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गांव की कुछ मिट्टी मिल जायेगी…

भरत तिवारी, कला समीक्षक कहानीकार को ऐसी कहानी कह पाने की बधाई देने से अधिक शुक्रिया कहना चाहिए, जिसमें कहानीकार साहित्यकार बन जाता है और साहित्य का धर्म ‘सच बताना और सच बचाना’ निभाता है. हम सब अपनी जड़ को भूल नहीं रहे हैं, बल्कि उसे अपने हाथों मट्ठे से सींच रहे हैं. हमारी इस […]

भरत तिवारी, कला समीक्षक

कहानीकार को ऐसी कहानी कह पाने की बधाई देने से अधिक शुक्रिया कहना चाहिए, जिसमें कहानीकार साहित्यकार बन जाता है और साहित्य का धर्म ‘सच बताना और सच बचाना’ निभाता है. हम सब अपनी जड़ को भूल नहीं रहे हैं, बल्कि उसे अपने हाथों मट्ठे से सींच रहे हैं. हमारी इस तरह खुद का विनाश किये जाने की गति तब ही कम होना शुरू हो सकती है, जब, अव्वल तो, हम मानें कि हम ही कारण हैं. उमाशंकर चौधरी के लेखन को अगर हिंदी साहित्य से जुड़ाव रखनेवाला कोई भी अनदेखा करता है, तो यह हमारी बड़ी पराजय है.
क्योंकि, जहां से हमें समस्या बतायी जा रही हो और समस्या का हल भी इंगित किया जा रहा हो, उस तरफ न देखना मूर्खता ही होगी, ऐसी मूर्खता जो जय की किसी भी संभावना को सांस ही नहीं लेने देगी. कोई ढकेलता नहीं, आप खुद ही, खुल कर, पराजय जिंदाबाद की भीड़ में शामिल होते हैं.
कहानियों के साथ यह जो शब्दांकन संपादक की टिप्पणी लिखने की आदत है, वह कतई एक संपादक की नहीं, बल्कि एक सीरियस पाठक की पाठ के समय और उसके फौरन बाद दिमाग में चलनेवाली खलबली होती है.
इसलिए, अमूमन अंश उद्धृत नहीं होते… कभी होते भी हैं. ऐसे- ‘फुच्चु मा’साब ने अपने कुर्ते की जेब में हाथा डाला. उस जेब में बिस्कुट के कुछ टुकड़े थे. वे गेट तक गये और लोहे के उस आदमकद गेट को पकड़कर बिस्कुट के उन टुकड़ों को उन गाड़ियों की तरफ फेंक कर जोर से कहा ‘आ आ आ.’
इस पर ‘कमाल कमाल कमाल!’ ही कहूंगा. और यह पढ़ते हुए- ‘फुच्चु मा’साब बेंच पकड़कर उठने लगे, तो उस गार्ड ने उन्हें सहारा दिया. फुच्चु मा’साब जाने लगे, तो उस गार्ड ने कहा- आप वही हैं न साहब, जो कल गाड़ियों को दाना खिला रहे थे.’
भीतर से कवि ने कहा- सारा दुलार/ सारा प्यार/ सब धुल धरा रह जाता है/ गांव की मिट्टी/ शहर खा जाता है…
दरअसल, हमारी हर समय जल्दी में रहने की आदत हमें कमतर इंसान बनाती है. कम-से-कम साहित्य को ठहर कर पढ़ा जाना चाहिए. बरबस निकलता है ‘असंभव लिख दिया है’ जब कथाकार ऐसा लिखता है- ‘बाबू एक बार गांव जाकर सब समेट आना. मछलियों और चिड़ियों को कहना बस अब नहीं.’ और यह पढ़ते हुए- ‘ऐसा लगता था जैसे इस बालकनी को किसी ने अचानक बंद कर दिया हो. ऐसे जैसे सब कुछ सामान्य चलते हुए ऐसा कुछ अचानक घटा हो कि उसे जस का तस बंद कर दिया गया हो.’
यही कि सच को इतने आसान शब्दों में बंधा देखना हतप्रभ ही कर सकता है और मैं, बतौर पाठक हतप्रभ ही हूं.
अगर जैसा ऊपर कहा, वैसा आपने मान लिया हो और वहां आप कुछ ठहरे हुए हों, तो उमाशंकर चौधरी की इस कहानी ‘नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां’ का यह अंश देखें- ‘लेकिन इस एक घंटे की लंबी प्रक्रिया में फुच्चु मा’साब धैर्य रखकर दोनों हाथों की मुट्ठियों को कसकर बंद कर अपने गांव के सुनहरे दृश्य को याद करते रहते और वह कठिन समय भी कट जाता.
उस कानफोड़ू आवाज के बीच भी वे खो से जाते. गांव की पगडंडियां, बांध की ठंडी हवा, मंदिर के चबूतरे तब उन्हें बचाते. हमेशा बचाया तो उन्हें उन आवाजों ने भी जो उन्हें ढूंढने आती थीं. फुच्चु मा’साब आज थोड़ा ब्लॉक चलना है, फुच्चु मा’साब आज थोड़ा अमीन से नापी करवाने चलना है.’
इस पर और पूरी कहानी पर यह कि वह मौका कथानक में मिलना दुर्लभ होता है, जब हम, पाठक रोआंसे होने को हों. किसी भी दुर्लभ क्षण को जी जरूर लेना चाहिए. ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता…’ यह सब हम, पाठक किसी दुर्लभ क्षण की तलाश में, अनजाने, गुनगुनाते हैं. यहां वे क्षण हैं, ठीक सामने, वे जब आयें, रुआंसा गुनगुनाने के लिए नहीं रोकियेगा, उसे बहने दीजियेगा…
घुल जायेंगी शहर की कुछ गिट्टियां
गांव की कुछ मिट्टी मिल जायेगी…

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