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स्मृति शेष : अपनी भाषा का विस्थापित लेखक कृष्ण बलदेव वैद

प्रभात रंजन लेखक-प्राध्यापक कृष्ण बलदेव वैद हिंदी में अपनी काट के अकेले लेखक थे. अविभाजित पंजाब में पैदा होकर विभाजित पंजाब में बड़े होनेवाले वैद साहब मूलत: पंजाबी भाषी थे, लेकिन उन्होंने अंग्रेजी की पढ़ाई की और बहुत लंबे समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में शिक्षक रहे. बाद में फुलब्राइट स्कॉलरशिप वे अमेरिका […]

प्रभात रंजन
लेखक-प्राध्यापक
कृष्ण बलदेव वैद हिंदी में अपनी काट के अकेले लेखक थे. अविभाजित पंजाब में पैदा होकर विभाजित पंजाब में बड़े होनेवाले वैद साहब मूलत: पंजाबी भाषी थे, लेकिन उन्होंने अंग्रेजी की पढ़ाई की और बहुत लंबे समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में शिक्षक रहे.
बाद में फुलब्राइट स्कॉलरशिप वे अमेरिका के हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में शोध के लिए चले गये. यह बात कम लोग ही जानते हैं कि इस स्कॉलरशिप के लिए उनके लिए अनुशंसापत्र लिखा था अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक नीरद सी चौधरी ने. हॉर्वर्ड में शोध पूरा करने के बाद वह बहुत समय तक न्यूयॉर्क स्टेट युनिवर्सिटी में अंग्रेजी पढ़ाते रहे.
वैद साहब यूं तो पंजाबी, अंग्रेजी सहित कई अन्य भाषाओं में दक्ष थे, लेकिन लेखन की भाषा के रूप में उन्होंने हिंदी का चुनाव किया, जो उनकी मूल भाषा नहीं थी. बीस साल की उम्र से ही वे विस्थापन का शिकार रहे, अपने समाज से विस्थापन, अपनी भाषा से विस्थापन और अंत में अपने देश से भी विस्थापन. उनकी लेखनी में कहीं गहरे यह विस्थापन है.
चाहे वह उनका पहला उपन्यास ‘उसका बचपन’ हो या बाद के उपन्यास ‘काला कोलाज’ और ‘माया लोक’ हों, वे हिंदी की स्थापित परंपराओं व रीतियों से विस्थापन के लेखक ही रहे. उनके एक उपन्यास ‘एक नौकरानी की डायरी’ को छोड़ दें, तो उन्होंने ऐसा कुछ लिखा ही नहीं जिसे विधागत रूप से उपन्यास कहा जा सके, जबकि उन्होंने दस उपन्यास लिखे.
वैद साहब ने हिंदी में सैमुअल बैकेट के प्रसिद्ध नाटक ‘वेटिंग फॉर गोदो’ का अनुवाद किया और उनके लेखन के केंद्र में बैकेट के इस नाटक की तरह ही आधुनिकता का बेतुकापन व निराशा का भाव रहा. आजादी के बाद की पीढ़ी के हिंदी लेखकों की तरह उनके लेखन में एक नये बनते देश को लेकर सपने नहीं हैं, बल्कि वे उन दुस्वप्नों को लिखते रहे, जो इस सुंदरता के पीछे छिपा दिये गये थे.
निस्संदेह वह हिंदी के पहले लेखक हैं, जिन्होंने अपने लेखन में आधुनिकता की सीमाओं को पहचान लिया था. वे जानते थे कि आधुनिकता कोई सुंदर कथा नहीं है, जनतंत्र कोई अंतिम सत्य नहीं है. वैद साहब कथा के नहीं, कथाहीनता के सबसे जीवंत लेखक थे, मूर्त के नहीं, अमूर्त छवियों के निर्माता थे. ‘मायालोक’ उपन्यास में उनका यह अमूर्तन अपने श्रेष्ठ रूप में दिखाई देता है. एक ऐसे समय के बारे में जिसे तर्क से नहीं समझा जा सकता, जिसे कार्य-कारण से सिद्ध नहीं किया जा सकता, उसके बारे में श्रेष्ठ कला अमूर्त ही हो सकती है.
यह उपन्यास एक कोलाज है, अपने काल का, अपने आनेवाले काल का. एक प्रहसन है, जिससे हम रोज गुजरते हैं, लेकिन उसको समझ नहीं पाते, या तर्काधारित हमारी बुद्धि उसे समझ कर भी नहीं समझ पाती. अपने समकालीन लेखकों में वे सबसे अबूझ बने रहे क्योंकि वे संवाद के नहीं, एकालाप के लेखक थे.
हिंदी में सामाजिक यथार्थ को साहित्य का सबसे बड़ा निकष माना जाता है, उस पैमाने पर वे हिंदी की मुख्यधारा से विस्थापित ही बने रहे. वे स्वीकार के नहीं, अस्वीकार के लेखक थे. समकालीन हिंदी साहित्य के प्रतिपक्ष की तरह वे लगातार चर्चा में बने रहे. अपने समकालीन लेखकों में वे सबसे अधिक लिखनेवाले लेखक थे और उनकी पीढ़ी के किसी कहानीकार ने उतनी कहानियां नहीं लिखी, जितनी वैद साहब ने लिखी. बाद में उनकी डायरियों ने हिंदी में डायरी को एक गंभीर विधा की तरह स्थापित करने का काम किया. सबसे बढ़कर वे बौद्धिक थे. कृष्ण बलदेव वैद के निधन के बाद मुझे सबसे पहले मनोहर श्याम जोशी याद आये.
मनोहर श्याम जोशी का एक लेख ‘हंस’ में छपा, जिसमें उन्होंने किसी संदर्भ में अमेरिकी लेखक सौल बेलो के उपन्यास ‘हरजोग’ का नाम लिया था. जब लेख छप कर आया, तो जोशी जी बड़े परेशान थे कि उन्होंने गलत संदर्भ में गलत उपन्यास का नाम ले लिया. उनको असल में सौल बेलो के एक अन्य उपन्यास ‘हयुबोलट्स गिफ्ट’ का नाम लेना चाहिए था. वे बहुत परेशान थे कि अब इसे सुधारा भी नहीं जा सकता. मैंने कहा कि आप बेकार परेशान हैं। कौन समझेगा? जोशी जी ने छूटते ही कहा, ‘अरे कृष्ण बलदेव वैद पढ़ेगा, तो पकड़ लेगा इस गलती को.’ सही में कुछ दिन बाद वैद साहब का फोन आया. बोले, ‘जोशी, मैंने कई बार कहा है तुमको, बोलकर मत लिखवाया करो. हो गयी न गलती.’ वैद साहब के गहरे ज्ञान से यह मेरा पहला परिचय था. यह बात 2000 के आसपास की है.
मुझे याद है कि शायद अमेरिकी पत्रिका ‘न्यू यॉर्कर’ में उस समय अमेरिका के नये नये प्रसिद्ध हुए लेखक टीसी बोयले ने एक इंटरव्यू में न्यूयॉर्क स्टेट यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्राध्यापक केबी वैद का नाम लिया था, जिन्होंने उनके लेखन को दिशा दी. जानता हूं, ये दोनों संदर्भ कृष्ण बलदेव वैद के लेखन को लेकर नहीं, उनकी उस बौद्धिकता के बारे में है, जिसके लिए वे भारत से अमेरिका तक विख्यात थे. उनका जाना एक बड़े पढ़ाकू और लिक्खाड़ लेखक का जाना है.

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