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अपने अंदर प्रकाश की खोज से मिटेगा जीवन का अंधकार

डॉ मयंक मुरारीचिंतक और आध्यात्मिक लेखक महात्मा बुद्ध से जुड़ी एक कथा है. उनका एक परम शिष्य था- आनंद.चालीस वर्षों तक वह बुद्ध के साथ रहा. भिक्षा मांगी, साथ सोया, खाया और प्रवचन का लाभ लिया. वह मूलत: बुद्ध की छाया बनकर रहता था. आनंद के जीवन में बुद्धत्व की रोशनी थी. जब बुद्ध मृत्यु […]

डॉ मयंक मुरारी
चिंतक और आध्यात्मिक लेखक

महात्मा बुद्ध से जुड़ी एक कथा है. उनका एक परम शिष्य था- आनंद.चालीस वर्षों तक वह बुद्ध के साथ रहा. भिक्षा मांगी, साथ सोया, खाया और प्रवचन का लाभ लिया. वह मूलत: बुद्ध की छाया बनकर रहता था. आनंद के जीवन में बुद्धत्व की रोशनी थी. जब बुद्ध मृत्यु की यात्रा पर चलने लगे, तो आनंद रोने लगा. बुद्ध से कहा- अब हमारे जीवन में अंधेरा छा जायेगा. तब बुद्ध ने अंतिम देशना दिया- आनंद! कितनी बार मैंने तुझसे कहा है- ‘अप्प दीपो भव।’ अपना दीया खुद बन. तू सुनता नहीं. इसलिए रोना पड़ रहा है.
हमारी समस्या यही है कि हम खुद की सुनते नहीं और न ही ऋषियों की बात मानते हैं. इसलिए हमारे जीवन में अंधेरा है. यह अंधेरा दीपों की माला से खत्म नहीं होगा. बिजली का बल्ब हो या दीये की रोशनी, वह प्रकाश नहीं, बल्कि वस्तु को देखने का माध्यम भर है. दीपावली बाहरी प्रकाश को उजागर करने का उत्सव नहीं, बल्कि आंतरिक प्रकाश में गमन का अवसर है.
महर्षि अरविंद कहते हैं- जब भीतर देखा, तो पता चला कि जो बाहर दिखता है, वह प्रकाश नहीं, अंधकार है. बाहर जीवन भी नहीं. उपनिषद में ऋषि कहते हैं कि एक सूर्य को हम जानते हैं, लेकिन ऐसे अनंत सूर्य इस सृष्टि में आलोकित हैं. लेकिन उन्हें हम आकाश का तारा कह देते हैं, जो हमारे सूर्य से बहुत बड़ा सूर्य है. अतएव वे प्रार्थना करते हैं कि हमें अंधकार के बाद, प्रकाश के पार तू ले चल, ताकि उस शाश्वत सत्य का दर्शन हो सके.
हमारे भीतर तम का साम्राज्य है. अंधकार का बसेरा है. वह बाहर की रोशनी से नहीं मिटती. सच्चाई यह है कि बाहर जितनी रोशनी होगी, हमारा अंधकार और स्पष्ट होता जायेगा. आइंस्टीन ने एक बात कही- जब मैंने विज्ञान की खोज शुरू की, तो सोचता था कि आज नहीं तो कल, सब जान लिया जायेगा.
लेकिन सब जानने के बाद पता चला कि जो जानने को शेष रह गया है, वह इतना ज्यादा है कि उसकी तुलना भी असंभव है. मरने के पहले आइंस्टाइन ने कहा था- ‘मैं एक रहस्यवादी की तरह मर रहा हूं’, जबकि वे खुद महान वैज्ञानिक थे.
पश्चिम के एक और वैज्ञानिक एडिंग्टन ने अपने संस्मरण में लिखा- जब मैंने सोचना शुरू किया था, तो समझता था कि जगत एक वस्तु है, लेकिन अब कह सकता हूं कि यह दुनिया ज्यादा और ज्यादा एक वस्तु से बढ़ कर विचार प्रतीत होता है. इसलिए जगत को रोशनी से प्रकाशित करने से अच्छा है कि हम अपने विचारों को, अपनी दृष्टि को आलोकित करें.
ऋषियों की वाणी है- ‘हे प्रभु! मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल’. तात्पर्य है कि हमारे जीवन में प्रकाश का अभाव है, इसलिए अंधकार का अस्तित्व है. अंधकार कोई स्थिति नहीं और न ही इसकी कोई सत्ता है. व्यक्ति इसे समझता नहीं और प्रकाश की बात करता है. हम अंधकार को हटा नहीं सकते. अगर ऐसा होता तो कचरे की तरह इसे सड़क पर बिखेर देते. बात सहज है कि हमें प्रकाश का ज्ञान नहीं.
हमारी यात्रा अभी अंधकार, अभाव और उसकी अभिव्यक्ति तक ही सिमटी है. हमें याद है बचपन में हम प्रार्थना करते थे- ‘आलोकित पथ करो, हमारा हे जग के अंतरयामी!’ हम बोध की बात करते हैं. हम प्रार्थना में उस ज्ञान की बात करते हैं, जिसकी प्राप्ति के पश्चात ही शाश्वत आलोक से हमारा जीवन प्रकाशित हो सकेगा.

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