<figure> <img alt="कश्मीर" src="https://c.files.bbci.co.uk/B63D/production/_108835664_kashmir.png" height="549" width="976" /> <footer>BBC</footer> </figure><p>भारतीय सेना पिछले 40 दिनों से पाकिस्तान पर लगातार युद्ध विराम के उल्लंघन का आरोप लगाती रही है. यहां रहने वाले काफ़ी भयभीत हैं क्योंकि यहां रोज़ शेलिंग होती है. </p><p>ताज़ा घटना पुंछ के बालाकोट सेक्टर में घटी है. इस घटना में चार सैन्य कर्मचारी घायल हुए हैं. यहां पर प्रशासन ने पुख़्ता बंकर बनाने की व्यवस्था शुरू की है.</p><p>हालांकि, ये परियोजना कई सालों से चल रही है. ये चार सौ करोड़ का प्रोजेक्ट था. इसके तहत नियंत्रण रेखा के नज़दीक रहने वालों के लिए पुख्ता बंकर बनाने की योजना थी. </p><p>ताकि जब भी शेलिंग हो तब लोग कम से कम उसमें शरण लेकर अपनी जान बचाएं. इस तरह इस क्षेत्र में युद्ध जैसा माहौल बना हुआ है. </p><p>लेकिन भारतीय सेना का कहना है कि इस तरह के हर प्रयास का मुंह तोड़ जवाब दिया जाता है. </p><h1>फ़ारूक़ अब्दुल्ला की मुश्किल</h1><p>जिस तरह अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दबाव बनाकर रखा हुआ था, उससे नेशनल कॉन्फ्रेंस के काडर को लग रहा था कि उनके नेताओं को छोड़ दिया जाएगा या उन्हें किसी तरह की कोई राहत मिलेगी. </p><p>ऐसे में लगता है कि मोदी सरकार ने एक बार फिर कॉन्फिडेंस का प्रदर्शन किया है. सरकार ने दिखाया है कि वह किसी भी इस तरह के दबाव में नहीं आएगी. </p><figure> <img alt="फ़ारुक़ अब्दुल्लाह" src="https://c.files.bbci.co.uk/CB2E/production/_108841025_665602ee-bdca-4103-9abd-55c063e89c43.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>सरकारी डोज़ियर में लिखा गया है कि फारूक़ अब्दुल्ला एक पुरानी और बड़ी राजनीतिक पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष हैं. </p><p>उनकी ओर से पहले ही सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ याचिका दायर की गई थी. इसमें पुलिस और प्रशासन का कहना है कि अगर फारूक़ अब्दुल्ला बाहर निकले तो लॉ एंड ऑर्डर की स्थिति को ख़तरा पैदा हो सकता है. इससे लोग भावुक हो सकते हैं और नेशनल कॉन्फ्रेंस के जो नेता हैं वो लोगों को उकसा सकते हैं. </p><p>इस डोज़ियर में आरोप लिखे जाते हैं कि किसी व्यक्ति पर पब्लिक सेफ़्टी एक्ट क्यों लगाया जाता है. </p><p>इसमें सबसे दिलचस्प बात ये है कि फारुख़ अब्दुल्ला के ख़िलाफ़ जो कानून लगाया गया है वो उनके ही पिता शेख अब्दुल्ला ने जंगल चोरों के ख़िलाफ़ ये कानून पब्लिक सेफ़्टी एक्ट लाए था. इसके बाद 1990 में जब यहां चरमपंथ शुरू हुआ तो चरमपंथियों और प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध ही इसका इस्तेमाल होता रहा है. आज खुद फारुख अब्दुल्ला इसी कानून के तहत बंद हैं. </p><p>चूंकि ये कोई सामान्य स्थिति नहीं है, ऐसे में जम्मू-कश्मीर में प्रतिपक्ष की ओर से प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. सभी राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध है. सभी नेता या तो घरों में बंद हैं या जेलों में हैं. लेकिन फारुख़ अब्दुल्लाह पर पब्लिक सेफ़्टी एक्ट लगाए जाने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस की ओर से किसी न किसी तरह का बयान आएगा. </p><p>ऐसा हुआ भी और उत्तरी कश्मीर से सांसद अकबर लोन ने उमर अब्दुल्ला और फारुख़ अब्दुल्ला से भेंट की. उन्होंने कहा है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस तब तक चुनाव में हिस्सा नहीं लेगी जब तक जम्मू-कश्मीर को दोबारा राज्य का दर्जा न दिया जाए. क्योंकि 370 हटाए जाने के बाद संसद में एक बिल पारित हुआ था जिसके बाद जम्मू-कश्मीर एक यूनियन टैरिटरी है. और लद्दाख अलग से एक यूनियन टैरिटरी है.