10.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

देश को घर समझने के मायने देती ”मुल्क”

मिहिर पंड्या, सिनेमा क्रिटिक ‘टेरेरिज्म की परिभाषा क्या है? राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्य के लिए हिंसा का प्रयोग, विशेषकर आम जनता के विरुद्ध. क्या आपने नोटिस किया कि इस डेफिनिशन में कहीं भी धर्म का मेंशन नहीं था. तो आप कैसे तय करते हैं कि ये टेरेरिज्म है, आैर ये नहीं है? कौन तय करता […]

मिहिर पंड्या, सिनेमा क्रिटिक
‘टेरेरिज्म की परिभाषा क्या है? राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्य के लिए हिंसा का प्रयोग, विशेषकर आम जनता के विरुद्ध. क्या आपने नोटिस किया कि इस डेफिनिशन में कहीं भी धर्म का मेंशन नहीं था. तो आप कैसे तय करते हैं कि ये टेरेरिज्म है, आैर ये नहीं है? कौन तय करता है कि ये टेरेरिज्म है आैर ये नहीं. क्या अनटचेबिलिटी टेरेरिज्म है? क्या इन्नोसेंट आदिवासियों पर अत्याचार टेरेरिज्म है? ऊंची जाति के लोगों द्वारा नीची जाति के लोगों पर अत्याचार टेरेरिज्म है? या इस्लामिक टेरेरिज्म के अलावा कुछ आैर आपको टेरेरिज्म लगता ही नहीं है?’
अनुभव सिन्हा की ‘मुल्क’ अपने समय के लिहाज से एक निडर फिल्म है. क्योंकि मिथ बस्टिंग का काम आैर वह भी सिनेमा जैसे लोकप्रिय माध्यम द्वारा करना किसी दोधारी तलवार पर चलने जैसा है.
मिथ बस्टिंग के लिए पहले जरूरी है उस मान्य कल्पना को उसी के तर्क से साथ खड़ा करना. जैसे ऊपर उदाहरण में कर्मठ पुलिस अफसर दानिश जावेद इस मिथ के साथ खड़े दिखायी देते हैं कि ‘हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान होता है’, शायद फिल्म की कथा भी. आैर इसी मिथ को तोड़ने की प्रक्रिया में एक हिंदू घर की बेटी आैर एक मुस्लिम घर की बहु वकील आरती मोहम्मद हमें आतंकवाद की परिभाषा तक लेकर जाती हैं.
अचानक बनारस के एक मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार की तबाही की कहानी में पूछे गये उसके कुछ सवाल हमें खैरलांजी के भैय्यालाल भोटमांगे के परिवार की तबाही की याद दिलाते हैं. दंडकारण्य के जंगलों में टेरेरिस्ट बताकर मारे जा रहे दर्जनों अवयस्क आदिवासी बच्चों की याद दिलाते हैं. ऊना की याद दिलाते हैं, बिहिया की याद दिलाते हैं. याद दिलाते हैं कि ‘आतंकवाद’ की परिभाषा धर्म की चौहद्दी तक सीमित नहीं. आैर उसकी असल परिभाषा राज्य-संस्था को उससे मुक्त नहीं करती है. ये नाम ‘मुल्क’ की कथा का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन यही ‘मुल्क’ की असली कथा है. जहां शोषित के नाम अलग-अगल दिखते हैं, लेकिन आततायी की पहचान में एका दिखता है.
बेशक, सारे मिथों से एक फिल्म में नहीं जीता जा सकता. शाहिद जो हाथ से निकल गया, उसे फिल्म यूं ही छोड़ देती है. उसकी दुनिया में नहीं जाती कि क्यों घर का सबसे नौजवान आैर पढ़ा-लिखा सदस्य इस मुल्क से अपनी आखिरी उम्मीद भी खो चुका है. फिल्म में वह किसी फ्लैशप्वॉइंट की तरह आता है. नहीं, यह फिल्म उसके बारे में नहीं.
तो क्या नौजवान मुसलमान ने अपनी आखिरी उम्मीद भी खो दी है इस मुल्क से?
नहीं. वो नौजवान बेटियां हैं घर की, जो खड़ी हैं मोर्चे पर. क्योंकि उन्हें लड़ने की आदत है. वे निकल जाती हैं साइकिल लेकर अपने ‘घर’ को बचाने, बिना किसी की परवाह किये. भिड़ जाती हैं. उनके लिए यही सर्वाइवल का अकेला तरीका है, जो उन्होंने सीखा है बचपन से. उनकी लड़ाई दोतरफा है.
बाहर भी, भीतर भी. जैसी हिंदुस्तान के हर घर में होती है. आरती घर में बड़े मुराद मोहम्मद के साथ खड़ी होती है, जब वे कहते हैं कि ‘क्यों जाऊं, कहां जाऊं? ये घर है मेरा.’ तो यहां ‘घर’ का अर्थ पूरा देश भी है. लेकिन, जब आरती अपने पति से कहती है, ‘ठीक तो कह रहे हैं अब्बू. किसे अच्छा लगता है अपना घर छोड़के जाना.’ तो इस वाक्य में भी ‘घर’ के दोहरे मतलब हैं, जो बदल गये हैं. आैर प्रसंग के अंत में कहा गया, ‘आफताब, जो सही है, वो तो बोलेंगे’, यह सिर्फ एक वाक्यभर नहीं है, दरअसल यह हर शोषित की आवाज है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें