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गांधी और भारत

गांधी-चिंतन की दिशा में हम कितना आगे बढ़ पाये हैं? वे हमारी स्मृति में कितना बचे हैं? ऐसे प्रश्नों से जूझना उदारता से विमुख हो रहे समाज में मुश्किल है. इस मुश्किल से निकलने की रोशनी कनक तिवारी की किताब ‘रेत पर पिरामिड गांधी : एक पुनर्विचार’ से मिलती है. तिवारी जिस तरह गांधी का […]

गांधी-चिंतन की दिशा में हम कितना आगे बढ़ पाये हैं? वे हमारी स्मृति में कितना बचे हैं? ऐसे प्रश्नों से जूझना उदारता से विमुख हो रहे समाज में मुश्किल है. इस मुश्किल से निकलने की रोशनी कनक तिवारी की किताब ‘रेत पर पिरामिड गांधी : एक पुनर्विचार’ से मिलती है. तिवारी जिस तरह गांधी का पुनर्पाठ करते हैं, वह हमें गांधी के अभी तक हासिल न हो सके स्वराज को नयी शक्ल में हासिल करने के लिए पुकारता है. गांधी को हमने पुस्तकालयों, संग्रहालयों और स्मारकों में सीमित कर दिया है, जबकि आज उनके बारे में ठोस वैचारिक चिंतन की जरूरत है.

लेखक इसकी कोशिश पुस्तक के अथ हिंद स्वराज कथा…से लेकर रेत पर पिरामिड तक के तेईस अध्यायों में करते हैं. वे महात्मा गांधी के तीन गुरुओं के संबंध में जानकारी देते हैं. लेखक ने गांधी के इस पछतावे की ओर भी संकेत किया है कि उन्होंने अपने जीवन में आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया था.
इसका दुख उन्हें था, इसलिए उन्होंने ठक्कर बापा को आदिवासियों के बीच काम करने के लिए प्रेरित किया था. किताब में गांधी से जुड़ी अनेक किंवदंतियों का निराकरण भी किया गया है. इसकी भूमिका विनोद शाही ने लिखी है. उनका कहना है कि लेखक के गांधी के पुनर्पाठ और उनके स्वराज को हासिल करने की पुकार को पढ़ा व सुना जाना चाहिए.
कनक तिवारी स्वयं को गांधीवादी नहीं मानते हैं. उनका कहना है कि यह कह कर ही वे सत्य के अधिक निकट होते हैं, क्योंकि आज गांधी दोबारा पैदा हो भी जाएं, तो वे भी वह नहीं कर पायेंगे, जो तब उन्होंने किया. महात्मा गांधी ने देश को आजादी दिलाने में अहम भूमिका तो निभायी ही, वे भारत की बीसवीं सदी पर छाते की तरह छाये भी रहे.
‘उत्तर आधुनिक जांच’ अध्याय में कनक तिवारी इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि गांधी की बौद्धिकता पर बेरुख भारतीय बुद्धिजीवियों ने शोधपूर्ण दृष्टि से गहरी दार्शनिकता के साथ समयानुकूल बातचीत भी अमूमन नहीं की है.
गांधी को एकल दृष्टि की आस्था का मोम का पुतला बना कर जैसी चाहे शक्ल और देहयष्टि बनायी और बिगाड़ी जाती रही है. दरअसल जो गांधी सबके हैं, वे किसी के नहीं हैं और जो गांधी किसी के नहीं हैं, वही सबके हैं. यह किताब गहरे श्रद्धा भाव से लिखी गयी है.
फिर भी कनक तिवारी ने विश्लेषण पर्याप्त तथ्यों के आधार पर ही किया है. यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए. गांधी के विराट व्यक्तित्व और सुदीर्घ जीवन को नये सिरे से समझने के लिए यह किताब एक अवसर प्रदान करती है, जो आज के भारत की बड़ी आवश्यकता है.
रेत पर पिरामिड गांधी: एक पुनर्विचार/ कनक तिवारी/ आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा)/ मूल्यः 295 रुपये- मनोज मोहन

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