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नेहरू की 50वीं पुण्यतिथि आज, आत्मविश्वासी राष्ट्र बनानेवाले पीएम

आजादी के बाद के दिनों की बात है. प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सांझ के गहरे धुंधलके में रंगमंच के पीछे एक कुर्सी पर बैठे सिगरेट पी रहे थे. पास रखी दूसरी कुर्सी पर बैठे एक सज्जन ने कंधे पर हाथ रखे, जिन्हें मैं तुरंत नहीं पहचान सका. बाद में वह जाना. वे तत्कालीन महाराज कुमार […]

आजादी के बाद के दिनों की बात है. प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सांझ के गहरे धुंधलके में रंगमंच के पीछे एक कुर्सी पर बैठे सिगरेट पी रहे थे. पास रखी दूसरी कुर्सी पर बैठे एक सज्जन ने कंधे पर हाथ रखे, जिन्हें मैं तुरंत नहीं पहचान सका. बाद में वह जाना. वे तत्कालीन महाराज कुमार श्री भगवत सिंह थे. मैं दरअसल अंधेरे और एकांत में बैठे प्रधानमंत्री को देख कर घबरा गया था. मैं डर गया था कि सुरक्षा-तंत्र वाले किसी अशुभ की आशंका में मुझे ही गिरफ्तार न कर लें.

30 मार्च 1954. उत्तर भारत के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान विद्या भवन, उदयपुर (राजस्थान) का वार्षिकोत्सव. जिसके अध्ययन-शोध का विषय, डिस्कवरी ऑफ इंडिया था. उसी पर आधारित नृत्य, संगीत, अभिनय आदि का रंगारंग कार्यक्रम, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री नेहरू कर रहे थे. जिस गांधी-नेहरू युग में मेरी पीढ़ी ने औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के सपने देखे और उन्हें साकार किया, उसके रचनाकार को देखने-सुनने का यह मेरे लिए रोमांचकारी अवसर था. उनकी वक्तृता और मुद्रा शांत, आवेश रहित तथा विषय- भारत निर्माण की भविष्य दृष्टियों का दीर्घकालीन समीक्षा जैसा था. 27 मई, 1964 को दिल्ली में नेहरूजी की मृत्यु हो गयी. इसी के साथ इस महान युग की समाप्ति हो गयी, जिसे गांधी-नेहरू युग कहा जाता रहा. याद रहे 30 जनवरी, 1948 को एक कट्टरपंथी हिंदू ने गांधीजी की हत्या कर दी थी.

नेहरूजी ने लगभग 17 वर्षों तक प्रधानमंत्री का कार्यभार संभाला. यह कार्यकाल 1947 से 1964 के बीच का था. यहां यह कहना जरा भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि विभाजन की विभीषिका, बंटवारा और त्रासद की उथल-पुथल के बीच नेहरू के अकथ साहस और धीरज के साथ लोकतांत्रिक, पंथ-निरपेक्ष, समतामूलक समाज-व्यवस्था और प्रशासकीय संस्थाएं सुदृढ़ करने की कोशिश की. आजादी के बाद शासन-व्यवस्था और रीति-नीति पर इस कालखंड का व्यापक और स्पष्ट प्रभाव उल्लेखनीय है. लेकिन यह वैकल्पिक (गांधी विकल्पों का) भारत नहीं था.

यह अंगरेजी भारत ही था. गांधी-नेहरू के बीच की चिंताओं और चिंतन की दूरियों का भारत-इंडिया. यह नेहरू-गांधी की भविष्य-दृष्टि का अंतर भी था. इसे स्पष्ट करते हुए रामचंद्र गुहा ने मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया में दोनों की सहमतियों-असहमतियों का इस प्रकार जिक्र किया है- नेहरूजी गांधीजी को श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे और गांधीजी अपने बेटों से भी ज्यादा स्नेह अपने अनुयायी पर बरसाते रहे. लेकिन भविष्य के भारत के प्रति दोनों के रुझान में भारी अंतर था. नेहरू धर्म-विरक्त थे, लेकिन गांधी अपने विश्वासों के अनुरूप ईश्वर पर आस्था रखते थे.