</p><figure> <img alt="कश्मीर" src="https://c.files.bbci.co.uk/1676E/production/_108841029_745c40bf-686b-416a-a340-87cb4022aaaa.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>ऐसे में लगता है कि 370 के मुद्दे को अलग रखते हुए नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपनी मांग को राज्य के दर्जे तक सीमित कर दिया है. </p><p>भारत प्रशासित कश्मीर में समाचार पत्रों के छपने के बारे में कई चीजें लोगों को मालूम तक नहीं हैं. यहां सभी समाचार पत्रों का पंजीकरण सूचना विभाग में होता है. ऐसे में अगर कोई अख़बार दो या तीन दिन नहीं छपता है तो उसका पंजीकरण रद्द कर दिया जाता है या उन्हें मिलने वाले सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए जाते हैं. मैंने सभी समाचार पत्रों के संपादकों से बात की है, उनका कहना है कि वे मजबूरी के तहत अख़बार निकालते हैं. </p><h2>पांच कंप्यूटरों के ज़रिए काम </h2><p>अगर इन अख़बारों में छपने वाली ख़बरों का भी विश्लेषण करें तो उनमें कश्मीर की ख़बरें नहीं होती हैं बल्कि घोषणाओं को ख़बरों के रूप में परोसा जाता है. इनमें केंद्र सरकार और प्रशासन की ओर से जारी घोषणाएं शामिल होती हैं. अख़बारों में न तो किसी तरह का एडिटोरियल छपता है न किसी तरह का विश्लेषण छपता है. कोई भी ओपिनियन भी शामिल नहीं होता है. ऐसे में ये सारा सिलसिला बंद हो गया है. लेकिन ये सही है कि अख़बार छपते हैं. </p><figure> <img alt="कश्मीर" src="https://c.files.bbci.co.uk/1194E/production/_108841027_0a69cbec-19ae-483b-b71c-91f38b487e4d.jpg" height="549" width="976" /> <footer>AFP</footer> </figure><p>जहां तक इंटरनेट की बात करें तो ये सुविधा तो दी गई है लेकिन कुछ पांच कंप्यूटर हैं जिन्हें इस्तेमाल करने के लिए कुछ ढाई सौ पत्रकार हैं. इनमें से चालीस तो संपादक हैं जिनके समाचार पत्र हैं. अब आप समझने की कोशिश कीजिए कि पांच कंप्यूटरों की बदौलत यहां का पूरा पत्रकार समुदाय काम कर रहा है. </p><p>केंद्र सरकार के फ़ैसले के चालीस दिन बाद भी यहां ज़मीन पर वैसी ही स्थिति है जैसे कि पहले थी. ये ज़रूर है कि प्रशासन पूरा ज़ोर लगा रहा है कि किसी तरह की हिंसक घटना न घटे. अगर कहीं पर ऐसी आशंका होती भी है तो प्रशासन फौरन वहां पर प्रतिबंध लगाता है. प्रशासन की नीति रही है कि ऐसी स्थिति ही पैदा न होने पाए कि प्रशासन और प्रदर्शनकारियों के बीच किसी तरह की मुठभेड़ न होने पाए. इसमें प्रशासन कामयाब हुआ है लेकिन आम जनजीवन को बहाल करने में प्रशासन पूरी तरह से नाकामयाब रहा है. </p><p>क्योंकि स्कूल खोले जाने को लेकर जिस तरह से घोषणाएं हुईं हैं, उसके बाद भी स्कूल बंद हैं. यूनिवर्सिटीज़ बंद हैं. </p><p>कश्मीर यूनिवर्सिटी का पोर्टल भी बंद है. लोगों को किसी तरह की ऐसी सुविधा नहीं मिली है जिससे लगे कि आम जनजीवन बहाल हो गया है. व्यापारिक गतिविधियां भी स्थगित हैं. हालांकि, प्रशासन ने सेब उगाने वाले व्यापारियों को नैफेड के जरिये सेब बेचने की सुविधा प्रदान की थी. </p><p>लेकिन इस सुविधा के बाद फल उगाने वालों का कहना है कि उन्हें उनके उत्पाद के बदले में सही कीमतें नहीं मिल रही हैं. दक्षिणी कश्मीर में कुछ लोगों ने कहा है कि 27 सितंबर तक ऐसी किसी गतिविधि में शामिल न हों क्योंकि 27 सितंबर को यूएन में कोई बड़ी घोषणा का अनुमान लगाया जा रहा है. </p><p>इस तरह से लोग अपने आम जनजीवन को स्थगित किए हुए हैं और 27 सितंबर का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं.</p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप 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जम्मू कश्मीर अपडेट: कश्मीरी कर रहे हैं 27 सितंबर का इंतज़ार
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