सुभाष कश्यप, संविधानविद
केंद्र में भाजपानीत एनडीए सरकार कई राज्यपालों को हटाना चाहती है. कुछ राज्यपाल स्वेच्छा से पद छोड़ भी चुके हैं. कुछ अड़ गये हैं. ऐसे में सवाल यह है कि क्या सरकार को ऐसा करने का हक है? संविधान विशेषज्ञों का मत है कि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की ही सलाह पर राष्ट्रपति करते हैं. ऐसे में केंद्र में नयी सरकार आने पर ऐसा होना लाजिमी है. फिर, पूर्व की यूपीए सरकार ने भी अपने दौर में कई राज्यपालों से इस्तीफा ले लिया था. इसी पर पढ़ें संविधान विशेषज्ञ की राय..
केंद्र में कोई भी नयी सरकार सत्ता में आती है, तो पहले की सरकारों द्वारा नियुक्त राज्यपाल के स्थान पर नये राज्यपाल नियुक्त करने की परिपाटी पुरानी है. हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के बाद एनडीए की सरकार पर्याप्त बहुमत से बनी है. ऐसे में परिपाटी के मुताबिक ही नयी सरकार यूपीए के शासनकाल में नियुक्त राज्यपालों को यह संदेश दे रही है कि वे पद छोड़ दें. यूपीए सरकारों के दौरान 18 राज्यपाल नियुक्त किये गये थे.
संवैधानिक प्रावधान भी यही है कि जब भी केंद्र सरकार (या राष्ट्रपति) किसी राज्यपाल को पद से हटाना चाहेगी, तो उसे पद से हटना पड़ेगा. यह कानून सम्मत दृष्टि से भी सही है और नैतिकता के तकाजे पर भी. कानून सम्मत दृष्टि से इसलिए, क्योंकि केंद्र सरकार की सिफारिश पर ही राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है. ऐसे में वे केंद्र सरकार की मर्जी के बिना राज्यपाल राज्यों में बने नहीं रह सकते. चूंकि आजकल सत्तारूढ़ राजनीतिक दल द्वारा अपनी पसंद के लोगों को ही राज्यपाल के पद पर नियुक्त किया जाता है, इसलिए नैतिकता का तकाजा भी यही है कि नयी सरकार के कहने पर वे पद से हट जायें.
इस मामले में केंद्र की सत्ता के साथ किसी भी तरह का टकराव नहीं हो, इसलिए भी यह जरूरी हो जाता है पहले की केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल केंद्र में नयी सरकार बनने पर खुद ही इस्तीफे की पेशकश करें.
हालांकि जिन लोगों को राज्यपाल के पद से हटाया जाता है, वे इसके खिलाफ न्यायालय की शरण में जाने के लिए स्वतंत्र हैं. ऐसी परिस्थिति में इस विषय में फैसला लेने का अधिकार न्यायालय को है. जब यूपीए की सरकार केंद्र में आयी थी, तब एनडीए शासनकाल में नियुक्त राज्यपालों को हटाये जाने के विरोध में भाजपा सांसद बीपी सिंघल ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था. इस पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने कहा था कि किसी राज्यपाल को हटाने के लिए केंद्र सरकार के पास पर्याप्त कारण होना चाहिए. लेकिन जब कोई व्यक्ति यह आरोप लगाता है कि उसे दुर्भावना से हटाया गया है, तो उसकी यह जिम्मेवारी होती है वह इसे साबित करे. इसमें मूल बात यही है कि राष्ट्रपति और केंद्रीय कैबिनेट की सहमति के बिना कोई भी व्यक्ति राज्यपाल के पद पर बना नहीं रह सकता.
यूपीए ने इन्हें हटाया था
एनडीए शासनकाल में नियुक्त राज्यपालों विष्णुकांत शास्त्री, कैलाशपति मिश्र, बाबू परमानंद और केदारनाथ साहनी आदि को यूपीए सरकार ने हटा दिया था. कुछ लोगों ने नयी सरकार बनने के बाद खुद ही त्यागपत्र दे दिया था. इसी तरह अब यूपीए सरकार के दौरान नियुक्त कुछेक राज्यपालों ने इस्तीफा देना शुरू कर दिया है. इस मामले में आज जो लोग सत्तारूढ़ दल पर राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं और राज्यपालों के हटाये जाने का विरोध कर रहे हैं, उन्होंने भी पहले ऐसा ही किया था.
कांग्रेस का हक नहीं
उधर, लोकसभा में निर्धारित संख्या से कम सीट मिलने के बावजूद कांग्रेस यह दावा कर रही है कि उसे नेता प्रतिपक्ष का पद मिलना चाहिए, यह उनका हक है, लेकिन यह दावा ठीक नहीं है. नियमों में साफ तौर पर यह उल्लेखित है कि किसी भी दल को यदि लोकसभा की सदस्य संख्या का 10वां हिस्सा नहीं प्राप्त होता है, तो उसके नेता को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाया जा सकता. हां, लोकसभा अध्यक्ष यदि चाहें तो सबसे बड़े दल के नेता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दे सकती हैं, लेकिन जो हक या सुविधाएं नेता प्रतिपक्ष को प्राप्त होती है, उसे देने का अधिकार लोकसभा अध्यक्ष के पास भी नहीं है. इसलिए कांग्रेस नेताओं को यह जिद छोड़ देनी चाहिए कि उसके नेता को नेता प्रतिपक्ष बनने का अधिकार है.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)