नेहरू भारत की पारंपरिक गरीबी से मुक्ति पाने के लिए औद्योगीकरण को ही एकमात्र विकल्प मानते थे. जबकि गांधी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के पक्षधर थे. नेहरू आधुनिक सरकारों में सामाजिक-व्यवस्था को सुधारने और गतिशील बनाने की क्षमता में पूरा यकीन करते थे. गांधी राज-तंत्र को शंका की नजर से देखते थे. उनका विश्वास व्यक्तियों और ग्राम-समुदायों के विवेक पर केंद्रित था. इन असहमतियों के साथ दोनों के बीच बुनियादी सहमतियां थीं. दोनों व्यापक अर्थ में देशभक्त थे, जिन्होंने किसी जाति, भाषा, क्षेत्र, धर्म या कि किसी भी तरह अधिनायकवादी सरकार के साथ होने के बजाय अपने को पूरा देश के साथ एकरार कर लिया था. दोनों हिंसा और आधिनायकवाद नापसंद करते थे. दोनों अधिनायकरवादी की तुलना में लोकतंत्रात्मक सरकारों को पसंद करते थे. (मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया : रामचंद्र गुहा, पृष्ठ 327)

स्वतंत्रता-संग्राम के आंदोलनों में अनेक बार जेल यातनाएं सहते हुए नेहरू को अपार लोकप्रियता मिली. जनता ने उनकी खुशमिजाजियों और बदमिजाजियों को समान रूप से सहेजा. जब उन्होंने नाराज होकर तकिये फेंके तब भी और जब उन्होंने फूल-मालाएं फेंकी तब भी. युवा उनकी वस्त्र पहनने लगे, उनकी तरह बोलने और लिखने लगे. इस तरह वे अघोषित प्रतिष्ठा के प्रतीक हो गये.

नेहरू संबंधी विमर्श में यह बात स्पष्ट हो जाना आवश्यक है कि वे आधुनिक और बड़े अर्थ में समाजवादी थे. इसी अर्थ में वे सनातनी हिंदू और आत्मा की आवाज सुनते गांधी से अलग थे. उन्होंने 19वीं सदी के सभ्यता विमर्श को जड़-मूल से उखाड़ कर फेंक नहीं दिया था. उन्‍होंने लिखा, आज की सभ्यता में अनेक विकृतियां हैं, किंतु उसकी अनेक विशेषताएं हैं. उसमें विकृतियों से मुक्त होने की ताकत भी है. उसे जड़-मूल से नष्ट करने का अर्थ उसकी ताकत को खत्म करके एक उदास, अंधेरी और दुखभरी जिंदगी की ओर लौट जाना है.

एक मध्यमार्गी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष और सदस्य रहते जवाहरलाल नेहरू समाजवादी समाज-रचना के लिए अपनी प्रतिबद्धता घोषित करते हैं. दरअसल विकास का नेहरू विजन मॉडल राज्य की उस विकासवादी प्रतिबद्धता की घोषणा ही है, जो शोषण-विहीन समाज-रचना की बुनियादी शर्त है. अपनी समाजवादी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए नेहरू लिखते हैं, मैं समाज से व्यक्ति संपदा और मुनाफे की भावना खत्म करना चाहता हूं. मैं प्रतिस्पर्द्धा की जगह समाज-सेवा और सहयोग की भावना स्थापित करने का समर्थक हूं. मैं व्यक्तिगत मुनाफे के लिए नहीं, उपयोग के लिए उत्पादन चाहता हूं.

मैं यह बात विश्वासपूर्वक कहता हूं कि दुनिया और भारत की समस्याओं का अंत समाजवाद से ही हो सकता है. मैं इस शब्द को किसी अस्पष्ट समाजवादी की तरह नहीं समाज-वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री की तरह काम में लेता हूं. समाजवाद केवल आर्थिक सिद्धांत ही नहीं, जीवन-दर्शन भी है. मुझे समाजवाद के सिवाय भारत की गरीबी और बेरोजगारी का अंत नजर नहीं आता. समाजवाद का अर्थ है- व्यक्ति-संपदा का उन्मूलन और व्यक्तिगत मुनाफे की जगह सहयोगी भावना के महान आदर्श की शुरुआत. इसका अर्थ है-हमारी रुचियों, आदतों हमारी प्रवृत्तियों में बुनियादी तब्दीली. संक्षेप में एक पुरानी पूंजीवादी व्यवस्था से अलग एक नयी सभ्यता की शुरुआत.

गौरतलब है कि नेहरू के समय की अर्थनीतियां मिश्रित अर्थव्यवस्था पर आधारित हैं. वे लोकतंत्रात्मक छवि और समाजवादी उत्साह का मिश्रित रूप है. नेहरू अंगरेजी मिजाज की शासन व्यवस्था के साथ बहुत कम छेड़छाड़ करते हैं. न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस, टैक्स-वसूली आदि का ढांचा ब्रिटिश-काल जैसा ही बना रहता है. नौकरशाही का रुझान, रुतबा, आतंक, अधिकार यथावत बने रहते हैं. फेरबदल में सिर्फ अंगरेज हुक्मरानों की जगह भारतीय नजर आते हैं. यह भी देखा जा सकता है कि समाजवाद के प्रति आकर्षित नेहरू समाजवादी नहीं कहलाना चाहते, वे अपनी शासन-व्यवस्था के विकल्प खुले रखते हैं. आजादी के समय की अनेक स्वदेशी घोषणाएं अनुपयोगी, अव्यावहारिक हो जाती हैं. गांधी की पुस्तक हिंद-स्वराज्य पुरानी हो जाती है.

