. प्रशासन के लोगों को वह तार नहीं दिखा या फिर देखकर भी उसकी अनदेखी करते रहे, क्योंकि उन्हें इस बात का भान ही नहीं था इस वजह से भीड़ में किसी तरह की अफवाह भी फैल सकती है. इतना ही नहीं गांधी मैदान से भीड़ की निकासी के लिए मात्र एक द्वार का इस्तेमाल किया जा रहा था.
प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो स्थिति जालियांवाला बाग की तरह थी. गांधी मैदान के सारे दरवाजे बंद थे और मात्र तीन फीट के खुले एक दरवाजे से लोगों को सरकते हुये बाहर निकलने के लिए छोड़ दिया गया. हर दरवाजे के खुले होने की स्थिति में पटना का हार्ट कहा जानेवाला गांधी मैदान चंद मिनटों में खाली हो जाता है. बहरहाल इस तरह की घटना आगे न दोहराई जाये एवं मौत पर सिर्फ मुआवजा और राजनीति न हो, इसकी भी पुरजोर कोशिश होनी चाहिए.
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