अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को बुला कर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश और दुनिया में जितनी सराहना पाई, अब पाकिस्तान से बातचीत रद्द करने का उनका फ़ैसला उतना ही हैरान करने वाला है.
नवाज़ शरीफ जब भारत आए तो उन्होंने न तो कश्मीर का मुद्दा उठाया था और न ही वो किसी हुर्रियत नेता से मिले थे.
इससे बातचीत के लिए ज़मीन तैयार हुई. लेकिन भारत के ताज़ा फैसले से बातचीत के दरवाजे बंद होते दिख रहे हैं. वो भी ऐसे समय में जब घरेलू मोर्चे पर नवाज़ शरीफ़ मुश्किलों में घिरे हैं.
भारत के इस फ़ैसले के कारण क्या हैं?
पढ़िए सिद्धार्थ वरदराजन का विश्लेषण
मोदी सरकार ने सोमवार को हुर्रियत नेता शब्बीर शाह और दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित की मुलाक़ात के बाद ये क़दम उठाया है.
इस क़दम से न सिर्फ़ 25 अगस्त को होने वाले दोनों देशों के विदेश सचिवों की बातचीत रद्द हो गई है बल्कि रुकी पड़ी बातचीत की बहाली की संभावनाओं पर भी सवालिया निशान लग गया है.
लेकिन इसकी वजहें क्या हैं? ये मोदी सरकार की अनुभवहीनता है या फिर वो किसी दबाव हैं.
भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त की हुर्रियत नेताओं से मुलाक़ातें ‘अस्वीकार्य’ हैं और ‘ये उस सकारात्मक राजनयिक प्रक्रिया को कमज़ोर करती हैं जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल के पहले ही दिन की थी’.
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने ऐसी मुलाक़ातों को भारत के अंदरूनी मामलों में पाकिस्तान का ‘हस्तक्षेप’ क़रार दिया है.
लेकिन यादाश्त को टटोला जाए तो इससे पहले भी भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले वार्ता की पूर्व संध्या पर हुर्रियत नेताओं की मुलाक़ातें पाकिस्तान के उच्चायुक्त, विदेश मंत्री और यहां तक कि राष्ट्रपति से भी होती रही है और भारत ने कभी इन्हें राजनयिक वार्ता के एजेंडे में रोड़ा नहीं माना है.
पुराना है ये सिलसिला
15 अप्रैल 2005 को भारतीय विदेश सचिव श्याम सरन से जब पूछा गया कि दिल्ली में भारतीय प्रधानमंत्री से मिलने से पहले हुर्रियत नेताओं से राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ की मुलाक़ात पर भारत को क्या कोई समस्या है?
इस पर उन्होंने कहा था, “पाकिस्तानी नेता आते हैं, वो हुर्रियत नेताओं से मिलते हैं. हम एक लोकतांत्रिक देश हैं. हमें इस तरह की मुलाक़ातों से कोई दिक़्क़त नहीं है.”
इससे पहले आगरा में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई और पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ की शिखर बैठक से पहले हुर्रियत नेताओं ने दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग की तरफ़ से दिए गए भोज में हिस्सा लिया था.
यही नहीं दिल्ली में 2012 में हुई दोनों देशों की गृह स्तरीय बातचीत से पहले हुर्रियत नेता पाकिस्तानी उच्यायुक्त से मिले थे.
विदेश मंत्री रहीं हिना खर ने भी उनसे मुलाक़ात की थी जबकि नवंबर 2013 में एशिया-यूरोप बैठक में हिस्सा लेने दिल्ली आए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के विदेश मामलों के सलाहकार ने भी हुर्रियत नेताओं से मुलाक़ात की थी.
उस वक़्त विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने अज़ीज़ की हुर्रियत नेताओं से इस मुलाक़ात की ये कह कर आलोचना की थी कि ये ‘रचनात्मक नहीं’ है. लेकिन यूपीए सरकार ने इसे तूल नहीं दिया था.
दबाव
तो फिर सोमवार को ऐसी ही एक मुलाक़ात को लेकर मोदी सरकार की ज़रूरत से ज़्यादा प्रतिक्रिया को कैसे समझा जाए?
कहा जा सकता है कि नियंत्रण रेखा पर बार बार संघर्षविराम के कथित उल्लंघन की घटनाओं के कारण सरकार पर दबाव हो, लेकिन रक्षा मंत्री अरुण जेटली इसका ज़िक्र इस महीने की शुरुआत में तब ही कर चुके थे जब उनसे पूछा गया था कि 25 अगस्त को दोनों देशों के विदेश सचिवों की किस मुद्दे पर बात होगी.
मोदी के फ़ैसले की असल वजह आत्मविश्वास की कमी और राजनयिक मोर्चे पर अनुभव की कमी हो सकती है. वहीं उन पर विभिन्न मुद्दों को लेकर संघ परिवार का दबाव भी हो सकता है. कांग्रेस ने भी इस मुद्दे को उछाला और फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी ख़ूब दिखाया.
मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि नवाज़ शरीफ़ घरेलू मोर्चे पर सरकार विरोधी प्रदर्शनों के कारण किस तरह मुश्किलों में घिरे हैं, बावजूद उसके भारत ने ये फ़ैसला लिया.
यही नहीं, नवाज़ शरीफ़ जब मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने के लिए दो दिन की भारत यात्रा पर आए तो उन्होंने न तो कश्मीर का मुद्दा सार्वजनिक तौर पर उठाया और न ही वो किसी हुर्रियत नेता से मिले.
ऊंचे मानदंड
अपनी यात्रा के दौरान तो शरीफ़ हुर्रियत नेताओं से शायद जानबूझ कर ही न मिले हों, लेकिन संभव है कि वो दोनों देशों की किसी भी बातचीत से पहले हुर्रियत नेताओं और पाकिस्तानी उच्चायुक्त की मुलाक़ात की परंपरा को तोड़ कर पाकिस्तान में अपनी परेशानियां और नहीं बढ़ाना चाहते हों.
मोदी सरकार ने अपने क़दम पीछे हटाकर भविष्य में बातचीत को लेकर उंचे मापदंड तय कर दिए हैं, इतने ऊंचे कि वो प्रासंगिक ही न हों.
ऊंचे इसलिए भी क्योंकि इस्लामाबाद में किसी नेता के लिए सार्वजनिक तौर पर ये कहने की कल्पना करना ही मुश्किल है कि वो हुर्रियत के नेताओं से नहीं मिलेगा और अप्रासंगिक इसलिए कि इस तरह की मुलाक़ातों से जम्मू कश्मीर में राजनीतिक, क्षेत्रीय और सैन्य यथास्थिति में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं होता है.
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