समाजवादी नेहरू बदलाव की प्रक्रिया में हिंसा का दखल जरा भी पसंद नहीं करते. क्रांति का आधार अहिंसा, पूंजी तथा श्रम, जमींदार तथा रैयत के साथ सद्भावनापूर्ण संबंध हों. किसी निश्चित छाप-तिलक के समाजवादी न होने के कारण उन पर निरंतर व्यक्तिवादी होने के आरोप लगते रहे. इन आरोपों से उद्विग्न होकर 1939 में सुभाष बोस को एक पत्र में लिखा, क्या मैं समाजवादी हूं या क्या मैं व्यक्तिवादी हूं? क्या दोनों में अंतर्विरोध होना आवश्यक है? मैं मानता हूं कि स्वभाव और प्रशिक्षण के कारण मैं व्यक्तिवादी हूं, लेकिन बुद्धि मुझे समाजवादी बनाती है. मैं विश्वास करता हूं कि समाजवाद व्यक्तित्व की विशेषताओं को न तो कुंठित करता है और न उन्हें अविकसित रहने देता है. मैं इसलिए समाजवाद के प्रति आकर्षित हूं कि उसके जरिये व्यक्ति असंख्य आर्थिक एवं सांस्कृतिक बंधनों से मुक्त होता है. मैं एक हद तक खुद से और दुनिया से असंतुष्ट हूं.

सत्ता में आने के बाद नेहरू का अंत:संघर्ष तीव्र और जटिल हो गया. एक पुराने और अतीत की स्मृतियों से बंधे हुए देश के नये उद्योग, नयी कृषि, नया अर्थशास्त्र और समाजवादी दृष्टि देने की सीमाएं तो थी हीं, साथ ही विभाजन में क्लेश और निरपराध लोगों का रक्तपात, राज्यों का पुनर्गठन, संविधान-निर्माण असंख्य लोगों की असंख्य इच्छाओं को समझाने योग्य संवेदनशील व्यवस्था की स्थापना का काम जैसी चिंताएं नेहरू को घेरे रहीं.

समाजवादी साथियों का धीरे-धीरे नेहरू से, उनकी नीतियों से मोह भंग होने लगा, क्योंकि नेहरू गैरबराबरी के विरुद्ध केवल बयानबाजी और दुख व्यक्त करते थे और एक लचीले मन वाले तानाशाह हो रहे थे. पार्टी और सरकार पर उनकी पकड़ मजबूत थी. उनके स्थापित विकास मिथक को तोड़ते हुए डॉ रामनोहर लोहिया ने तीन आना प्रतिदिन का आंकड़ा बता कर नेहरू को संकट में डाल दिया था. संसद में समाजवादी लोहिया उनके मुखर विरोधी और जन-पक्षीय नीतियों के प्रवक्ता बन गये थे.

अपने शासनकाल में नेहरू कई मोरचों पर बदलाव के संकल्पों को रूपाकार नहीं दे पाये, लेकिन उनके कार्यकाल में एक कठोर संवेदनशून्य नौकरशाही का जस-का-तस बने रहना सबसे अधिक चिंताजनक रहा. भाषा के मोरचे पर अंगरेजी अपने दबदबे को यथावत बनाये रही. शहर फलने-फूलने लगे. गांवों का न अंधेरा कम हुआ न उदासी.

नेहरू काल का सबसे बड़ा सदमा चीन का आक्रमण था. आचार्य कृपलानी ने जिस पर नेहरू की इतिहास दृष्टि का मजाक उड़ाते हुए संसद में कहा था, अध्यक्ष महोदय! हमारे प्रधानमंत्री बार-बार इतिहास बनाने की बात करते हैं, जबकि चीनी भूगोल बना रहे हैं. नेहरू की यह पचासवीं बरसी है, तब उन्हें औपचारिकतावश नहीं, प्रसन्नता, कृतज्ञता के साथ यह श्रेय तो देना ही है कि वे भारत के आधुनिक, प्रगतिशील, शक्तिवान, आत्मविश्वासी राष्ट्र बनानेवाले प्रधानमंत्री रहे.

नंद चतुर्वेदी

लेखक एवं साहित्यकार

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